कृषि बिलों के विरोध में किसानों के अभूतपूर्व आंदोलन की एक बड़ी खासियत है - इसमें पंजाब के तमाम छोटे-बड़े कलाकारों, गायकों, गीतकारों की भागीदारी। उनकी आवाज ने आंदोलन को नई गूंज से भर दिया है।
दिल्ली की सीमाओं पर डटे हुए किसानों के विरोध आंदोलन की कई विशेषताएं देखी जा रही हैं और इसके कई सबक भी हैं। अपनी पूरी बुनावट में यह आंदोलन अगर स्थिर, टिकाऊ, दीर्घजीवी और संघर्ष चेतना से लैस नजर आता है, तो इसकी वजह किसानों की जीवटता, पैनी समझ और जिद ही नहीं, उन्हें अपने समाज और मिट्टी से मिल रहा समर्थन भी है। अवॉर्ड वापसी के 2015 के दौर से बहुत आगे का तत्व इस आंदोलन में देखा जा रहा है, जहां पार्टी लाइनें भी धुंधली पड़ गई हैं। बीजेपी का समर्थन करते रहने वाले प्रकाश सिंह बादल जैसे नेता को देश का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान लौटाना पड़ रहा है, तो विभिन्न खेलों के अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी अपने मेडल और सम्मान विरोधस्वरूप वापस कर रहे हैं।
सीएए विरोधी आंदोलन की जीवटता काम आई
पंजाब के अधिकांश बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों के अलावा अधिवक्ताओं, गीतकारों, गायकों, लोक कलाकारों और अभिनेताओं ने भी इस आंदोलन को अपनी आवाज दी है। बढ़ चढ़कर छात्र, नौकरीपेशा युवा, शिक्षक से लेकर आईटी पेशेवर तक इस किसान आंदोलन में अपने ढंग का सहयोग कर रहे हैं। मजदूर, ड्राइवर, क्लीनर, मैकेनिक, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता जैसे साधारण कामगार भी सड़कों पर मदद के लिए उतर आए हैं।
इस आंदोलन में अभी कुछ समय पहले के सीएए विरोधी आंदोलन की झलक भी देखी जा सकती। इसकी ऊर्जा देखकर यही लगता है कि उस आंदोलन से भी इसे अपने लिए कुछ सूत्र जरूर मिले हैं और प्रतिरोध की चेतना का विस्तार ही हुआ है। सबसे बड़ा सूत्र एक अघोषित, नैसर्गिक एकजुटता का है। समर्थन के लिए कोई किसी के पास नहीं जा रहा है, बल्कि लोग, शख्सियतें, कलाकार और संगठन चले आ रहे हैं और किसानों को समर्थन दे रहे हैं। विपक्षी राजनीतिक दलों को भी इस आंदोलन को समर्थन देना पड़ा है। जानकारों का मानना है कि आंदोलन की अनदेखी करना किसी के लिए भी कठिन हो रहा है, यह बात सरकार और उसके नुमायंदे भी जानते हैं।
आंदोलन की धार बने गीतों का रहा है इतिहास
आंदोलन को नए तेवर और ताप देने वाली नई रंगत बख्शी है पंजाब के गायकों और गीतकारों ने। इन कलाकारों ने तमाम मीडिया में यही कहा कि यह वक्त मिट्टी का कर्ज चुकाने का है और वे इसमें कोताही नहीं कर सकते थे। 1907 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पंजाब में जनांदोलन का आह्वान करते हुए आंदोलनकारी बांके दयाल ने एक जनगीत लिखा था, "पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओए।” बताया जाता है कि 1857 की लड़ाई की 50वीं सालगिरह पर रचे गए इस गीत को उस दौर में इसे गाने वालों में भगत सिंह के पिता और चाचा भी शामिल थे।
पंजाबी अस्मिता और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गया यह गीत आज भी पंजाब के आंदोलनकारियों की जबान पर रहता है और इधर किसान आंदोलन में अलग अलग आवाजों में इसकी गूंज फिर सुनाई देने लगी है। और इसी गीत की ऐतिहासिकता और लोकस्मृति में इसकी उपस्थिति ने भी किसान आंदोलन में अपनी अपनी भूमिका निभाने के लिए कलाकारों, गीतकारों और गायकों को प्रेरित किया है। इस तरह न सिर्फ यह रचना का जुड़ाव है, बल्कि पंजाबी लोकसंस्कृति और हक की लड़ाई की परंपरा से उनकी एक जीवंत अभिन्नता भी है।
अधिकांश गायकों, गीतकारों, कलाकारों, अभिनेताओं, कॉमेडियनों का खेत, खेती और पिंड यानी गांव से किसी न किसी रूप में नाता रहा है। पंजाबी गायक और अभिनेता दिलजीत दोसांझ ने आंदोलन का मजाक उड़ाने, फेक न्यूज फैलाने और आंदोलन को बुरा-भला कहने वालों को न सिर्फ ट्विटर आदि सोशल मीडिया पर आड़े हाथ लिया, बल्कि आंदोलित किसानों के बीच भी पहुंचे।
मशहूर गायक हरभजन मान और मीका सिंह भी सोशल मीडिया पर किसानों के पक्ष में सक्रिय देखे गए हैं। गायक हरभजन मान ने पंजाब सरकार का सम्मान लौटा दिया। इस बीच प्रसिद्ध पंजाबी कवि सुरजीत पातर ने भी पद्मश्री सम्मान लौटाने की घोषणा की है। पंजाबी संगीतकार सिद्धु मूसवाला, बब्बु मान, जस बाजवा, हिम्मत संधु, आर नैत, अनमोल गगन आंदोलन के आधार पर गीतों को संगीतबद्ध कर रहे हैं।
ऐन आंदोलन के बीच से निकल रहे हैं गीत
कुछ कलाकार तो किसानों के साथ सड़क पर डट गए हैं। किसान परिवार के कंवर ग्रेवाल एक युवा गायक हैं और उनका गीत "फसलां दे फैसले किसान करांगा” हिट हो चुका है। द वायर वेबसाइट से उन्होंने कहा कि "पंजाब का कलाकार कहीं भी चला जाए अपनी जड़ों को कभी भूल ही नहीं सकता क्योंकि उसकी कला उसी मिट्टी से निकली है।”
बीर सिंह भी युवा गायक हैं और उनके गाने खूब धमाल मचा रहे हैं। आंदोलन पर उनका गाना है - "मिट्टी दे पुत्तरों।” इन जोशीले गायकों में हर्फ चीमा, जैजी बी, रंजीत बावा जैसे गायकों का नाम भी है और निकी निक जैसे एक्टिविस्ट गायकों का भी। और आज के ये गायक अपने पूर्वज कवियों और शायरों और सूफी संतों की पंक्तियां भी याद कर रहे हैं। पंजाब के योद्धाओं का इतिहास भी आंदोलन में जोश की एक नई फिजा बना रहा है।
कलाकारों का मानना है कि पिछले तीन चार महीनों में पंजाब का 90 प्रतिशत संगीत किसानों और उनके संघर्ष पर केंद्रित है। पंजाब के समाज में एक खास बात आत्मसम्मान को लेकर बहुत अधिक संवेदनशीलता का होना है। कृषि कानूनों के विरोध के बीच आंदोलनकारियों को खालिस्तानी, देशद्रोही, भ्रमित आदि के आरोपों ने पंजाबी कलाकारों और बुद्धिजीवियों को व्यथित और विचलित किया है।
जानेमाने गायक जसबीर जस्सी के मीडिया में प्रकाशित एक बयान में इस आंदोलन की संघर्षचेतना को समझा जा सकता है - "आज पंजाब को पंजाब की तरह देखा जा रहा है। न कोई हिंदू न मुस्लिम न सिख न गरीब न अमीर। सब लोग साथ आए हैं।”
वकील, खिलाड़ी, लेखक भी पीछे नहीं रहे
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में दोनों राज्यों के अधिवक्ताओं ने तो सॉलिडेरिटी विद फार्मर्स (किसानों के साथ एकजुटता) के बैनर तले चंडीगढ़ में प्रदर्शन किया और आंदोलनकारियों के मुकदमे मुफ्त में लड़ने का ऐलान भी किया। किसानों के प्रति अपनी सद्भावना जताते हुए खिलाड़ियों ने भी अपने अर्जुन अवॉर्ड, पद्म सम्मान लौटाने का ऐलान किया है।
हॉकी के पूर्व ओलंपिक खिलाड़ी और अर्जुन अवॉर्ड विजेता सज्जन सिंह चीमा, पद्मश्री से सम्मानित और कुश्ती के पूर्व चैंपियन करतार सिंह, हॉकी के पूर्व खिलाड़ी गुरमैल सिंह, अपने दौर में गोल्डन गर्ल कहलाने वाली भारतीय महिला हॉकी टीम की पूर्व कप्तान राजबीर कौर ने प्रेस कांफ्रेंस की।
अन्य पूर्व खिलाड़ियों में पूर्व राष्ट्रीय बॉक्सिंग कोच गुरबख्श सिंह संधु हैं जिनके कार्यकाल में भारत ने अपना पहला ओलंपिक मेडल जीता था। पद्मश्री मुक्केबाज कौर सिंह और अर्जुन अवॉर्ड विजेता बॉक्सर जयपाल सिंह, कबड्डी खिलाड़ी हरदीप सिंह और भारोत्तोलन के तारा सिंह ने भी अपने सम्मान लौटाने का ऐलान किया है। पेशेवर मुक्केबाज विजेंदर सिंह ने अपना खेल रत्न अवॉर्ड लौटाने की चेतावनी दी है।
खबरों के मुताबिक पंजाब के जानेमाने कवि मोहनजीत, कहानीकार जसविंदर सिंह और नाटककार स्वराजबीर सिंह ने अपने साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटा दिए हैं। हालांकि कई पंजाबी साहित्यकार 2015 में अपने अवॉर्ड लौटा चुके हैं जब देश भर में कलबुर्गी, पानसरे और गौरी लंकेश जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था।
विडंबना को दूर करे की लड़ाई
इस आंदोलन से यह भी पता चलता है कि कश्मीर की सुहावनी वादियों की स्टीरियोटाइपिंग की तरह ही जिस तरह मुख्यधारा के हिंदी या भाषाई सिनेमा में या पॉप म्यूजिक में पंजाब की स्टीरियोटाइपिंग की जाती है- नाच गाना, मस्ती, हरियाली, लहलहाती फसल आदि लेकिन हरीतिमा के इस मोहक और आकर्षक आवरण के पीछे किसान का अटूट श्रम और खून पसीना भी है- ये बहुत कम दिखाया जाता है।
बेरोजगारी, जातिगत भेदभाव, ड्रग्स की लत जैसी समस्याओं के साथ साथ एक विलासी, उन्मुक्त, नशाखोर, स्वच्छंद और सितारा संस्कृति के नवनिर्मित संकटों से उपजी अपनी अंतर्निहित विडंबनाओं और आरोपों से जूझते आ रहे पंजाब को उसके गांवों ने एक नई हौसलाकुन रोशनी दिखाई है। किसान एक गहरी समझदारी के साथ उन समस्याओं की ओर इंगित कर रहे हैं जो अंततः उनकी अपनी नहीं, इस देश और नई पीढ़ी के लिए विकराल बन सकती हैं। यह एक तरह की याददिहानी है जो आंदोलन के प्रखर गीतों में ही नहीं, उनके जरिए इतिहास में भी दर्ज हो रही है।