बतौर प्रधानमंत्री 5वीं बार नेपाल जा रहे नरेंद्र मोदी ने कई बार पड़ोसी देश से रिश्ते मजबूत करने के लिए कदम बढ़ाए लेकिन किसी न किसी कारण बात बिगड़ती रही। गौतम बुद्ध की जन्मस्थली से एक बार फिर रिश्तों को सुधारने की कोशिश है।
8 साल पहले जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तो मोदी ने नेपाल को खासी वरीयता दी। अपनी नेबरहुड फर्स्ट नीति के चलते नेपाल, भूटान और दक्षिण एशिया के तमाम देशों के साथ संबंधों में और सुधार लाने की कोशिश भी मोदी सरकार की ओर से की गई।
हालांकि दोनों तरफ से कोशिशों के बावजूद दोनों देशों की घरेलू राजनीति और विदेशनीति में तेजी से उतरते- चढ़ते मुद्दों की वजह से परिस्थितियां ऐसी बनीं कि नेपाल और भारत के बीच भाईचारे की बजाय रस्साकशी की नौबत आ गई।
बहरहाल, दोनों देश उन बीती बातों को भुलाने की कोशिश में लगे हैं। 3 साल बाद 16 मई को मोदी बतौर प्रधानमंत्री अपनी 5वीं बार नेपाल जा रहे हैं, लेकिन 2019 के बाद यह पहली यात्रा है। दोनों देशों के बीच हाल के वर्षों में कुछ कड़वाहट आ गई थी लेकिन अब रिश्ते वापस पटरी पर आ रहे हैं।
धार्मिक कूटनीति से सुधरेंगे संबंध?
मोदी की नेपाल यात्रा का एक बड़ा मकसद यही है कि रिश्तों में गर्माहट को वापस लाया जाए और साथ ही नेपाल को इस बात का विश्वास दिलाया जाए कि वह भारत का जरूरी दोस्त और महत्वपूर्ण पड़ोसी है।
यह महज इत्तेफाक नहीं है कि मोदी की नेपाल यात्रा बुद्ध पूर्णिमा के दौरान हो रही है। 16 मई को बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही यह दोनों नेता लुम्बिनी में होंगे जिसे तथागत गौतम बुद्ध की जन्मस्थली के तौर पर जाना जाता है। सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी नेपाली प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा से लुम्बिनी में मुलाकात करेंगे।
भगवान बुद्ध की मां मायादेवी के दर्शन के बाद मोदी बुद्ध स्मारक बैठक में शिरकत करेंगे और एक बौद्ध विहार की आधारशिला रखेंगे। साथ ही अपनी यात्रा के दौरान मोदी तराई नेपाल में भैरहवा स्थित गौतम बुद्ध अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का उदघाटन भी करेंगे। याद रहे कि कुछ ही समय पहले मोदी ने कुशीनगर हवाई अड्डे का भी उद्घाटन किया था, जो गौतम बुद्ध का परिनिर्वाण स्थल है।
गौतम बुद्ध अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की तैयारी के बीच कोविड की वजह से थाईलैंड, कोरिया और अमेरिका जैसे देश नेपाल की मदद करने से कतरा रहे थे, तब भारत ही था जिसने नेपाल की गुहार सुनते ही मदद के लिए आगे आने की घोषणा की हालांकि कोविड के खत्म होने तक थाईलैंड, जिसे हवाई अड्डे का कांट्रेक्ट मिला था, वह भी वापस सहयोग को राजी हो गया।
बहरहाल, लुम्बिनी में बैठक करने के पीछे एक बड़ा मकसद है संपर्क और धार्मिक कूटनीति को आगे बढ़ाना। कनेक्टिविटी हमेशा से ही मोदी की 'नेबरहुड फर्स्ट' की नीति का प्रमुख हिस्सा रहा है।
चीन-नेपाल संबंधों का भी है असर
हाल के वर्षों में नेपाल के साथ संबंधों में कड़वाहट आने की एक बड़ी वजह चीन और नेपाल के संबंधों में सुधार रहा था। कहीं-न-कहीं नेपाल की निवेश संबंधी जरूरतों और नेपाल-भारत के संबंधों में तल्खियों का फायदा भी चीन ने उठाने की कोशिश की। केपी शर्मा ओली के 2017 में सत्ता में आने के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में काफी तनाव आया। ओली के भारतविरोधी बयान भारत सरकार को रास नहीं आए और बात बढ़ती ही चली गई।
उधर चीन की लिमी घाटी में सीमा अतिक्रमण की गतिविधियों और नेपाल की राजनीति में सीधे दखल की कोशिशें नेपाल के राजनीतिज्ञों को रास नहीं आईं। 13 जुलाई 2021 को शेरबहादुर देउबा के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस की वापसी के बाद ही इन संबंधों में सुधार की उम्मीद जगी। इसके चलते एक फिर नेपाल ने भारत की ओर रुख किया है। भारत ने भी इन बदलते हालातों को बारीकी से समझने की कोशिश की है।
यह महज एक इत्तेफाक नहीं है कि नेपाल में भारत के राजदूत रहे विनय मोहन क्वात्रा को भारत का विदेश सचिव बनाया गया है और उनकी जगह विदेश मंत्रालय में पूर्वी एशिया और चीन मामलों के प्रमुख अधिकारी नवीन श्रीवास्तव को नेपाल में राजदूत की जिम्मेदारी दी गई है। श्रीवास्तव अपर सचिव के पद पर काम कर रहे थे।
हालांकि ओली कार्यकाल में चीन के बढे दखल का खामियाजा नेपाल को अभी कुछ दिन भोगना पड़ेगा। बात सिर्फ भारत और चीन की प्रतिद्वंद्विता की नहीं है। अब इस खेल में अमेरिका भी कूद पड़ा है। हाल ही में 27 फरवरी 2022 को नेपाल ने मिलेनियम कॉम्पैक्ट कॉर्पोरेशन समझौते पर हस्ताक्षर किए।
5 साल की मियाद वाले इस समझौते के तहत अमेरिका विकासशील देशों को आर्थिक विकास के जरिए गरीबी के जाल से निकलने में मदद करता है। इस सहयोग के तहत अमेरिका नेपाल को 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर का अनुदान देगा।
चीन को यह बात रास नहीं आई और इस कदर नागवार गुजरी कि चीनी विदेश मंत्री वांग यी नेपाल यात्रा पर निकल पड़े। नेपाली मीडिया के अनुसार वांग यी ने चेतावनी दी कि नेपाल को अमेरिकी अनुदान न लेकर चीन की बेल्ट और रोड परियोजना के तहत कुछ और अनुदान लेने चाहिए। हालांकि देउबा सरकार ने यह कहकर बात को टाल दिया कि उन्हें फिलहाल वाणिज्यिक कर्ज लेने की कोई जरूरत नहीं है।
इन तमाम मुद्दों के मद्देनजर यह साफ होता है कि नेपाल की देउबा सरकार एक बार फिर भारत से संबंध सुधार की कोशिश में है। मोदी सरकार भी इस दिशा में संजीदगी से जुड़ी लग रही है। पिछली बार के मुकाबले इस बार संपर्क, धार्मिक कूटनीति और साझा विरासत पर जोर है, जो कहीं-न-कहीं इस ओर इशारा करता है कि अगर नेपाल-भारत संबंधों में सुधार करना है तो इसे वापस आम नागरिकों के मुद्दों और जरूरतों से जोड़ना होगा। शायद मोदी की लुम्बिनी यात्रा ये काम कर जाए।
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)