हेलो दोस्तो! कई बार आपको कुछ बातें बेहद नागवार गुजरती हैं और आप अपने आप पर बिल्कुल काबू नहीं रख पाते हैं। आप तुरंत अपनी प्रतिक्रिया से उस नापसंदीदा हालात और बात का इजहार करना चाहते हैं। वह जवाबी हमला इस तरह तेजी से होता है कि आपकी सोचने-समझने की शक्ति जाती रहती है।
किस जुमले या शब्द के क्या मायने निकलेंगे, इसकी आपको सुध-बुध ही नहीं रहती है। आपके वाक्यों का सामने वाले पर क्या असर पड़ेगा, इसकी भी आपको फिक्र नहीं रहती है। उस समय बस आप किसी भी तरह अपने दिल का गुबार निकाल लेना चाहते हैं। उस समय आपको लगता है, बस यह आखिरी संवाद है। आगे उस व्यक्ति से कोई सामाजिक या निजी सरोकार नहीं रखना है।
यहां तक कि बेहद करीबी रिश्ते में भी आप, "यह किस्सा यहीं खत्म हुआ" की नौबत तक सोच लेते हैं पर हकीकत में ऐसा होता नहीं है। थोड़े समय बाद आप अपनी गर्ममिजाजी या भूल पर पछताने लगते हैं। सामने वाले की गलती छोटी लगने लगती है। भले ही गलती की शुरुआत उसने की हो लेकिन अब वह आपको बेचारा लगने लगता है। इधर, कसूरवार होते हुए भी सामनेवाला आपको दोषी व मुजरिम समझने लगता है।
आपको भी लगता है कि उसके दुख को कैसे कम किया जाए। आप सफाई देते हैं, अपनी नीयत की दुहाई देते हैं और भविष्य में ऐसा कुछ भी न करने की कसम खाते हैं। अंतिम बार माफ कर देने की याचना करते हैं। ऐसा इसलिए कि आप उस रिश्ते को खोना नहीं चाहते हैं पर बार-बार यही पुनरावृत्ति सामने वाले की सहनशक्ति समाप्त कर देती है और रूठने-मनाने का सारा मजा जाता रहता है।
कुछ ऐसी ही हालत से दो चार हो रहे हैं विवेक (बदला हुआ नाम)। अपनी दोस्त संध्या (बदला हुआ नाम) के उदासीनतापूर्ण या रूखे व्यवहार या फिर कभी अति तीखे संवाद के कारण वे बेहद तिलमिला जाते हैं। उसके बाद वे प्रतिक्रियास्वरूप क्या बोलते हैं, उन्हें खुद पता नहीं होता है। इस पूरे घमासान में हमेशा विवेक ही आरोपी करार दिए जाते हैं। गिड़गिड़ाने और क्षमायाचना मांगने के बावजूद संध्या हमेशा इस रिश्ते को समाप्त करने की धमकी देती है। उसका कहना है कि वह इतनी कू्र बातें नहीं सह सकती है। विवेक को भी यह महसूस होता है कि सारी ज्यादती उसी की है और वह अवसाद में चले जाते हैं।
विवेक जी, आप इसलिए इतने परेशान हो जाते हैं कि आप संध्या से अलग होने की कल्पना से डरते हैं। आप उसे हर हाल में अपना बनाए रखना चाहते हैं इसलिए उसे खोने के डर से अवसाद में चले जाते हैं। दूसरी बात यह कि आपके चीखने-चिल्लाने और बेजा बातों का भी आप पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि उसको दुखी देखकर आपको लगता है कि आप बुरे इंसान हैं। अपने आपको बुरा महसूस करना आपको दुखी करता है।
आप चिंतित हैं कि यही चलता रहा तो इस रिश्ते को बचाना भी मुश्किल हो जाएगा। यह सही है कि सामने वाले की गलती होते हुए भी जो साथी ज्यादा उग्र और कर्कश होता है वही हमेशा कठघरे में खड़ा होता है। रिश्ते की नजाकत यही होती है कि आप हर हाल में विवेक से काम लें। अपना विरोध भी तर्कसंगत ढंग से पेश करें। अंतरंगता होते हुए भी कुछ मर्यादा तो निभानी ही पड़ती है!
आप भी किसी के मन की बात शब्दों एवं व्यवहार से ही जानते हैं। पर जब गुस्सा आता है तो ये सारी समझ धरी रह जाती है। झगड़े के बाद बहुत सारा समय रिश्ते को एक बार फिर से सामान्य करने में लग जाता है। ऐसे रिश्ते आगे बढ़ने के बजाय घूम-फिर कर एक ही बिंदु पर अटके रहते हैं। इसमें नई और अच्छी यादें नहीं जुड़ पाती हैं जो रिश्ते को मजबूती से थाम सकें। यदि समय रहते इस प्रक्रिया को नहीं तोड़ा गया तो रिश्ता टूट ही जाता है।
ज्यादातर लोग ऐसे हालात में दूसरे साथी से बदलाव की गुजारिश करते हैं पर यह कामना कई बार कभी पूरी नहीं होती है। अगर रिश्ते को सचमुच बचाना है और खुश रहना है तो आपको खुद को बदलना पड़ेगा। ध्यान, समझ, नियंत्रण आदि के साथ अपना व्यवहार बदलना होगा। आपकी सचमुच की कोशिश निश्चित ही सामने वाले को भी सकारात्मक सोचने पर मजबूर करेगी।