महाभारत, महागठबंधन और नरेंद्र मोदी, क्या होगी भारत की दशा और दिशा?

अनिरुद्ध जोशी
जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ तो यह स्पष्ट कर दिया गया था कि कौन किसकी तरफ होगा। या तो युद्ध लड़ना है या नहीं लड़ना है। लड़ना है तो या तो कौरवों की तरफ रहना है या पांडवों की तरफ। तीसरे विकल्प का कोई अस्तित्व नहीं था। इस युद्ध में कई ऐसे लोग थे जिन्होंने दल बदले और कई ऐसे भी थे, जो अपनों के होकर भी अपनों के खिलाफ, अपनों के साथ रहकर ही विश्‍वासघात कर गए। जो लोग तटस्थ थे उनका नाम इतिहास में नहीं रहा। ऐसे लोग कभी इतिहास रच भी नहीं पाते हैं।
 
 
भारत की आजादी के वर्षों बाद इस बार ऐसा चुनाव आया है जिसे महाभारत के युद्ध से कम नहीं माना जा रहा है। इससे पहले 2014 का लोकसभा चुनाव भी ऐसा ही हुआ था जबकि नारा दिया गया था- 'अबकी बार, मोदी सरकार। इन सभी से पहले जेपी के समय पर भी एक चुनाव ऐसा भी हुआ था जबकि राष्ट्रकवि दिनकर की कविता की पंक्ति नारा बन गई थी- 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'। इस बार के चुनाव में भी कई तरह के नारे हैं- 'मैं हूं चौकीदार, मोदी है तो मुमकिन है।'
 
 
वर्तमान का चुनाव दो मायने में महत्वपूर्ण हैं- पहला यह कि पहली बार यह एक स्पष्ट विचारधारा की लड़ाई है। दूसरा यह कि यह चुनाव ही तय करेगा कि भारत का भविष्य क्या होगा? जनता ने मोदी से पहले का 10 साल का कांग्रेस का शासन देखा है। वह कैसा था, यह भी जानते हैं और उन्होंने नरेन्द्र मोदी का 5 साल का शासन भी देखा है। अब जनता को तय करना है कि वह 10 साल वाला शासन सही था या कि नरेन्द्र मोदी वाला 5 साल का शासन सही है?
 
 
हालांकि यह पहली बार हुआ है कि भारत में स्पष्ट रूप से राजनीति में दो धाराएं निर्मित हो गई हैं। दूसरी धारा में कई तरह की धाराएं इसलिए मिल गईं, क्योंकि उन्हें एक ऐसी विचारधारा से लड़ना है, जो कि उनकी दृष्टि में तानाशाही और सांप्रदायिक है।
 

आजादी के बाद से ही वाम एवं धर्मनिरपेक्ष दलों का उनकी विपरीत विचारधारा के लोगों को दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और कट्टर हिन्दुत्ववादी विचारधारा का मानकर, प्रचारित कर उन्हें सत्ता से दूर रखने का भरसक प्रयास चलता रहा। अंतत: उस विचारधारा ने पहले अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सेमीफाइनल और फिर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में फाइनल खेलकर पूर्ण बहुमत से सत्ता के सिंहासन पर कब्जा कर लिया।
 
 
नरेन्द्र मोदी, जो कि विपक्ष की नजरों में सबसे ज्यादा अस्वीकार व्यक्ति थे, का सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हो जाना और वह भी पूर्ण बहुमत से, यह सचमुच ही एक घोर आश्चर्य वाली बात थी। उस वक्त भारतीय जनता पार्टी और एन‍डीए के भीतर भी नरेन्द्र मोदी को लेकर कोई एकराय नहीं थी।
 
 
मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाए जाने के चलते एनडीए से सबसे पहले नी‍तीश कुमार ने खिलाफत की और वे एनडीए से दूर चले गए। फिर भी तमाम रुकावटों को पार कर एक ऐसा व्यक्ति सत्ता के शीर्ष पर बैठ गया जिसे की दक्षिणपंथ का सबसे मुखर चेहरा माना जाता था। यह भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत थी। ...इसके बाद शुरू हुई एक नई महाभारत।
 
 
यह वह दौर था, जब अन्ना हजारे का जेपी की तरह रामलीला मैदान में आंदोलन चल रहा था। इस आंदोलन ने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं को जन्म दिया। ठीक उसी तरह जिस तरह कि जेपी के आंदोलन से जनता दल व समाजवादी पार्टी का जन्म हुआ था। तब मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, मुलायम, वीपी सिंह, देवेगौड़ा, चंद्रशेखर, लालू यादव, नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेताओं का जन्म हुआ था।
 
 
लेकिन सत्ता का नशा क्रांति पर काबिज हो गया जिसकी वजह से समाजवादी कुनबा धीरे-धीरे जातीय गोलबंदी की सियासत और वंशवादी गुटों में तब्दील होता चला गया और अंत में बिखरकर कई पार्टियों में बदल गया। यही हाल आम आदमी पार्टी के साथ भी हुआ। क्रांति का नशा राजनीति में बदल गया और मूल उद्देश्य एवं राष्ट्रवादी बातें ताक में रख दी गईं।
 
 
हालांकि इन सभी से दूर एक पार्टी ऐसी थी जिसका जन्म किसी आंदोलन नहीं बल्कि विचारधारा के बल पर हुआ था और वह पार्टी थी जनसंघ, जिसका बाद में नाम भारतीय जनता पार्टी पड़ा। ऐसा कहते हैं कि समाजवादी कुनबा तो कहने का ही समाजवादी रहा। लोहिया और जेपी के आदर्शों को छोड़कर यह कुनबा सत्ता की राह पर चला पड़ा।
 
 
लेकिन नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही सभी को अपनी अपनी विचारधाराएं याद आने लगीं। मोदी के सत्ता में आने के बाद विचारधाराएं स्पष्ट ही नहीं होने लगीं बल्कि समूचा विपक्ष एकजुट होते हुए पहली बार नजर आया। जिस तरह लड़ाई के पूर्व तोड़फोड़, रणनीति, षड्यंत्र और दुष्प्रचार चलते हैं, ठीक उसी तरह की हलचलें तेज हो गईं। बयानवीरों के बयान और फर्जी वीडियो, ऑडियो के दम पर जनता को भरमाया जाने लगा।
 
 
इसके अलावा महाभारत की तरह ही युद्ध शुरू होने के पहले ही दल बदले जाने लगे। अपने ही दल में रहकर विश्‍वासघात किया जाने लगा। विभीषण, शल्य, युयुत्स और कई लोग तो जयचंद की भूमिका में भी उभरकर सामने आ गए। जो छुपे हुए थे, वे फिर अब खुलकर सामने आने लगे और मुखर होकर समर्थन या विरोध करने लगे हैं। यह अच्छा भी है कि रण से पहले यह स्पष्ट हो ही जाना चाहिए कि कौन किधर है? सचमुच ही यह दौर ऐसा ही है जबकि महागठबंधन बनने लगा है, लेकिन यह महागठबंधन भी उसी तरह का है, जैसा कि कौरव या पांडवों का अलग-अलग महागठबंधन था।
 
 
नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी का भी गठबंधन है लेकिन विपक्ष के गठबंधन को इस मायने में बहुत ही आश्चर्य में डालने वाला माना जाएगा, क्योंकि उसमें कई कट्टर दुश्मन भी अब नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए एक हो गए हैं। हमने तीसरे मोर्चों वाला काल भी देखा है, जो कि कुछ लोगों की नजर में देश के इतिहास का सबसे बुरा काल माना जाता है। देश को तीसरे मोर्चे या तटस्थ लोगों की जरूरत नहीं है। देश को जरूरत है स्पष्ट विचारधारा और पूर्ण बहुमत से बैठी सरकार की। ऐसी ही सरकार निर्णय लेने की क्षमता रखती है।
 
 
हालांकि महाभारत के संदर्भ में देखें तो कई दल और नेताओं ने गठबंधन और दल बदले हैं। एक ओर नीतीश कुमार पुन: एनडीए में लौट आए जिसके चलते समूचे विपक्ष में हड़कंप मच गया और नवजोत सिंह सिद्धू ने भाजपा का दामन छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया।
 
 
इस बार के लोकसभा चुनाव भी 2014 के लोकसभा चुनाव से कम नहीं हैं। कहना चाहिए कि यही असली महाभारत का चुनाव है। महागठबंधन के 22-23 दलों में लगभग 100 प्रमुख नेता हैं, जो कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एकजुट हुए हैं। ऐसे भी नेता हैं जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के साथ रहकर ही उनकी ही आलोचना की है। ऐसे भी कई नेता हैं, जो कांग्रेस में रहकर ही कांग्रेस का विरोध करते रहे हैं।
 
 
हालांकि महागठबंधन भी अजीब तरह का बना है, क्योंकि ये सभी दल भाजपा को रोकने के लिए निकले हैं लेकिन आपस में भी एक-दूसरे को रोकने में लगे हैं। जैसे कि महाभारत में शल्य तो पांडवों के मामा थे लेकिन उन्होंने कौरवों की ओर से लड़ाई-लड़ते हुए पांडवों को ही फायदा पहुंचाया था। इसी तरह महागठबंधन में शामिल ऐसे कई दल या नेता हैं, जो कि अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को ही फायदा पहुंचाएंगे। यह न समझें कि यहां महागठबंधन को कौरव दल माना जा रहा है। दरअसल, भाजपा और उसके गठबंधन में भी कमोबेश यही स्थिति है। उस दल में भी शल्य मौजूद हैं।
 
 
एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन बसपा और सपा जब एक हुए तो जनता ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक दलों के लिए आश्चर्य वाली बात थी। ममता बनर्जी, जो कभी भाजपा के साथ थीं, वे अब भाजपा की सबसे कट्टर दुश्मन मानी जाती हैं। अब यह भी अजीब है कि महागठबंधन में शामिल मायावती भाजपा के साथ ही कांग्रेस को भी रोकना चाहती हैं। कांग्रेस का सोचना है कि यदि हम मायावती या ममता की शरण में चले गए तो बचा-खुचा जनाधार भी बंगाल और यूपी से जाता रहेगा।
 
 
जैसे उधर लेफ्ट (वामपंथी) भी कांग्रेस से गठबंधन करके भाजपा के साथ ही उस तृणमूल कांग्रेस को भी रोकना चाहता है, जो कि भाजपा के विरुद्ध बने अनधिकृत महागठबंधन में शामिल है। दूसरी ओर कांग्रेस भाजपा के अलावा उस आम आदमी पार्टी को भी रोकना चाहती है, जो कि मोदी के खिलाफ महागठबंधन में शामिल हैं। यह बहुत ही अजीब और रोचक है कि एक बड़े महाभारत के भीतर ही छुपी कई छोटी-छोटी महाभारत भी हैं।
 
 
हालांकि रणनीतिकार कहते हैं कि नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिए हर राज्य में अलग-अलग रणनीति पर काम करना होगा इसीलिए महागठबंधन उत्तरप्रदेश में अलग है और बिहार में अलग। यदि उत्तरप्रदेश या बंगाल में कांग्रेस बढ़त लेती है तो महागठबंधन को ही नुकसान होगा। उसी तरह मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस मुख्‍य दल है इसीलिए वहां गठबंधन की राजनीति अलग है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सपा और बसपा ने कांग्रेस को समर्थन दे रखा है। महागठबंधन की सफलता इसी में है कि वे हर राज्य के लिए अलग रणनीति पर विचार करें।
 
 
दूसरी ओर कई पार्टियां ऐसी हैं, जो कि न कांग्रेस के साथ हैं और न बीजेपी के, जैसे नवीन पटनायक की बीजू जनता दल, चंद्रशेखर राव की टीआरएस आदि। यह उसी तरह है, जैसा कि महाभारत युद्ध में विदर्भ, शाल्व, चीन, लौहित्य, शोणित, नेपा, कोंकण, कर्नाटक, केरल, आंध्र, द्रविड़ आदि हिस्सा नहीं लेकर तटस्थ रहे।
 
 
यह भी रोचक है कि महाभारत के युद्ध में शल्य कौरवों की ओर से नहीं लड़ना चाहते थे लेकिन उन्होंने दुर्योधन को वचन दे दिया था इसलिए मजबूरी में वे शर्त के साथ लड़े थे। शर्त यह थी कि मैं शरीर से तुम्हारे साथ ही रहूंगा लेकिन मेरी वाणी स्वतंत्र है। वर्तमान में ऐसे कई नेता हैं, जो अपनी ही पार्टी के खिलाफ बोलकर पार्टी को हतोत्साहित करते रहते हैं। शल्य, कर्ण के रथी थे और वे पूरे समय अर्जुन की तारीफ करके कर्ण को हतोत्साहित करते रहते थे। ऐसे ही कुछ दल और नेता भी हैं।
 
 
युयुत्सु तो कौरवों की ओर से थे। वे कौरवों के भाई थे लेकिन उन्होंने चीरहरण के समय कौरवों का विरोध कर पांडवों का साथ दिया था। बाद में जब युद्ध हुआ तो वे ऐन युद्ध के समय युधिष्ठिर के समझाने पर पांडवों के दल में शामिल हो गए थे। इसी तरह ऐसे कई दल हैं, जो चुनाव के पहले एनडीए को छोड़कर महागठबंधन में चले गए, जैसे चंद्रबाबू नायडू। दूसरी ओर ऐसे भी कई दल हैं, जो यूपीए या महागठबंधन को छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए, जैसे दिवंगत जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके। नीतीश कुमार की पार्टी को भी इसमें शामिल किया जा सकता है।
 
 
हालांकि ऐसे भी कई लोग हैं जिन्होंने अपने ही पक्ष को नुकसान पहुंचाया और वे अंत में दल छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो गए। ऐेसे में एक प्रसिद्ध क्रिकेटर और एक अभिनेता का नाम लोग लेते हैं। इस तरह के बहुत से नेता हैं, जो यूपीए छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए। ऐसे भी कई दल हैं, जो कि चुनाव के बाद जो मजबूत होता या जो सरकार बनाने में सक्षम होता है, उसे अपना कुछ सौदेबाजी या शर्तों के साथ समर्थन दे देते हैं।
 
 
भारत में इस बार जो चुनाव हो रहे हैं, वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। यह विचारधारा की लड़ाई है। यह चुनाव तय करेगा कि क्या भारत बदलकर प्रगति के मार्ग पर आगे बढ़ेगा या कि वह गठबंधन की राजनीति में उलझकर फिर से राजनीति का शिकार हो जाएगा? अब देखना होगा कि इस चुनावी महाभारत में महागठबंधन और नरेन्द्र मोदी के बीच जो युद्ध चल रहा है, उनमें से कौन जीतता है? जो जीतेगा वही पांडव, पोरस या चंद्रगुप्त कहलाएगा। हालांकि जीत किसी की भी हो लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार भारत बदलेगा, जीतेगा और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ेगा!
 

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