भारत में मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। कोरोना महामारी की चपेट में आकर जान गंवाने वालों की मौत के बाद भी हो रही दुर्दशा से उठे हैं कई सवाल।
कोरोना महामारी के दौरान संक्रमितों के अंतिम संस्कार तथा शवों को श्मशान या क्रबिस्तान तक ले जाने में लोगों की काफी फजीहत हो रही है। तमाम एहतियातों के बावजूद एम्बुलेंस चालक तथा धार्मिक रीति रिवाजों की प्रक्रिया पूरी करने वालों की मनमानी किसी से छुपी नहीं है। संक्रमण के डर से समाज का साथ भी नहीं मिल रहा। परेशान हाल लोग विपदा की इस घड़ी में अपने प्रियजनों के शवों को अस्पतालों में छोड़ देने या नदियों में प्रवाहित करने से गुरेज नहीं कर रहे। यही वजह है कि अदालतों में लोकहित याचिका दायर कर मृतकों के अधिकारों की रक्षा व गरिमा को बनाए रखने की मांग उठने लगी है।
भारत में मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई विशेष कानून नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 1989 में परमानंद कटारा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के एक मामले में कहा है कि न केवल जीवित व्यक्ति के लिए, बल्कि उसके मृत शरीर के मामले में भी जीवन का अधिकार, उपचार व गरिमा लागू है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उन्हें यह अधिकार प्राप्त हैं। कोरोना महामारी के दौरान शवों के परिवहन में एम्बुलेंस संचालकों की मनमानी तथा अंतिम संस्कार के दौरान श्मशान या कब्रिस्तान में तय शुल्क से ज्यादा वसूली की शिकायत काफी बढ़ गई है। इसके लिए स्वजनों से तय मानदंडों से कई गुणा ज्यादा वसूली की जा रही है।
संक्रमण के खौफ व प्रियजन के बिछुड़ने से आहत परिजन हर कुछ सहने को विवश हैं। राजधानी दिल्ली समेत देश के लगभग हर कोने में ऐसी खबरें प्राय: मीडिया की सुर्खियां बनती रही हैं। इसी मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में एक लोकहित याचिका दाखिल की गई है। जिसमें अदालत से केंद्र सरकार को यह निर्देशित करने की मांग की गई है कि वह राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को सलाह दे कि इस संदर्भ में वे यथाशीघ्र दिशा-निर्देश जारी करे और इसका अनुपालन सुनिश्चित करें। निर्देश का पालन नहीं करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भी प्रावधान किया जाए।
केंद्र को नीति बनाने का निर्देश देने की मांग
अधिवक्ता जोस अब्राहम के जरिए याचिका दायर करने वाली स्वयंसेवी संस्था (एनजीओ) डिस्ट्रेस मैनेजमेंट कलेक्टिव ने अदालत से मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए केंद्र को नीति बनाने का निर्देश देने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि यह काफी पीड़ादायक है कि पैसे के अभाव में लोग अपने आत्मीय जनों के शवों को गंगा जैसी नदियों में बहा रहे हैं। एम्बुलेंस सेवाओं व अंतिम संस्कार के लिए अनाप-शनाप राशि की मांग ही प्रारंभिक तौर पर इसकी वजह है। यह भी कहा गया है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने मृतकों के अधिकारों की रक्षा तथा उनकी गरिमा बरकरार रखने के लिए एडवाइजरी भी जारी की है। लेकिन इस संदर्भ में अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है। अदालत से मांग की गई कि मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए केंद्र तथा राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों को जल्द से जल्द नीति बनाने का निर्देश जारी किया जाए। याचिकाकर्ता ने इस मसले पर दिल्ली हाईकोर्ट में भी याचिका दाखिल की थी। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भी कोरोना से मरने वाले के लावारिस शवों को विशेष रूप से गैस वाले शवदाह गृहों में जलाने के लिए नीति बनाने की मांग पर विचार करने को कहा है।
क्या है मानवाधिकार आयोग की गाइडलाइन
मृतकों के अधिकारों की रक्षा व गरिमा बनाए रखने के संबंध में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कोरोना काल में विशेष तौर पर गाइडलाइन जारी किया है। इसमें कहा गया है कि मरणोपरांत कानूनी अधिकारों की मान्यता मृत लोगों को भारतीय कानून प्रणाली के भीतर महत्वपूर्ण नैतिक स्थिति प्रदान करती है। कानून एक मृतक की इच्छाओं का सम्मान व उसके हितों की रक्षा करने का भी प्रयास करता है। प्राकृतिक या अप्राकृतिक, दोनों तरह की ही मौतों में मृतकों के अधिकारों की रक्षा करना व मृत शरीर पर अपराध को रोकना राज्य का कर्तव्य है। यह जरूरी है कि राज्य व केंद्र शासित प्रदेश एक एसओपी तैयार करे ताकि मृतकों की गरिमा सुनिश्चित की जा सके और उनके अधिकारों की रक्षा हो सके। इसके लिए कुछ बुनियादी सिद्धांत भी तय किए गए हैं जिनमें शव के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करने, कोई शारीरिक शोषण नहीं करने, सभ्य तरीके से व समय पर दफन या दाह संस्कार करने, अपराध के कारण मृत्यु होने पर न्याय प्राप्त करने, कानूनी वसीयत को पूरा करने, मौत के बाद कोई मानहानि नहीं करने व निजता का उल्लंघन नहीं करने की बात कही गई है।
इसके अलावा अस्पताल व पुलिस-प्रशासन के सभी अवयवों के लिए भी साफ तौर पर जिम्मेदारी तय की गई है। आयोग की सिफारिशों में मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशिष्ट कानून बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। श्मशानों में शवों की लंबी कतार और कोरोना से मौतों की बड़ी संख्या को देखते हुए अनुचित देरी से बचने के लिए अस्थायी व्यवस्था करने की बात कही गई है। श्मशानों या कब्रिस्तानों में काम करने वाले कर्मचारियों को उचित भुगतान एवं आवश्यक सुविधाएं व सुरक्षा उपकरण प्रदान करने तथा सैनिटाइजेशन की व्यवस्था करने को कहा गया है। आयोग ने सामूहिक अंत्येष्टि या दाह-संस्कार की अनुमति नहीं दिए जाने को कहा है क्योंकि इससे मृतकों की गरिमा के अधिकार का उल्लंघन होता है। विशेष तौर पर कोरोना से मृत लोगों के शवों के परिवहन के लिए मनमाने ढंग से वसूली करने पर रोक लगाने तथा शुल्क का विनियमित करने की सिफारिश की गई है ताकि शवों के परिवहन में कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़े और लोगों का शोषण न हो सके।
गंगा में तैरतों शवों पर हो चुका है हंगामा
मई के दूसरे सप्ताह में गंगा नदी में तैरते शवों की खबरें मीडिया की सुर्खियां बनीं थीं। आशंका जताई गई थी कि ये शव कोरोना संक्रमितों के हैं। उत्तरप्रदेश के कई इलाकों तथा बिहार के बक्सर जिले के चौसा में गंगा नदी में शवों के बहकर आने को लेकर खूब हंगामा हुआ। कहा गया कि बक्सर में मिले ये शव उत्तरप्रदेश के विभिन्न गांवों से बहकर आए थे। बक्सर के चौसा में श्मशान घाट पर रहने वाले डोम राजा का कहना था कि शव लेकर आने वाले जबरन ही नदी में शव प्रवाहित कर चले जा रहे हैं। वैसे यह भी चर्चा रही कि चौसा में निरीक्षण के लिए श्मशान घाट पहुंचे स्थानीय अधिकारियों के समक्ष ही राजपुर प्रखंड के किसी गांव से आए कुछ लोगों ने कहा था कि इलाज व दवा में सारे पैसे खर्च हो गए। दाह-संस्कार के लिए पैसे नहीं होने पर वे शव को प्रवाहित करने को उतारू थे। बाद में सरकारी मदद पर लकड़ी से दाह-संस्कार कराया गया। इसी जिले के सिमरी प्रखंड के किसी गांव का भी वीडियो वायरल हुआ था जिसमें नदी किनारे लगे शवों को दिखाया गया था। कई जगहों पर शवों को कौए व गिद्ध नोंचते हुए देखे गए। बक्सर में बिहार-यूपी की सीमा गंगा नदी में महाजाल लगाया गया। शवों के बहकर आने का मामला सामने आने के बाद करीब 90 शवों को गंगा नदी से निकाल कर दफन किया गया। इस मामले में पटना हाईकोर्ट को सौंपे गए हलफनामे में बिहार सरकार ने कहा कि बक्सर को दूसरा काशी माने जाने की मान्यता के कारण यहां गंगा तट पर काफी संख्या में अंत्येष्टि होती रही है। दरअसल, हाईकोर्ट ने पटना के प्रमंडलीय आयुक्त से बक्सर में जलाए गए शवों के संबंध में ब्योरा तलब किया था।
एनएचआरसी से भी की गई शिकायत
इस संबंध में समाचारों को आधार बनाते हुए एनएचआरसी से शिकायत की गई थी जिसमें आयोग से इस मामले में दखल देने तथा ऐसी घटनाओं को रोकने में लापरवाह रहे अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की गई थी। आयोग ने मामले का संज्ञान लेते हुए उत्तरप्रदेश व बिहार के मुख्य सचिव तथा केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय के सचिव को नोटिस जारी कर कार्यवाही रिपोर्ट देने का निर्देश दिया। आयोग ने यह भी कहा कि पवित्र गंगा नदी में शवों को प्रवाहित करना स्वच्छ गंगा के राष्ट्रीय मिशन की गाइडलाइन के भी खिलाफ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में भी एक याचिका दायर कर जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआइटी) गठित करने की मांग की गई है। शवों को नदियों में प्रवाहित करने के मामले में केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय ने इस पर अविलंब रोक लगाने का निर्देश दिया है। वैसे बिहार सरकार ने हाय-तौबा मचने के बाद कोरोना संक्रमितों के अंतिम संस्कार की राज्य में नि:शुल्क व्यवस्था की है। राजधानी पटना में बांसघाट, गुलबीघाट व खाजेकलां घाट पर नगर निगम की ओर से संक्रमितों के दाह-संस्कार की व्यवस्था है। लकड़ी के लिए किसी तरह का शुल्क परिजनों से नहीं लिया जा रहा है। इससे पहले शव जलाने के लिए 10,500 रुपए देने पड़ते थे। विद्युत शवदाह गृह या लकड़ी के जरिए अंतिम संस्कार, दोनों को नि:शुल्क कर दिया गया है। निगम ने लोगों की सुविधा के लिए कंट्रोल रूम का नंबर भी जारी किया है ताकि उन्हें घाट पर ज्यादा देर तक इंतजार न करना पड़े।
जाहिर है, कोरोना महामारी के इस दौर में समाज का भी एक नया चेहरा सामने आ रहा है। मजबूरी में ही सही, मौत के बाद शवों को फेंक देना या नदी में प्रवाहित कर देना समाज को शर्मिंदा करने वाला कृत्य तो है ही, साथ ही यह अमानवीय भी है। किसी भी हाल में इसकी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। जरूरत है, लोकतंत्र के चारों स्तंभों को मिलकर इस संबंध में ठोस नीति बनाने की ताकि जिंदा रहते किसी व्यक्ति को मौत के बाद दुर्गति का डर न सता सके।