आकर्षण की सीमा के परे जब मैं तुम्हें सोचती हूँ तो तुम मुझे दिखाई देते हो मेरी रात के चन्द्रमा की तरह जो मेरे अंतःसागर में हो रहे ज्वार-भाटे को नियंत्रित किये हुए भी तटस्थ रहता है अपने आसमां में,
विचारों की सीमा से परे जब मैं तुम्हें सोचती हूँ तो तुम मुझे दिखाई देते हो उस दरख़्त की तरह मेरे मन की गिलहरी जिस पर अटखेलियाँ करने चढ़ जाती है कभी फल तोड लेती है तो कभी पत्तियों के झुरमुट से निकलकर चली जाती है सड़क के उस पार
स्वप्न की सीमा से परे जब मैं तुम्हें सोचती हूँ तो तुम मुझे दिखाई देते हो नभ में उमड़ आए बादलों की तरह मेरे यथार्थ की तपती भूमि पर कुछ भीनी फुहारें बरसाकर मेरी माटी को सौन्धी कर देते हो
यथार्थ की सीमा से परे जब मैं तुम्हें सोचती हूँ तो दूर नहीं रह पाती हूँ आकर्षण से, विचारों से, सपनों से बहुत कुछ करीब होता है, तुम्हारे सिवा...............