आजकल हिंदू और हिंदुत्व में अंतर की चर्चा जोरों पर है। पिछले दिनों एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के बड़े नेता ने राजस्थान की एक सभा में हिंदू और हिंदुत्व को लेकर जो ज्ञान दिया है उसे सुनकर बड़े-बड़े विद्वान और भाषाविद् भी आश्चर्यचकित हैं, क्योंकि इससे पहले इन शब्दों की ऐसी ज्ञानगर्भित व्याख्या कभी पढ़ने-सुनने में नहीं आयी है।
ऐसा लगता है कि हमारे विकासशील देश में राजनीति के साथ-साथ भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि सभी विषयों पर कुछ भी बोलने का एकाधिकार हमारे नेताओं ने अपने पक्ष में सुरक्षित कर लिया है।
अब इन विषयों के विद्वानों की आवश्यकता नहीं रही। सारे विषय राजनीति के स्वार्थ सागर में समा गए हैं और अब जो राजनेता कहें वही अंतिम सत्य है।
आश्चर्य का विषय है कि व्यक्ति से उसके व्यक्तित्व को अलग बताया जा रहा है। व्यक्ति और व्यक्तित्व--दो अलग शब्द हैं, किंतु अर्थ की दृष्टि से वे परस्पर बहुत दूर नहीं हैं। व्यक्तित्व शब्द व्यक्ति से ही बना है। व्यक्ति पहले है और व्यक्तित्व बाद में। व्यक्ति की विशेषता ही उसका व्यक्तित्व है। यही बात हिंदू और हिंदुत्व शब्द में भी सही सिद्ध होती है। हिंदुत्व रहित हिंदू वैसा ही है जैसा व्यक्तित्व रहित व्यक्ति। समाज में, सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति को नहीं व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा मिलती है। व्यक्ति अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण ही महान कहलाता है, इतिहास में अमर होता है।
व्यक्तित्व-विहीन सामान्य जन तो सृष्टि के अन्य जीवों के समान ही जीवन से मृत्यु तक की महत्वहीन यात्रा करता रहता है। इस कारण व्यक्ति के लिए व्यक्तित्व का महत्व है और हिंदू के लिए हिंदुत्व महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार इस्लाम और मुसलमान, ईसाइयत और ईसाई शब्द भी परस्पर भिन्न होकर भी अभिन्न हैं।
हिंदू और हिंदुत्व-- दोनों संज्ञा शब्द हैं। हिंदू जातिवाचक संज्ञा है जो एक जाति-धर्म विशेष में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों का बोध कराती है। यह संज्ञा हिंदू परिवार में जन्म होते ही व्यक्ति को स्वतः प्राप्त हो जाती है और तब तक बनी रहती है, जब तक वह किसी विशेष कारणवश स्वयं इस का त्याग नहीं कर देता है। हिंदुत्व भाववाचक संज्ञा है और हिंदू धर्म में स्वीकृत मान्यताओं, परंपराओं, विश्वासों, पूजा-पद्धतियों, रीतियों एवं अन्य तत्संबंधित विशिष्ट विषयों-बिंदुओं के प्रति आस्थाजनित दृढ़ता का बोध कराती है।
हिंदुत्व समस्त हिंदू समाज के प्रति गहरी रागात्मकता का भाव-बोध है। जिसने हिंदू परिवार में जन्म लिया है, किंतु हिंदुओं के पर्वों, त्योहारों एवं अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं में जिसकी निष्ठा नहीं, हिंदुओं के आदर्श महापुरुषों के प्रति जिसके मन में श्रद्धा नहीं, हिंदुओं की दुर्दशा के प्रति जिसके मन में पीड़ा नहीं, और हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों को पढ़-सुनकर, देखकर जिसके हृदय में क्षोभ, आक्रोश और क्रोध नहीं वह हिंदुत्व विहीन हिंदू किस काम का..?
पृथ्वीराज चैहान के समय से लेकर आज तक का हिंदू समाज जातिवाचक हिंदुओं की अधिसंख्यक स्थिति के बाद भी हिंदुत्व भावबोध की अल्पता के कारण सदा संकट ग्रस्त रहा है। हिंदुत्व पृथ्वीराज चैहान, राणा संग्राम सिंह, महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौर, छत्रपति शिवाजी ,गुरु गोविंदसिंह, बंदा बैरागी, राजा रणजीत सिंह, महाराज छत्रसाल, नानासाहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस, सरदार बल्लभभाई पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की गौरवशाली बलिदानी परंपरा की ज्योति लिए आज भी संघर्षरत है जबकि हिंदुत्व भाव शून्य हिंदू जयचंद, मानसिंह, जयसिंह की भांति पहले मुगलों और अंग्रेजों की सेवा- सहायता करते हुए सत्ता सुख भोगते रहे और अब स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की बलिवेदी पर हिंदू -हितों की बलि देते हुए हिंदुओं की जड़ें खोद रहे हैं।
हिंदुत्व शब्द में वादी पद जोड़कर नया हिंदुत्ववादी शब्द गढ़कर उसे अलगाववादी, आतंकवादी की तरह बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं। हिन्दुओं के विरुद्ध हिन्दुओं की ऐसी गतिविधियां हिन्दू समाज के लिए सदा दुर्भाग्यपूर्ण रहीं हैं और आज भी हैं।
हिंदू और हिंदुत्व में अलगाव की कुटिल कल्पना के अनुसार महात्मा गांधी हिंदू हैं और नाथूराम गोडसे हिंदुत्ववादी। अब तक किसी भी शब्दकोश में हिंदुत्ववादी शब्द देखने को नहीं मिला है।
हिंदू और हिंदुत्व शब्द शब्दकोशों में भी हैं और व्यवहार में भी प्रचलित हैं किंतु हिंदुत्ववादी शब्द हिंदुओं के गौरव और हिंदू -अस्मिता के लिए जूझने वालों को समाज में अलोकप्रिय बनाने के लिए गढ़ा गया है।
वास्तव में एक राजनीतिक शिविर से उभरा यह स्वर दूसरे राजनीतिक दल की बढ़ती शक्ति को क्षीण करने के लिए की जा रही असफल कोशिश है।
प्रश्न यह भी है कि एक महात्मा गांधी पर गोली दागने वाला गोडसे हिंदू नहीं है, हिंदुत्ववादी है तो पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में सिक्खों की निर्मम हत्यायें करने वाले कौन थे? वे हिंदू थे अथवा हिंदुत्ववादी? निश्चय ही ये उसी शिविर के राजनीतिक नेतृत्व से प्रेरित लोग थे जो आज अपने प्रतिपक्षी दल के समर्थकों को हिंदुत्ववादी कहकर उन्हें आतंकवादियों की तरह कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं।
महात्मा गांधी के सत्याग्रह को लक्ष्य करके कहा जा रहा है कि हिंदू सत्य चाहता है और हिंदुत्ववादी सत्ता चाहता है। विचारणीय है कि तथाकथित हिन्दुत्ववादी गोडसे ने किस सत्ता की प्राप्ति के लिए गोली चलाई थी और इससे उसे कौनसी सत्ता की प्राप्ति हुई। प्रश्न यह भी है कि सत्य कौन नहीं चाहता? क्या हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य सब धर्मावलंबी सत्य नहीं चाहते? वस्तुतः संसार का प्रत्येक सज्जन व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, देश का हो-- सत्य अनुरागी होता ही है। जहां तक सत्ता का सवाल है-- सत्ता सबको चाहिए।
सत्ता राणाप्रताप को भी चाहिए और सत्ता मानसिंह को भी चाहिए किंतु दोनों के सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य परस्पर भिन्न हैं। मानसिंह को सत्ता निजी सुखों के लिए, विलासिता के लिए चाहिए जबकि राणाप्रताप को सत्ता अपने स्वाभिमान और मानवीय गौरव की सुरक्षा के लिए चाहिए। औरंगजेब को सत्ता इस्लाम के विस्तार के लिए चाहिए, मिर्जा राजा जयसिंह को अपने राजपद की सलामती के लिए चाहिए, डलहौजी को व्यक्तिगत ऐशो आराम और अपने देश इंग्लैंड की समृद्धि के लिए चाहिए जबकि शिवाजी को सत्ता अपने अस्तित्व की सुरक्षा तथा भारतवर्ष की सांस्कृतिक अस्मिता के संरक्षण-संवर्धन के लिए चाहिए।
देश के वर्तमान सत्ता-संघर्ष में भी उपर्युक्त प्रतीक पुरुषों के चोले में आज के नेतागण भी इन्हीं अलग-अलग उद्देश्यों की सिद्धि के लिए संघर्षरत हैं।
यह सही है कि प्रायः एक शब्द का एक अर्थ होता है किंतु अनेक शब्द अनेकार्थी भी होते हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जैसे एक शरीर में एक आत्मा निवास करती है, वैसे ही एक शब्द का एक ही अर्थ होता है। संस्कृत में पत्र का अर्थ पत्ता और पाती है, हिंदी में अंक शब्द गोद, नाटक का एक भाग, परीक्षा में प्राप्त अंक आदि अनेक अर्थ व्यक्त करता है। अंग्रेजी का लेटर शब्द अक्षर और पत्र दो अर्थ प्रकट करता है। इससे सिद्ध है कि एक शरीर में दो आत्माएं हों अथवा न हों किंतु बहुत से शब्द दो अर्थ अवश्य व्यक्त करते हैं।
तर्क दिया जा रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी दृष्टि से शब्द -अर्थ की व्याख्या करने का अधिकार है। यह बात तब सही हो सकती है जब व्याख्या करने वाला उस विषय का ज्ञाता हो और तथ्य तथा तर्क के धरातल पर अपना मत व्यक्त करे।
अनर्गल प्रलाप करते हुए अर्थ का अनर्थ करना किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसका कथन बहुत से लोगों को प्रभावित करता हो, शोभा नहीं देता। समाज में जिसका स्थान जितना बड़ा है उसका उत्तरदायित्व भी उतना ही अधिक है। समाज को भ्रमित करना, मनमाने अर्थ गढकर श्रोताओं को अपने पक्ष में करने के लिए भाषा -संवेदना को विकृत करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।
स्वतंत्र भारत में सत्ता मिलते ही जिन्होंने गंगा को सांस्कृतिक विरासत के स्थान पर भौतिक समृद्धि का प्राकृतिक संसाधन मात्र माना और तथाकथित विकास के नाम पर पवित्र गंगा जल प्रदूषित कर विषाक्त बना दिया।
नगरों-महानगरों के कचरे के साथ-साथ सैकड़ों उद्योगों के विषैले रसायन गंगा में प्रवाहित करने की खुली छूट दी और आजादी के साठ साल में ही गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियां प्रदूषित कर दीं उनके झंडाबरदार आज गंगा की दुहाई देकर हिंदुओं के गंगास्नान की बात कर रहे हैं। उनके अनुसार हिन्दू गंगा में करोड़ों लोगों के साथ स्नान करता है जबकि हिंदुत्ववादी अकेले स्नान करता है। यह बात समझ से परे है।
जिन्हें हिंदुत्ववादी कहा जा रहा है उनके शासन में कुंभ स्नान की व्यवस्थाएं पहले से अधिक बेहतर रहीं हैं। सब जानते हैं कि पर्वों पर विशेष सामूहिक स्नान की सांस्कृतिक परंपरा सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही है, जबकि गंगा के निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाले बहुत से हिन्दू श्रद्धा पूर्वक नित्य ही अकेले गंगा स्नान करते हैं।
इसमें हिन्दू और हिंदुत्ववादी जैसे किसी अंतर के लिए कोई संभावना नहीं है किन्तु अपने समर्थकों के बीच लोग कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ऐसा दुरुपयोग लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है।
वस्तुतः हिंदू देह है और हिंदुत्व उसकी आत्मा है। जैसे आत्मा के बिना देह का कोई महत्व नहीं वैसे ही हिंदुत्व रहित हिंदू का भी कोई अस्तित्व नहीं। आत्माविहीन देह जल्दी ही गल-सडकर समाप्त हो जाती है। जिस प्रकार देह के अस्तित्व में रहने के लिए आत्मा आवश्यक है उसी प्रकार हिन्दुओं की अस्मिता के लिए हिंदुत्व का भावबोध जागृत रहना भी आत्यंत आवश्यक है।
हिंदुत्व के बिना हिंदू अस्मिता पर अस्तित्व का घोर संकट विगत एक हजार वर्ष से निरंतर छाया रहा है और आज भी है। अब भी यदि हिंदुत्व-बोध सशक्त नहीं हुआ तो इस देश में भविष्य में उसकी भी वही स्थिति हो सकती है जो शताब्दियों पूर्व पारसियों और यहूदियों की हो चुकी है। अपनी अस्मिता एवं सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए हमारा जन्म से हिंदू होना ही पर्याप्त नहीं है उसमें हिंदुत्व की शौर्य -चेतना का दीप्त होना भी परमावश्यक है। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)