मैं कई सदियों तक जीती रही तुम्हारे विचारों का घूँघट अपने सिर पर ओढ़े, मैं कई सदियों तक पहने रही तुम्हारी परम्पराओं का परिधान। कई सदियों तक सुनती रही तुम्हारे आदेशों को, दोहराती रही तुम्हारे कहे शब्द, कोशिश करती रही तुम जैसा बनने की।
तुम्हारे शहर में निकले चाँद को पूजती रही चन्द्र देवता के रूप में बच्चों को सिखाती रही चँदा मामा कहना।
हर रस्म, हर रिवाज को पीठ पर लादे, मैं चलती रही कई मीलों तक तुम्हारे साथ...।
मगर मैं हार गई....
......मैं हार गई, मैं रोक नहीं सकी तुम्हारे विचारों को सिर से उड़ते हुए और मैं निर्लज्ज कहलाती रही, मैंने उतार दिया तुम्हारी परम्पराओं का परिधान, और मैं निर्वस्त्र कहलाती रही, मैं मूक-बधिर-सी गुमसुम-सी खड़ी रही कोने में, तुम देखते रहे मुझको सबसे जुदा होते हुए।
मैं नहीं बन सकी तुम्हारे शहर की एक सच्ची नागरिक, तुम्हारे चन्द्र देवता की चाँदनी मुझको रातों बहकाती रही, मैं चुप रही, खामोश, घबराई-सी, बौखलाई-सी, निर्विचार, संवेदनहीन होकर।
आज मैंने उतारकर रख दिए वो सारे बोझ जिसे तुमने कर्तव्य बोलकर डाले थे मेरी पीठ पर मैं जीती रही बागी बनकर, तुम देखते रहे खामोश।
और अब जब मैं पहनना चाहती हूँ आधुनिकता का परिधान, तुम्हारे ही शहर में नए विचारों की चुनरिया जब लपेटती हूँ देह पर, तुम्हें नज़र आती है उसकी पारदर्शिता।
जब मैं कहती हूँ धीरे से घबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा, चाँद को छूने की हसरत में जब मैं कोशिश करती हूँ नई परम्पराओं के पर लगाने की, समय का हाथ थामे मैं जब चलना चाहती हूँ उसके साथ, तो मैं देख रही हूँ तुम्हारे चेहरे पर उभरा एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता हुआ.....क्यों?