मुखरता और चुप्पी दोनों अभिव्यक्ति हैं

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
सोमवार, 24 अगस्त 2020 (17:07 IST)
मुक्त समाज भी अभिव्यक्ति को शत-प्रतिशत सह नहीं पाता। शब्द विचार और भाषा मर्यादा से मुक्त नहीं हो सकते और यह अलिखित सभ्यता है। शिष्टाचार, आचार व्यवहार की मर्यादा भी सभ्यता के विचार से ही उपजी है। क्रोध और अधीरापन मन की दो स्थितियां हैं, जो हमारे आचार व्यवहार को गहरे से प्रभावित करती है। मानव सभ्यता के पास अभिव्यक्ति का लंबा अनुभव है। किसी के बोलने के लहजे या तौर-तरीके से ही लोगों को प्राय: अंदाज हो जाता कि बोलने वाला कैसा है?
 
हमारी बोलचाल मारक और तारक दोनों ही हो सकती है। हमारा मौन या चुप्पी भी अभिव्यक्ति है। हमारे बोलने से हल्ला, असहमति, अवमानना और विरोध हो सकता है, पर चुप रहना भी अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा हो सकती है। चुप रहने के भी कई अर्थ होते हैं, गहरे अर्थ होते हैं। लोग जब चुप होते हैं तो उनका मौन वाचाल होता है। चुप रहना हमेशा तटस्थ होना नहीं होता। गहरी चुप्पी परिवर्तन की आहट होती है।
 
कुछ लोग आवाज से परेशान होते हैं तो कुछ आवाज को उठने नहीं देना चाहते। आवाज को समझना जरूरी है। सन्नाटा चुप्पी से अलग है। कोलाहल और फुसफुसाहट के गहरे अर्थ होते हैं। बोलने के लहजे या हाव-भाव से एकदम क्या कहा जा रहा है, यह समझ आ जाता है, पर चुप्पी का अर्थ खोजना होता है। आज लोग चुप क्यों हैं, यह भी अनुसंधान का विषय हो सकता है। क्या लोग भयभीत हैं? क्या लोग संतुष्ट हैं? गहरी चुप्पी से पहले लोग सवाल उठाना बंद करते हैं। चुप्पी भी एक बड़ा और गहरा सवाल है। कई बार बोलना चुप रहने से बेहतर होता है तो कभी बोलने से चुप रहना।
 
बोलना और चुप रहना दोनों ही अभिव्यक्ति हैं। आप संदेही हैं और चुप हैं तो संदेह निवारण या कबूलवाने हेतु आपको बोलने के लिए बाध्य किया जाएगा और निरंतर सवाल पूछते हैं तो आपको सवाल पूछने से रोका जाएगा। खुला समाज और संवैधानिक व्यवस्थाएं भी सवाल और बोलने पर निगरानी और नियंत्रण रखती हैं। सोये हुए व्यक्ति को हल्ला कर सोने न देना असभ्यता है और सोये हुए समाज या देश को आवाज देकर जगाना लोकतांत्रिक सभ्यता है।
 
आजकल लोगों से ज्यादा व्यवस्था परेशान है कि कोई सवाल तो नहीं उठा रहा है। कई बार लोग इसलिए भी सवाल नहीं उठाते कि व्यवस्था सुनती ही नहीं और कई बार सवाल इसलिए भी नहीं उठते कि आपके पास कोई जवाब ही नहीं है। व्यवस्था को बोलना कम, सुनना-समझना ज्यादा चाहिए। पर आजकल व्यवस्था निरंतर बोलती रहती है व सुनती-समझती कम है। सूचना तकनीक ने चौबीसों घंटे व बारहों महीने बोलते रहने की व्यवस्था खड़ी कर दी है। इससे सुनने-समझने की सभ्यता के सामने संकट आ गया। जब कहीं कोई सुनने-समझने को तैयार ही नहीं तो लोगों ने बोलना ही कम कर दिया। लोगों की चुप्पी व्यवस्था की पहली पसंद है।
 
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मूल अधिकार माना गया है, पर लोगों को सुनना-समझना और बिना बोले लोक कल्याण के कामों को बिना रुके, बिना थके करते रहना यह व्यवस्था खड़ी नहीं हो पाई है। लोक-लुभावन बातों को बोलते रहने की व्यवस्था बढ़ गई तो लोगों का सारा समय सुनने में ही चला जाता है। लोग चुप और व्यवस्था बोलती रहे, यह लोकराज के व्यवस्था तंत्र की नई व्यवस्था है। सरकारें जब असरकारी काम नहीं कर पातीं तो लोगों को चुप्पी तोड़ बोलना होता है।
 
लोगों की आवाज व्यवस्था तंत्र को असरकारी बनाने में मदद करती है। अभिव्यक्ति की आजादी मानसिक गुलामी को खत्म कर लोक चेतना का विस्तार करती है। लोक और व्यवस्था दोनों परस्पर एक-दूसरे पर आश्रित हैं। लोक चुप है तो व्यवस्था अव्यवस्था का विस्तार करेगी। लोक चैतन्य होकर निर्भय है और अपने सवालों को लेकर संघर्ष करते हैं तो व्यवस्था लापरवाही कर ही नहीं सकती। लोगों की रात-दिन बिना थके और रुके परवाह करना ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की अभिव्यक्ति है।
 
लोगों को अनसुना कर व्यवस्था का बोलते रहना नाम का लोकतंत्र है। व्यवस्था को निरंतर सुनना और समाधान प्रस्तुत करने चाहिए और लोगों को लोकतंत्र में लोकशक्ति को चैतन्य बनाए रखते हुए अभिव्यक्ति को मुखर और प्रखर रखना चाहिए। लोभ-लालच या सत्ता, समाज, विचार, संगठन और धर्म के भय से मुक्त रहकर चुप्पी या सन्नाटे से लोकतत्र को भयतंत्र या भीड़तंत्र में नहीं बदलने देना चाहिए। यही अभिव्यक्ति की आजादी का मूल अर्थ है।
 
अभिव्यक्ति की मुखरता, प्रखरता और अधीरता से मान-सम्मान, अपमान-मर्यादा व अवमानना जैसे सवाल उभर सकते हैं, पर चुप्पी सवालों से परे सवाल खड़े करने की प्रक्रिया पर ही सवाल खड़े करती है। चुप्पी लोकतंत्र के मूल स्वरूप से ही खुला पर मौन सवाल है, जो समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा करता है। लोकतंत्र में सन्नाटा या चुप्पी लोक की अवमानना है। लोकतंत्र में लोक जीवंत और तंत्र लोकसंवेदना से परिपूर्ण होना चाहिए।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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