एग्जिट पोल की साख पर सवाल उठना लाजमी है। क्योंकि यह कहा जा रहा है कि यह कई बार उलट भी होते हैं। इस संबंध में 2004 के चुनाव को सामने रखा जाता है। उस समय एग्जिट पोल यह बता रहा था कि अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनेगी। लेकिन तब एनडीए सरकार का बहुप्रचारित 'इंडिया शाइनिंग' अभियान और 'फील गुड फैक्टर' धराशायी हो गया था और त्रिशंकु लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी कांग्रेस ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनाई थी। तब भी विपक्ष एकजुट नहीं था और आज भी।
जानकार लोग कहे रहे हैं कि इस बार भी ऐसा ही होगा क्योंकि नरेंद्र मोदी ने तीन गलतियां की है। पहली जीएसटी और दूसरी नोटबंदी लेकिन तीसरी गलती एट्रोसिटी एक्ट की भरपाई तो 10 प्रतिशत आरक्षण देकर कर दी है। फिर भी यह माना जा रहा है कि उससे आज भी एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जो मोदी सरकार से नाराज होकर कांग्रेस के पाले में चला गया है। खासकर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसी वहज से कांग्रेस का वोट प्रतिशत बढ़ा है।
मूल मुद्दा एग्जिट पोल है कि क्या यह इस बार सटीक या अनुमान के आसपास बैठेगा?
दरअसल, एग्जिट पोल वोट देकर बाहर निकलने वाले लोगों की राय पर आधारित होता है। मानलो एक बूध पर 2000 हजार मतदाता हैं। वहां पर वह रैडमली मतदाताओं से पूछते हैं कि आपने किसको वोट दिया। पोल एजेंसियां सभी राज्यों के कुछ खास बूध को कवर करती है और वहां से वह रैडमली राय कलेक्ट कर के एक सैपल परिणाम बनाती है, लेकिन साइलेंट वोटर (प्रतिक्रिया न देने वाले खामोश मतदाता) जाहिर है इस सैंपलिग से बाहर होते हैं। ये एजेंसियां लाखों लोगों की राय के आधार पर नतीजे निकाल कर चुनाव के अंतिम चरण के बाद डाटा इकट्ठा कर उसका विश्लेषण कर यह बताती है कि इस बार किसकी सरकार बनेगी।
अब इन एजेंसियों में से कुछ के अनुमान गलत साबित होते हैं और कुछ के सही। जिसके अनुमान गलत साबित होते हैं पक्ष या विपक्ष उन्हें सबूत के आधार पर सामने रखकर यह कहता है कि एग्जिट पोल गलत होते हैं। लेकिन यह कहना की सभी एग्जिट पोल गलत हैं यह सही नहीं होगा। सभी एग्जिट पोल को मिलाकर एक औसत तो निकाला ही जा सकता है। दरअसल, एक एजेंसी यदि 5 लाख लोगों की राय पर आधारित परिणाम बताती है तो दूसरी भी लाखों लोगों से मिलकर यह बता रही है। ऐसे में कुल 10 एजेंसियों के डाटा को मिलकर कम से कम 50 लाख लोगों की राय तो इकट्ठा हो ही जाती है। इन पचास लाख लोगों में शहरी और ग्रामिण सही सभी जातियों के मतदाता होते हैं। यह राय भी बहुत मायने रखती है।
तीन बड़े हिंदीभाषी राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार हुई थी। कहा यह जा रहा था कि यह एन्टीनकंबेंसी है। कुछ इसे एट्रोसिटी एक्ट का परिणाम मानते हैं, लेकिन यह भी देखना जरूरी है कि आखिर भाजपा की हार कितने कम मार्जिन से हुई है। मतलब यह कि मुकाबला कांटे का था। यदि एन्टीनकंबेंसी होती तो मुकाबला कांटे का नहीं होता। दूसरा यह कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में फर्क होता है और यह बात अब यह लोग अच्छे से समझने लगे हैं।
आपको ध्यान होगा कि राजस्थान को लेकर तब यह लग रहा था कि बीजेपी बुरी तरह हारेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और कांग्रेस को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिला। दरअसल, वहां नाराजगी बीजेपी से न होकर वसुन्धरा से ज्यादा थी। तब नारे भी लगे थे 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नही।' अब आप सोचिए कि राजस्थान के लोकसभा चुनाव में क्या हुआ होगा। इसका मतलब यह कि इस बार लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा ज्यादा कुछ खोने नहीं जा रही है।
अब बात करते हैं उत्तर प्रदेश की। सभी लोग यह मान रहे हैं कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कारण उत्तरप्रदेश में भाजपा को करारा झटका लगने वाला है। लेकिन थोड़ा और सोचने की जरूरत है। करारा तो नहीं लेकिन झटका जरूर लगने वाला है क्योंकि मायावती सीटों के मामले में उत्तरप्रदेश में लगभग जीरो से ही कुछ ज्यादा है। ऐसे में बसपा का वोटर निश्चित ही सपा को वोट करेगा, लेकिन सपा का वोटर बसपा के उम्मीदवार को वोट करेगा कि नहीं करेगा, यह संशयपूर्ण है, क्योंकि यादव लोग बहुत सोचते हैं और उनमें इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि अखिलेश और उनका समूचा कुनबा मायावती के चरणों में गिर गया है। यह बात सपा के अधिकतर कार्यकताओं और मतदाताओं को हजम नहीं हो रही है।
दूसरी बात यह कि उत्तरप्रदेश की 30 सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय है। मतलब यह कि वहां बीजेपी, कांग्रेस और सपा-बसपा गठबंधन लड़ रहा है। ऐसे में इन 30 सीटों में से अधिकर सीटें तो भाजपा को ही मिलने वाली है क्योंकि यहां कांग्रेस महागठबंधन के वोट जरूर काटेगी। दूसरी बात यह कि उत्तरप्रदेश में मोदी और योगी का जादू कम नहीं हुआ है यह जानना भी जरूरी है।
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 282 सीटें मिली थी। जानकारों और एग्जिट पोल के अनुसार उत्तरप्रदेश में भाजपा को 35 से 40 सीटों का नुकसान हो रहा है और तो संपूर्ण भारत में 10 से 15 सीटों का। मतलब यह कि 55 सीटों पर भाजपा हार सकती है। मतलब यह कि भाजपा को 227 से 235 सीटें मिलेगी ही। अब बचे पश्चिम बंगाल और ओडिशा। दोनों ही राज्यों से औसतन 25 सीटों के आने का अनुमान लगाया जा रहा है। ऐसे में 260 सीटें भाजपा के खाते में कंफर्म मान लें। अब बचे भाजपा के सहयोगी दल। आप जोड़ सकते हैं कि क्या सभी सहयोगी दल मिलकर भी 40 सीटें लेकर नहीं आएंगे?
यह सही है कि मुस्लिम बीजेपी को वोट कम देते हैं लेकिन यह मिथक है कि सभी हिन्दू दलित या आदिवासी बसपा, सपा या कांग्रेस के साथ हैं। आज भी SC/ST के सबसे ज्यादा संसद बीजेपी के ही हैं और मोदी सरकार ने जितनी भी कल्याणकारी स्कीम लागू की उनका लाभ दलितों को सबसे ज्यादा मिला है।
इन्ही तथ्यों को देखते हैं हुए भाजपा के लोग कह रहे हैं कि अबकी बार 300 पार। हालांकि यह तो 23 मई को ही पता चलेगा कि एग्जिट पोल सही हैं या गलत।