चुनावों की वजह से असम को अशांत क्षेत्र घोषित किया गया

DW

शनिवार, 27 फ़रवरी 2021 (16:26 IST)
असम विधानसभा चुनावों से पहले राज्य को विवादास्पद अफस्पा अधिनियम के तहत फिर 6 महीने के लिए अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। राज्य में इस अधिनियम की मियाद 27 फरवरी से 6 महीने के लिए बढ़ा दी गई है।
 
राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि इस साल होने वाले चुनावों में सत्तारुढ़ बीजेपी को विवादास्पद नागरिकता कानून (सीएए) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) के बढ़ते विरोध की वजह से अप्रिय हालात का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि सरकार की दलील है कि हाल के महीनों में राज्य के विभिन्न हिस्सों से हथियारों व गोला-बारूद की बढ़ती बरामदगी को ध्यान में रखते हुए ही इस अधिनियम को आगे बढ़ाया गया है। लेकिन जानकारों की राय में इसकी सबसे बड़ी वजह विधानसभा चुनाव ही है।
 
दरअसल, सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर राज्य में पहले बड़े पैमाने पर हिंसक संघर्ष हो चुके हैं और कई लोगों की मौत हो चुकी है। अफस्पा पर पूर्वोत्तर राज्यों में विवाद होते रहे हैं। इस अधिनियम के तहत सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार मिल जाते हैं। इसके तहत उनको तलाशी अभियान चलाने और किसी को भी बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है। पूर्वोत्तर में इस कानून की आड़ में आम लोगों पर अत्याचार करने और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप भी लगते रहे हैं।
 
असम से लगे इलाकों में भी लागू
 
इससे पहले बीते साल 28 अगस्त को राज्य में अफस्पा को 6 महीने के लिए बढ़ाया गया था। लेकिन अप्रैल-मई में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव से पहले असम के राज्यपाल जगदीश मुखी ने पूरे प्रदेश को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया है। सरकार की ओर से जारी बयान में बताया गया है कि आर्म्ड फोर्सेज (स्पेशल पावर्स) एक्ट, 1958 की धारा 3 के तहत मिले अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए राज्यपाल ने 27 फरवरी से 6 महीने तक पूरे राज्य को अशांत क्षेत्र घोषित किया गया है।
 
राज्यपाल चाहें तो इस अवधि को पहले भी खत्म कर सकते हैं। हालांकि, सरकार मौजूदा हालात में इसकी मियाद बढ़ाने पर कोई ठोस टिप्पणी नहीं की है। लेकिन सरकारी सूत्रों का कहना है कि राज्य में कई जगह हथियार और गोला-बारूद की बरामदगी की वजह से ही राज्यपाल ने असम में अफस्पा को बढ़ाने का फैसला किया होगा।
 
दिलचस्प बात यह है कि यह फैसला ऐसे समय किया गया है जब इसी सप्ताह पांच अलग-अलग उग्रवादी संगठनों के एक हजार से ज्यादा उग्रवादियों ने हथियार डाले हैं। असम के अलावा यह कानून नागालैंड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के असम से लगे इलाकों में लागू है।
 
बढ़ाई जाती रही है मियाद
 
असम सरकार के गृह विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि कुछ उग्रवादी गुट अब भी असम के कुछ हिस्सों और पड़ोसी राज्यों के साथ लगी सीमा पर सक्रिय हैं। बीते 6 महीनों के दौरान राज्य के विभिन्न हिस्सों से कई लावारिस अवैध हथियार और गोला-बारूद बरामद किए गए हैं।
 
इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले से एक तेल कंपनी के दो लोगों का अपहरण भी किया जा चुका है। अब तक उनकी रिहाई नहीं हो सकी है। उस अधिकारी की दलील थी कि कुछ संगठन असम को अशांत करना चाह रहे हैं। असम-अरुणाचल प्रदेश सीमा से भी उग्रवादी गतिविधियां तेज होने की खबरें मिल रही थीं। इसे ध्यान में रखते हुए राज्य में अफस्पा की मियाद बढ़ाने का फैसला किया गया।
 
असम में अफ्सपा पहली बार नवंबर 1990 में लागू हुआ था। लेकिन तब यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) नामक उग्रवादी संगठन की गतिविधियां चरम पर थीं और खासकर चाय बागानों से जबरन वसूली और अपहरण के मामले लगातार बढ़ रहे थे। उसके बाद परिस्थिति की समीक्षा करने के बाद हर 6 महीने बाद इस अधिनियम की मियाद बढ़ाई जाती रही है।
 
उग्रवादी संगठनों की दहशत के साए में
 
पूर्वोत्तर के विभिन्न संगठन लंबे समय से इस विवादास्पद अधिनियम को खत्म करने की मांग करते रहे हैं। खासकर मणिपुर में तो इसके खिलाफ कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं। मणिपुर की महिलाओं ने इसी कानून की आड़ में मनोरमा नामक एक युवती की सामूहिक बलात्कार व हत्या के विरोध में बिना कपड़ों के सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था और उस तस्वीर ने तब पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं। लौह महिला के नाम से मशहूर इरोम शर्मिला इसी कानून के खिलाफ लंबे अरसे तक भूख हड़ताल कर चुकी हैं।
 
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि असम में अगला विधानसभा चुनाव ही इस विवादास्पद कानून को लागू करने की सबसे बड़ी वजह है। दरअसल असम शुरू से ही उग्रवादी संगठनों की दहशत के साए में रहा है। सरकार की दलील है कि विधानसभा चुनावों के दौरान यहां बड़े-बड़े नेताओं की रैलियां आयोजित की जानी है। उनमें प्रधानमंत्री, दूसरे केंद्रीय मंत्री और कई मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। उनकी सुरक्षा के लिहाज से भी अफस्पा की मियाद बढ़ाना जरूरी था। यह हकीकत है कि बीजेपी सरकार सीएए और एनआरसी विरोधी आंदोलनों को कोई ऑक्सीजन नहीं मुहैया कराना चाहती। एक सरकारी अधिकारी बताते हैं कि सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर हुए हिंसक आंदोलनों को उग्रवादी संगठनों की भी शह मिलती रही है। ऐसे में सरकार कोई खतरा नहीं मोल लेना चाहती थी।
 
राजनीतिक विश्लेषक हीरेन गोहांई कहते हैं कि सत्तारुढ़ बीजेपी को विधानसभा चुनावों के समय सीएए और एनआरसी के खिलाफ विरोध के एक बार फिर जोर पकड़ने का अंदेशा है। इसी वजह से अफस्पा की मियाद बढ़ाई गई है। हाल में एक हजार से ज्यादा उग्रवादियों ने हथियार डाले हैं। ऐसे में उग्रवादी गतिविधियों के खतरे वाली दलील गले से नीचे नहीं उतरती।

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