मोदी के खिलाफ बन रहा मोर्चा कितना मजबूत है?

मंगलवार, 22 जनवरी 2019 (11:54 IST)
कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल पर हुई विराट रैली ने पीएम नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान पहली बार देशव्यापी विपक्षी एकता की संभावना का स्पष्ट संकेत दिया है।
 
 
इस रैली में कांग्रेस समेत 22 राजनीतिक पार्टियों के 25 वरिष्ठ नेता शामिल थे लेकिन वामपंथी पार्टियों की इसमें शिरकत नहीं थी। यूं भी सीपीएम अभी तक अपनी राजनीतिक लाइन तय नहीं कर पाई है और अन्य वामपंथी पार्टियां भी अंधेरे में ही रास्ता टटोल रही हैं।
 
कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, तेलुगु देशम पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी और डीएमके जैसी विभिन्न क्षेत्रों, जनाधारों और विचारधाराओं वाली इन सभी पार्टियों का एक साझा उद्देश्य आने वाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हराना है क्योंकि पिछले साढ़े चार सालों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की छत्रछाया में जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं की दुर्गति हुई है, देश में हर प्रकार की असहिष्णुता बढ़ी है, अर्थव्यवस्था तहस-नहस हुई है और रफाल लड़ाकू विमानों की खरीद में घोटाले के आरोप भी सामने आए हैं, उसके कारण सरकार की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है। यदि विपक्ष इसका चुनावी लाभ उठाना चाहता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
 
इसके पहले कुछ समय तक एक फेडरल फ्रंट यानी संघीय मोर्चे की बात भी चली थी जिसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने प्रस्तावित किया था और ममता बैनर्जी उसके प्रति आकर्षित भी हुई थीं लेकिन उन्हें और अन्य पार्टियों के नेताओं को भी जल्दी ही समझ में आ गया कि भाजपा और कांग्रेस को एक ही तराजू में तोलना ठीक नहीं होगा और कोई तीसरा मोर्चा मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को शिकस्त नहीं दे सकता। इसलिए विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना ही होगा। यही कारण है कि हमेशा कांग्रेस का विरोध करने वाले चंद्रबाबू नायडू भी रैली में मौजूद थे।
 
बीजेपी ने इसे "राजनीतिक अवसरवाद" कहा है लेकिन वह गठबंधन बनाने का अपना इतिहास भूल गई। उसने इन पार्टियों के आपसी अंतर्विरोधों और तनावों की ओर भी इशारा किया है जबकि रैली में शामिल पार्टियों और उनके नेताओं को भी इनका पूरा-पूरा अहसास है और वे इसके बावजूद एकजुट हुए हैं।
 
इस रैली में यह संकल्प भी लिया गया कि देश के अन्य भागों में भी इसी प्रकार की रैलियां की जाएंगी ताकि विपक्षी एकता न केवल मजबूत हो बल्कि देशवासियों को भी वह मजबूत होती हुई दिखे और उन्हें उसकी ताकत में यकीन हो जाए।
 
यह सही है कि विपक्षी एकता का निर्माण केवल सदिच्छा के आधार पर नहीं किया जा सकता। सभी नेताओं की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं। पार्टियों के जनाधार अलग-अलग हैं और चुनाव प्रचार के दौरान उनके बीच कैसा और कितना तालमेल हो पाएगा, उसी से पता चलेगा कि एकता कितनी कारगर होगी।
 
उधर सबसे अधिक 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अभी तक विपक्षी एकता अधूरी है क्योंकि वहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच चुनावी समझौता और सीटों का बँटवारा हो चुका है। कांग्रेस इस गठबंधन के बाहर है और अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के साथ अभी बातचीत चल रही है लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है।
 
यह महागठबंधन किसी को भी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से बच रहा है, लेकिन बीएसपी प्रमुख मायावती के सिपहसालार अभी से उनका नाम उछालने लगे हैं और यह कोई अच्छा संकेत नहीं है। सभी को पता है कि गठबंधन की अपनी समस्याएं होती हैं लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब इन समस्याओं के साथ सफलतापूर्वक निबटा गया। स्वयं मोदी सरकार औपचारिक रूप से राष्ट्रीय जनतंत्रिक गठबंधन की सरकार है।
 
बीजेपी को भी अपने सहयोगी दलों की ओर से लगातार परेशानी रही है। शिवसेना तो उस पर लगातार प्रहार करती ही रहती है, अब नीतीश कुमार के जनता दल (यू) ने असम में नागरिकता कानून को लेकर असहमति जता दी है। लोकसभा में उसके सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया और अब राज्यसभा में वे इसका विरोध करेंगे। इसलिए बीजेपी विपक्षी गठबंधन की इस मुद्दे पर कोई प्रभावी आलोचना नहीं कर पाएगी कि इसमें शामिल दलों के बीच अंतर्विरोध हैं।
 
कांग्रेस भी अब गठबंधन की राजनीति का अनुभव हासिल करती जा रही है और कर्नाटक में उसने कम विधायकों वाले एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाकर दिखा दिया है कि बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वह कुर्बानी भी दे सकती है। उत्तर प्रदेश में भी एसपी और बीएसपी के साथ बातचीत फिर से शुरू हो सकती है क्योंकि अभी चुनाव होने में दो-तीन माह का समय है। जो भी हो, पहली बार मोदी सरकार को प्रभावी चुनावी चुनौती मिलती नजर आ रही है।
 
रिपोर्ट कुलदीप कुमार

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी