जब से गुजरात व एक अन्य किसी प्रदेश के चुनावों के अपेक्षित परिणाम, अनपेक्षित रूप से घोषित हुए हैं, तब से जीवन सूना-सूना सा हो गया है। ना टीवी के सामने बैठकर भोजन करने का मन करता है और ना ही टि्वटर और फ़ेसबुक की चुस्कियों में कोई रस रहा है। कोई विषय ही नहीं रहा है चर्चा का। कोई संवाद नहीं, जो जीत गए वो दंभ में और जो हार गए वो अवसाद में–कोई किसी से बात ही नहीं कर रहा।
जनता अपनी ही धुन में वही पुराने गीत और जुमले गुनगुना कर जैसे–तैसे समय व्यतीत कर रही है। जैसे किसी कवि सम्मेलन की समाप्ति के पश्चात श्रोतागण घर जाने के लिए अपनी अपनी गाड़ियां खोजते हैं। जिन्हें मजा आया वो गीत गुनगुना रहे हैं और जिनकी अपेक्षाएं चुके हुए कवियों से उनकी क्षमता से अधिक थीं, वे चौकीदार को गालियां दे रहे हैं। पर वो आनंद कहां, जो चुनाव से पहले होता है?
टीवी सूना, सोशल मीडिया रीता, अखबार कोरा.... ना पान की दुकान पर जोरा–जोरी, ना केंटीन में सिर फुटव्वल। बचपन में जब गर्मियों की छुट्टियां पूरी होती थीं, तब भी ऐसा ही कुछ लगता था। विद्यालय आरंभ होते ही अगली छुट्टियों की प्रतीक्षा बनी रहती थी। दिल के शोले भड़कने को आतुर हैं और गब्बर बनकर बार–बार पूछ रहे हैं... अगला चुनाव कब है? कब है अगला चुनाव? और अंधी जनता अपने हाथ की लकड़ी से सड़क पर पड़े हुए मुद्दों को टटोल–टटोल कर पूछ रही है–इतना सन्नाटा क्यों है भाई...। भाई बोले भी तो क्या? जब तक साहेब से गुप्त संकेत पाकर चुनाव आयोग नई तिथियों की घोषणा नहीं कर देता तब तक यूं ही सन्नाटा बिखरा पड़ा रहेगा।
स्मरण है मुझे, वो भी क्या दिन थे जब चुनावी उम्मीदवार नए-नए मुद्दे और जुमले उछालते। फिर प्रतीक्षा रहती थी प्रत्युत्तर की। हम पंच बनकर आकलन करते और नंबर देते। इधर कॉलेज की केंटीन में चौसर सजती, तर्क– कुतर्कों की द्यूत क्रीड़ा होती।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी अलग गोटी लेकर आता- कोई नीली गोटी से खेलता, कोई हरी से और कोई भगवा गोटी से। प्राय: इनकी गोटियों के रंग कभी नहीं बदलते। फिर पासे फेंके जाते, समर्थकों में उन्माद की लहर उठती, गोटियां चली जातीं। प्रत्येक खिलाड़ी पौ-बारह की ही उम्मीद लगाकर खेलता। हर चाल के बाद किसी के ललाट पर विजयश्री चमक उठती, सभा में उपस्थित तटस्थों के समर्थन से सीना फूल जाता।
फिर विरोधी पासे फेंकते। क्रीड़ा अनवरत चलती रहती। चौसर सजी रहती, खिलाड़ी बदलते रहते, गोटियां घूमती रहतीं, तर्क उछलते रहते, चेहरों के रंग बदलते रहते, मुखौटे लगते, उतरते रहते। वातावरण को भांप कुछ शत्रु मित्र सा व्यवहार करने लगते। परंतु खेदजनक प्राय: मित्र भी शत्रु की भांति प्रतीत होते। ऐसे में शातिर खिलाड़ी मित्र को भी व्हाट्सएप पर ग्रुप से निकालने या निकल जाने में संकोच न करता। फिर मनाने की प्रक्रिया चलती। कुछ रूठे रहते, कुछ मान जाते, कभी गिरह सुलझ जाती, कभी गठान पड़ जाती। पर क्रीड़ा अनवरत निर्बाध चलती रहती।
परिणाम के दिन निकट आते-आते वातावरण ऊष्ण ऊर्जा से दहक उठता। स्वर सप्तक तार को छू लेते, वाणी कटु हो जाती, आभा बिगड़ने लगती, तर्क और लज्जा कोलाहल में खो जाते। सुरमई पवन अब द्वेष की आंधी बनकर सांय-सांय बहने लगती। कभी-कभी तो चौसर भी उछाल दी जाती, गोटियां बिखर जातीं, बीच-बचाव तक की नौबत आ जाती। प्रत्येक चुनाव में यही खेल होता है, खाई बढ़ती जा रही है, लाल, नीली, हरी, भगवा गोटियां निरंतर खाने बदल रही हैं। कोई गोटी घर नहीं पहुंच रही, खेल थम ही नहीं रहा। खिलाड़ी बदलते जा रहे हैं, खेल खत्म ही नहीं हो रहा।
और इन सभी घटनाओं से दूर कहीं राजधानी के सरकारी बंगलों में, बाबाओं के आश्रमों में, मौलवियों के मदरसों में, अतिधनाढ्यों के गुप्त फार्म हाउसों में इस द्यूत क्रीड़ा के नए नियमों की रचना हो रही है। इन नियमों के जुमलों से मीडिया और सोशल मीडिया में विष घोला जाएगा। हर दल अपने अपने रंग की गोटियां बांटेगा। धीरे-धीरे जो वातावरण में धूल नीचे जमती जा रही है, उसे फिर अस्थिर कर रंगत बदली जाएगी। फिर आकाश धुंधला दिखेगा। फिर आंखों में किरकिरी चुभेगी। फिर चौसर सजेगी। एक बार फिर यह असुलभ प्रश्न हृदय को बेचैन कर देगा–अगला चुनाव कब है? कब है अगला चुनाव??
॥इति॥
(लेखक मेक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं)