भोपाल। 18 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाले मतदान को लेकर मध्यप्रदेश अब सियासी सरगर्मी तेज हो गई है। भाजपा नेतृत्व वाली NDA की राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मूर्मु विधायकों का समर्थन लेने 15 जुलाई को राजधानी भोपाल आ रही है। द्रौपदी मूर्मु भाजपा विधायक दल की बैठक में शामिल होगी। वहीं दूसरी ओर राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस समर्थित विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा 14 जुलाई को भोपाल आ रहे है और वह कांग्रेस विधायक दल की बैठक में शामिल होंगे। वहीं राष्ट्रपति चुनाव में मध्यप्रदेश में क्रॉस वोटिंग की आंशका भी जताई जाने लगी है।
राष्ट्रपति चुनाव में क्रॉस वोटिंग की आंशका-ऐसे में जब राष्ट्रपति चुनाव के दोनों उम्मीदवार भोपाल आ रहे है तो प्रदेश का सियासी पारा भी गर्मा गया है। राष्ट्रपति चुनाव के लिए भाजपा की ओर से चुनाव प्रभारी और संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा की सभी विधायकों को अंतर-आत्मा की आवाज पर मतदान करने की अपील के बाद अब राष्ट्रपति चुनाव में क्रॉस वोटिंग की अटकलों का बाजार गर्म हो गया है।
संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कहा कि राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू जनजातीय वर्ग से आती है। मध्यप्रदेश विधानसभा के सभी सदस्यों से आग्रह करूंगा कि वह अंतर-आत्मा की आवाज पर मतदान करें। महामाहिम राष्ट्रपति पद पर पहली जनजाति वर्ग की हमारी बहन जा रही है इसलिए सबको अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर मतदान करना चाहिए।
भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों को आदिवासी विधायकों को राष्ट्रपति चुनाव में अपने खेमे में लाने की जिम्मेदारी भी सौंपी जा चुकी है। सूत्र बताते हैं कि पार्टी ने विशेष तौर पर अपने वरिष्ठ आदिवासी नेताओं को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है। भाजपा द्रौपदी मूर्मु के चेहरे के सहारे आदिवासी वोटर में गहरी पैठ रखने वाले आदिवासी संगठन को भी अपनी ओर लाना चाह रही है और वह इस कोशिश में लगातार जुटी हुई भी है।
मध्यप्रदेश विधानसभा की 230 सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से कांग्रेस को 30 सीटों पर जीत हासिल हुई थी वहीं भाजपा केवल 16 सीटें जीत सकी थी। 2018 में आदिवासी वोटर की नाराजगी और जयस जैसे आदिवासी संगठन के कांग्रेस के साथ जाने का खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा था और वह सत्ता से बाहर हो गई। 2018 में की गई गलतियों से सबक लेते हुए भाजपा लगातार आदिवासी वोट बैंक को लुभाने की कोशिश में लगी हुई है। इसके साथ भाजपा आदिवासी संगठन और उसके नेताओं को भी रिझाने के लिए हर दांव चल रही है।
आदिवासी वोट बैंक को साधेगी द्रौपद्री मूर्मु?- दरअसल आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपद्री मूर्मु के राष्ट्रपति उम्मीदवार होना का पूरा लाभ मध्यप्रदेश भाजपा 2023 के विधानसभा चुनाव में उठाना चाह रही है। द्रौपदी मूर्मु के सहारे भाजपा खुद को आदिवासी समाज का सबसे बड़ा हितैषी बताने की कोशिश में जुटी है। ऐसा कर भाजपा 2018 विधानसभा चुनाव में छिटक गए आदिवासी वोट बैंक को फिर अपनी ओर लाने की कोशिश में है क्योंकि मध्यप्रदेश के 2023 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोटर सियासी दलों के लिए ट्रंप कार्ड साबित होने वाला है।
दरअसल मध्यप्रदेश की सियासत में आदिवासी वोटर विधानसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित होता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्यप्रदेश की आबादी का क़रीब 21.5 प्रतिशत एसटी, अनुसूचित जातियां (एससी) क़रीब 15.6 प्रतिशत हैं। इस लिहाज से राज्य में हर पांचवा व्यक्ति आदिवासी वर्ग का है। राज्य में विधानसभा की 230 सीटों में से 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। वहीं 90 से 100 सीटों पर आदिवासी वोट बैंक निर्णायक भूमिका निभाता है।
अगर मध्यप्रदेश में आदिवासी सीटों के चुनावी इतिहास को देखे तो पाते है कि 2003 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 41 सीटों में से बीजेपी ने 37 सीटों पर कब्जा जमाया था। चुनाव में कांग्रेस केवल 2 सीटों पर सिमट गई थी। वहीं गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 2 सीटें जीती थी।
इसके बाद 2008 के चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 47 हो गई। इस चुनाव में बीजेपी ने 29 सीटें जीती थी। जबकि कांग्रेस ने 17 सीटों पर जीत दर्ज की थी। वहीं 2013 के इलेक्शन में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से बीजेपी ने जीती 31 सीटें जीती थी। जबकि कांग्रेस के खाते में 15 सीटें आई थी।
वहीं पिछले विधानसभा चुनाव 2018 में आदिवासी सीटों के नतीजे काफी चौंकाने वाले रहे। आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से बीजेपी केवल 16 सीटें जीत सकी और कांग्रेस ने दोगुनी यानी 30 सीटें जीत ली। जबकि एक निर्दलीय के खाते में गई। ऐसे में देखा जाए तो जिस आदिवासी वोट बैंक के बल पर भाजपा ने 2003 के विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी की थी वह जब 2018 में उससे छिटका को भाजपा को पंद्रह साल बाद सत्ता से बाहर होना पड़ा था।