मदर्स डे : क्या आप अपनी मां की कसम खा सकते हैं.....

स्मृति आदित्य

मां, एक शब्द शहद की मिठास से भरा। मां, एक रिश्ता परिभाषाओं की परिधि से परे। मां, बेशुमार संघर्षों में अनायास खिल उठने वाली एक आत्मीय मुस्कान, एक शीतल एहसास। मां, न पहले किसी उपाधियों की मोहताज थीं, ना आज किसी कविता की मुखापेक्षी। 
 
निरंतर देकर भी जो खाली नहीं होती, कुछ ना लेकर भी जो सदैव दाता बनी रहती है उस मां को इस एक दिवस पर क्या कहें और कितना कहें। यह एक दिवस उसकी महत्ता को मंडित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। हो भी नहीं सकता। हमारे जीवन के एक-एक पल-अनुपल पर जिसका अधिकार है उसके लिए मात्र 365 दिन भी कम है फिर एक दिवस क्यों? 
 
लेकिन नहीं, यह दिवस मनाना जरूरी है। इसलिए कि यही इस जीवन का कठोर और कड़वा सच है कि मां इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा उपेक्षित और अकेली प्राणी है। कम से कम इस एक दिन तो उसे उतना समय दिया जाए जिसकी वह हकदार है। उसके अनगिनत उपकारों के बदले कुछ तो शब्द फूल झरे जाए. ..। 
 
वक्त जिस गति से विकृत होता जा रहा है ऐसे में क्या इस दिन पर हर युवक अपनी मां को स्पर्श कर यह कसम खा सकता है कि नारी जाति का अपमान न वह खुद करेगा और न कहीं होते हुए देखेगा। मातृ दिवस पर बेटियों को सम्मान और सुरक्षा देने का वचन दीजिए ताकि भविष्य में भावी मां का अभाव ना हो सके। देश की नारी की अस्मिता की सुरक्षा के लिए क्या आप अपनी मां की कसम खा सकते हैं..... 

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