बालिका दिवस : नन्ही-सी बिटिया, बांटती है खुशियां

उस दिन जब ऑफिस आ रही थी। बेहद खूबसूरत और गुदगुदा देने वाला दृश्‍य देखा। देर तक मुस्कुराती रही। मैंने देखा एक सज्जन अपने बरामदे से सूर्य को जल चढ़ा रहे हैं और साथ में उनकी लगभग 2 वर्ष की प्यारी नन्ही-सी बिटिया छोटे तांबे के पात्र से जल चढ़ाते हुए पिता की नकल कर रही थी। पिता का ध्यान जैसे ही सूर्य की तरफ गया और उन्होंने गर्दन ऊंची की, मासूम सी बेटी ने नजर बचाकर उसी पात्र से पानी पी लिया।
 
यह सब कुछ इतना सहज स्वाभाविक और तत्काल हुआ कि ना पिता हंसी रोक सके ना त्वरित दर्शक बनी मैं अपनी मुस्कान पर काबू पा सकी। बात एकदम सिंपल सी है लेकिन दिन भर चेहरे पर हंसी बिखेरने के लिए काफी थी। ऑफिस आकर सबको घटना सुनाई लेकिन उस दृश्य का सौन्दर्य और भावबोध हुबहू फिर भी नहीं पहुंचा सकी।
 
इस मजेदार घटना के बहाने फिर स्वभावानुसार छोटी-छोटी बच्चियों के लिए सोचने लगी। कितनी खूबसूरत लगती है बेटियां,कितनी चंचल और सुहानी होती हैं उनकी उपस्थिति। उनकी खिलखिलाहट, चुलबुलाहट और मीठी सी आहट कितनी सारी समृद्धियों से भर देती है हमें।
 
पर ना जाने कहां विलुप्त हो गया हमारा यह अहसास कि बेटियां इस संसार की मधुरता कायम रखने के लिए बेहद जरूरी है। हम अपनी ही बेटियों के प्रति क्रूर से क्रूरतम होते चले गए, पत्थर होते गए, निष्ठुर और निर्मम होते गए लेकिन हमने नहीं सुनी उनकी वह नाजुक 'आहट' जो 'आह' में बदलती चली गई। हमने नहीं सुनी वह हंसी जो सिसकी में तब्दिल होती गई। नहीं जानी हमने उनकी भोली सी आशाएं जो आंखों के रास्ते आंसू बनकर हमारे ही सामने बहती रही।
 
हम 'खाट' से मार देने के युग से चलकर 'खाप' से मार देने तक पहुंच गए और बेटी हमारे चेहरे पर मुस्कान का कारण फिर भी नहीं बन सकी। चंद अपवादों को छोड़ दें, और उन अपवादों को छोड़ना ही होगा क्योंकि आंकड़ों से उठती आग में आज भी आहुतियां बेटियों की ही डाली जा रही है।
 
हत्या हो या आत्महत्या, बलात्कार हो या बदसुलूकी, अत्याचार हो या दुराचार, दहेज हो या किसी भी तरह का दमन, दहन बेटियां ही हो रही है। ना रावण जल रहे हैं ना होलिका। क्यों इतने युगों के बाद भी जल रही है सिर्फ बेटियां???
 
उस एक नन्ही सी चिरैया को देखकर जो मोहकता मैंने महसूस की, जो लाड़ मेरे भीतर पनपा क्या वह हर मन में नहीं उपजता होगा? अवश्य उपजता होगा, पर मन हमारे बुझ गए हैं, प्यार हमारा झुलस गया है और भावुकता कोने में बेबस सी खड़ी है एक नया नाम पाकर- 'भावनात्मक मूर्खता'। क्या हम अपनी ही बेटियों के लिए कभी भावुक होंगे? माफ कीजिए क्या आप बेटियों के लिए भावनात्मक रूप से 'मूर्ख' होना पसंद करेंगे?
 
चलिए जाने दीजिए बस एक गुजारिश ....बालिका दिवस पर अपने मन का कोई कोना किसी बिटिया की यादों के पानी से सिंचित कीजिए.... सलोना हरापन देर तक सुकून देगा....

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