यह वो सारे सवाल हैं जो कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर से उपजे हैं जो आठ पुलिसकर्मियों की हत्या का भी आरोपी था।
दरअसल, कानून और अदालतें न्याय-व्यवस्था का मूलभूत सिद्धांत है। जब भी कोई अपराध घटता है तो एक प्रक्रिया के तहत पीड़ित अदालत का दरवाजा खटखटाता है। अदालत पक्ष और विपक्ष की दलीलें सुनती है, सबूत मांगती और देखती है। उन्हीं दलीलों और सबूतों के आधार पर फैसला सुनाया जाता है।
तो फिर जब विकास दुबे जैसे अपराधियों का एनकाउंटर होता है तो उसे सही या गलत साबित करने के लिए देशभर में बहस क्यों छिड़ जाती है। क्यों कुछ लोग ऐसे एनकाउंटर को सही तो कुछ लोग उसे गलत बताना शुरू कर देते हैं।
इस बहस का हालांकि कोई अंत नहीं है। हर एनकाउंटर के बाद यह बहस होती ही है। लेकिन इसी बहस के केंद्र में न्याय भी है। एनकाउंटर का जन्म न्याय पर उठे सवालों के साथ ही उपजते हैं और खत्म भी होते हैं।
देश में अपराधों की विवेचना के लिए कुछ खास तरह की इमारतें हैं, किताबें हैं, न्यायाधीश है, अभिभाषक हैं। इन सब के साथ एक पीड़ित और एक गुनहगार भी है। हजारों-लाखों लोगों को न्याय की इन इमारतों और किताबों में यकीन भी है, शायद इसीलिए इन सरकारी इमारतों में काले कोट में घूमते हजारों वकीलों के बीच कहीं गुमसुम और उदास बैठे हुए पीड़ित भी उतनी ही संख्या में नजर आ जाते हैं। कोई हाथ जोड़कर गुहार लगा रहा है तो कोई हथकड़ी पहने भी आंखों से खौफ फैला रहा है।
जैसे यह दुनिया गिद्धों और चिड़ियाओं का कोई खेल हो।
यह सबकुछ है, लेकिन इन सब के बीच जो सबसे ज्यादा भयावह है वो है प्रतीक्षा। जिसका कोई अंत नहीं। एक अंतहीन प्रक्रिया। जिसकी प्रतीक्षा में पीढ़ियां खप जाती हैं, उम्रें बर्बाद हो जाती हैं, पीड़ित के शरीर किसी बहुत पुराने थके-मांदे मलबे में तब्दील हो जाते हैं। उसकी आंखें ईश्वर की आंखें हो जाती है जो न देखती है न सुनती है। न पथराती है और न ही छलकती हैं।
यहां तक कि कई बार न्याय की यह प्रक्रिया उम्र से भी ज्यादा लंबी हो जाती है, इतनी लंबी कि फैसले सुनने वाले पीड़ित और सजा भोगने वाले गुनहगारों की जिंदगी ही उपलब्ध नहीं होती है। तब न्याय और फैसला एक बेमानी और एक भ्रम नजर आता है। जैसे जिंदगी कोई छद्म हो।
इस देश में सिस्टम तो है, लेकिन उसकी प्रक्रिया इतनी लचर है, इतनी धीमी है, इतनी उबाऊ है कि तब तक न्याय मिलने की उम्मीद और उसके सुख की आंच ही मंद और ठंडी पड़ जाती है।
न्याय की गति की वजह से ही हजारों-लाखों पीड़ित सहज ही अदालत का दरवाजा खटखटाने की बजाए अत्याचार को भोग लेना चुन लेते हैं। आत्महत्या चुन लेते हैं। उन्हें न्याय का रास्ता चुनने से ज्यादा सरल और सहज अत्याचार सहन करना लगता है। विष का घूंट पी लेना ज्यादा आसान लगता है।
निर्भया गैंग रेप मामला महज एक उदाहरणभर है जिसमें एक मां को अपनी पीड़ित बेटी के लिए न्याय की इमारतों के चक्कर काटते हुए सात साल लग गए। ऐसे लाखों मामले हैं जो निर्भया गैंग रेप की तरह नेशनल न्यूज का हिस्सा नहीं बन पाते, जिनके बारे में कोई नहीं जानता सिवाए भोगने वाले के।
ऐसे में अगर आठ पुलिस वालों के आरोपी और आतंक का पर्याय बन चुके विकास दुबे का पुलिस एनकाउंटर कर देती है तो लोगों को खुशी क्यों होती है? क्या यह वाकई किसी अपराधी की मौत की खुशी या जश्न है? या शॉर्टकट न्याय मिलने की एक तसल्लीभर।
क्या यह एनकाउंटर, यह शॉर्टकट फैसला इंसाफ का नया विकल्प है?
एक तरफ के लोग यह सोच रहे हैं कि क्या अदालतों पर भरोसा नहीं था। वही अदालतें जिनके फेरे करते हुए तलवे और सिर दोनों घिस जाते हैं। तो दूसरी तरफ के लोग कह रहे है कि अच्छा ही हुआ गोली मार दी। नहीं तो सालों तक केस चलता। बचने और बचाने की कोशिश होती। मीडिया ट्रायल होते। अपराधी आम आदमी के टैक्स पर जेल में अय्याशी करता या जमानत पर बाहर आकर इसी कानून और अदालत को मुंह चिढ़ाता।
दरअसल, इस पूरी दुनिया में कोई एक सत्य नहीं है। सबका अपना-अपना सत्य है। इन्डिविजुअल ट्रूथ। कोई हत्या किसी एक के लिए एनकाउंटर होती है तो दूसरी तरफ खड़े एक दूसरे आदमी के लिए इंसाफ होती है। एक तसल्ली, एक ठंडी आह होती है।