हेलो दोस्तो! दुविधा व द्वंद्व शायद ही कभी किसी का पीछा छोड़ता है। जिसे देखो वही किसी न किसी द्वंद्व से मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहा है। जीवन का शायद ही कोई पक्ष है जहाँ द्वंद्व आकर खड़ा न हो जाता हो। कौन सा शिक्षण संस्थान ठीक रहेगा, कौन सा करिअर, खान-पान, पोशाक, इलाज आदि कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ बिना किसी द्वंद्व के मनुष्य निश्चिंत भाव से उसे अपना ले।
इतना ही नहीं, धर्म को लेकर भी अनेक प्रकार के द्वंद्व हैं। यदि आस्था है तो हमेशा यही द्वंद्व बना रहता है कि सचमुच भगवान है भी या नहीं। अगर है तो सुन भी रहा है या नहीं। यदि कोई नास्तिक है तो उसे किसी संयोग का सामना करते ही यह खयाल आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भगवान सचमुच है। द्वंद्व के ताने-बाने में एक गाँठ सुलझी नहीं कि दूसरी गाँठ कब बन जाती है इसका पता ही नहीं चलता।
पर सबसे ज्यादा दुविधा व द्वंद्व की स्थिति रिश्तों में रहती है। दोस्ती किसी से करें या नहीं। यदि करें तो कितनी गहरी। प्यार करें या नहीं। प्रेम है तो किस प्रकार का है। प्रेमी या प्रेमिका भी उतना ही प्रेम करता है या नहीं। प्रेम गहरा है तो शादी तो करें या नहीं। शादी यदि कर ली तो माँ-बाप के साथ रहें या नहीं।
रिश्तों के द्वंद्व के ऐसे ही मोड़ से गुजर रहे हैं सुशांत (बदला हुआ नाम)। सुशांत एक अन्य जाति की युवती नीला (बदला हुआ नाम) से प्रेम करते हैं। नीला भी सुशांत पर जान छिड़कती है। दोनों जीवन भर साथ रहना चाहते हैं यानी शादी करना चाहते हैं। पर, उनके घर वाले इस शादी के लिए राजी नहीं हैं। एक ओर गहरा प्रेम और दूसरी ओर माँ-बाप की नाराजगी का डर उन्हें बड़ी उलझन में डाल रखा है। उन्हें यह फैसला लेने में बहुत मुश्किल हो रही है कि प्रेम का साथ दें या माता-पिता को खुश करें।
सुशांत जी, भारतीय समाज से जात-पांत वाली बीमारी कब समाप्त होगी यह कहना कठिन है। गैर मजहब को अपनाना तो दूर की बात है यहाँ तो एक-एक जाति अपना-अपना अहाता लाँघने को किसी भी हालत में तैयार नहीं है। अन्य जाति में भी कोई सभ्य, नेक मनुष्य रहता होगा, यह मानने को वे तैयार नहीं होते हैं। उन्हें तो लगता है, बस उनके जाति का ही रीति-रिवाज, खानपान और संस्कार श्रेष्ठ है बाकी सबमें तो कुछ न कुछ कमी है। यही सोचकर वे अपने-आप में सिमटे रहते हैं।
हालाँकि, कई बार थोड़ी समझदारी से काम लिया जाए तो अंतर्जातीय विवाह अधिक सुकून भरा हो सकता है। सबसे पहले तो ऐसी शादियों में रिश्तेदारों की कड़ी नहीं बनी रहती है जिसके कारण दोनों परिवारों में कानाफूसी की अधिक गुंजाइश नहीं बनती है। दोनों एक-दूसरे के प्रति अति सजग रहते हैं जिससे आहत करने वाली बातें कम होती हैं और गलतफमियाँ नहीं पनपती हैं बशर्ते कि दोनों एक-दूसरे को धैर्य के साथ थोड़ा समय दें।
ND
सुशांत जी, इस मामले में आपको अपने दिल को टटोलने की जरूरत है। माँ-बाप से ज्यादा आपको यह तय करने की आवश्यकता है कि आप इस रिश्ते को कितना महत्व देते हैं। यदि आपको नीला पर आँखें मूँदकर विश्वास है तो आप माता-पिता को निरंतर समझाते हुए शादी की ओर कदम बढ़ा सकते हैं। इस मामले में अपने साथी के साथ अधिक से अधिक संवाद बनाने की जरूरत है। आने वाली कठिनाइयों पर भी खुलकर बात करनी चाहिए। ऐसी शादी परिवार द्वारा तय रिश्ते के मुकाबले, अधिक खुशी पाने की चाह में की जाती है। इसलिए छोटी-छोटी बातों पर विचार करना और चुनौतियों का किस प्रकार मिलकर सामना किया जाए, उसकी तैयारी अवश्य होनी चाहिए।
बेहतर तो यही है कि दोनों परिवारों की रजामंदी हो और आपका आपस में अटूट विश्वास। शुरुआती दौर बहुत ही नाजुक घड़ी होती है। साथ होने पर, एक-दूसरे की बहुत-सी आदतों और स्वभाव की जानकारी होती है। उनमें कई अचंभित व चिंतित करने वाली भी हो सकती हैं। जाने हुए व्यक्ति को एक नए रूप में जानना भी अतिरिक्त ऊर्जा खोजता है। वैसे में परिवार वालों का भी विरोध सहना पड़े तो जीवन में खुशी व सुख कहाँ काफूर हो जाता है, पता ही नहीं चलता है। इसीलिए एक-दूसरे के साथ अपनी तमाम कमियों और दिक्कतों को भी बाँटना चाहिए ताकि दोनों आने वाली तमाम परिस्थितियों से परिचित रहें।
यदि हर प्रकार के विरोध के बावजूद शादी का मन बनाएँ तो कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहें। एक-दूसरे को झूठे आश्वासन देने के बजाय आने वाली दिक्कतों को न केवल बड़े रूप में देखें बल्कि उसे एक हकीकत मानकर चलें। जब इतनी ज्यादा मानसिक तैयारी रहेगी तो शायद आने वाली हर मुश्किल छोटी लगेगी और जिंदगी सरलता से आगे बढ़ती जाएगी। पर, ये सारी तरकीबें और सबक तभी कारगर साबित हो सकते हैं जब एक-दूसरे से अथाह प्रेम व भरोसा हो।