नौशाद के मातम का पोस्टमार्टम

नौशाद आलम बंगाल के हैं। बंगाल, जो अब पश्चिम बंगाल है। वह है तो भारत के पूर्व में लेकिन लिखते पश्चिम बंगाल हैं। सन् 47 में भारत के दो टुकड़े होने के 40 साल पहले बंगाल टुकड़े-टुकड़े हुआ था। दूसरा टुकड़ा पूर्वी बंगाल हो गया था तो उसके पश्चिम में बचा हुआ पश्चिम बंगाल हो गया। हमारा पूर्व हमारे लिए पश्चिम हो गया।

जब भारत के दो टुकड़े हुए तो पहले ही टुकड़े-टुकड़े हो चुके बंगाल का पूर्वी हिस्सा ‘पूर्वी पाकिस्तान’ कहलाया। भारत का दूसरा बड़ा टुकड़ा मुख्य पाकिस्तान कहलाया। यह कोई मुल्क नहीं, एक दृष्टि से भारत पर इस्लाम के अतिक्रमण हैं। पूर्वी पाकिस्तान को इस पाकिस्तान से जोड़ने के लिए भारत के माथे और गले को काटते हुए एक कॉरिडोर का ख्वाब भी तब देखा गया था, लेकिन ऐसे ख्वाब देखने वाले लीडर उधर अल्लाह को प्यारे हो गए और इधर उनका देवलोकगमन हो गया। कॉरिडोर उनके ख्वाबों में ही चला गया।

कॉरिडोर बनारस में अब बना और नौशाद आलम बंगाल से शायद उस पुराने कॉरिडोर की उम्मीद में तशरीफ लाए होंगे। उम्मीदों पर पानी फिरना ही था। यह वो ‘ग्रीन कॉरिडोर’ नहीं, ‘भगवा कॉरिडोर’ नजर आया। इसके बगल में वह मस्जिद है, जिसका किसी प्रकार के ज्ञान से दूर-दूर का संबंध नहीं है लेकिन कहलाती ‘ज्ञानवापी’ है।

नौशाद की आंखों पर एक चश्मा है, जिसका नंबर 57 मुल्कों में एक ही है। चार-छह पीढ़ी पुराने इस चश्मे से उन्हें मस्जिद तो अपनी मालूम पड़ती है और काशी विश्वनाथ काफिरों के। कम्बख्त काफिरों की शान के बगल में अल्लाह की मस्जिद बेनूर! इससे अच्छा तो यह होता कि धरती वहीं फट जाती, उसमें से रेगिस्तान की न सही गंगा की ही रेत निकलती और नौशाद मियां अल्लाहो-अकबर का मंत्रोच्चार करते हुए उसी रेत में समाकर अपने ‘परमधाम’ की ओर कूच फरमाते।

वह ‘परमधाम’ जिस पर अरब में 14 सौ साल पहले ‘जन्नत’ का साइनबोर्ड टांग दिया गया था। जन्नत के उस पते पर क्या-क्या सुविधाएं उपलब्ध हैं, इंटरनेट ने यह बच्चे-बच्चे को बता दिया है। जहां इंटरनेट नहीं है, वहां तारेक फतह के अनुसार बड़े और छोटे भाई के मिश्रित तबलीगी परिधान में बिना मूंछ की दाढ़ी में ‘सुदर्शन’ मौलवी पर्याप्त से अधिक मौजूद हैं। बच्चा अगर मदरसे में है तो उसके दिमाग में उसी जन्नत का एकबत्ती मुफ्त कनेक्शन फिट करने में यही मौलवी कुशल लाइनमैन की तरह खंभों पर चढ़े हैं। वे खंभे नहीं मीनारे हैं, जहां दिन में पांच बार चढ़कर उनके असिस्टेंट लाइनमैन जोर से गला फाड़ आवाजें करके फॉल्ट चैक करते हैं। इसी बनारस में बैठकर कबीरदास ने अरब ब्रांड की इस पूरी तकनीकी प्रक्रिया को ही एक दोहे में बड़ा भारी फाल्ट बताया था।

नौशाद आलम ने हरा-हरा दिखाने वाले इस जादुई चश्मे से ज्ञानवापी के गुंबद देखे जो कॉरिडोर के आगे शरमा रहे थे। नौशाद उस शरम में ही गड़ गए। चोट लगी ही थी कि एक कन्या कैमरा-माइक लिए नमूदार हो गई।

‘टीवी’ के पुराने रोग जैसा वही सवाल-‘कैसा लग रहा है?’ यह नौशाद के जले पर नमक था। बंगाल और बनारस का असल अतीत न नौशाद को मालूम, न माइकधारी कन्या को। यश चोपड़ा की मूवी के किसी सीन की तरह दोनों बस अपने मस्त आज में जीते हुए गोदोलिया की चमकदार गली से निकले और एक दूसरे से टकरा गए।

सवाल कानों से टकराते ही नौशाद के चेहरे पर मोहर्रम के प्रिंट आऊट उभर आए। मातम पसरा हुआ मिला। ज्ञानवापी की उपेक्षा को देखकर उनकी रूह छलनी होगी तभी तो ऐसा आऊटपुट आया। कन्या का काम हो गया तो कैमरा समेटते हुए वह नौशाद मियां के कंधे थपकाने लगी। बस वह यह और कह देती तो सीन पूरा हो जाता-‘अब जाने वाला तो अपना खेल दिखाकर चला गया, खुद को संभालो, तुम्हें जीना होगा…।’ हालांकि जाने वाला कहीं नहीं गया, वह फिर लौटेगा। दिल्ली से भी, लखनऊ से भी! खेल अभी खत्म नहीं हुआ है।

सबसे पहले नौशाद को बंगाल घुमाते हैं। वह बंगाल जो कभी अखंड था। वैसे ही जैसे कभी यह पूरा भारत अखंड था। आज के नक्शे पर देखिए तो उधर अफगानिस्तान के पार से लेकर इधर बांग्लादेश के समुद्री किनारों तक और यहां हिमालय के बर्फ से लेकर कन्याकुमारी की आखिरी समुद्री चट्‌टान तक। मगर तब मुल्क के इस आलम में कोई नौशाद नहीं था। नौशाद के चश्मे से ही देखें तो बंगाल में सबसे पहली आमद मोहम्मद बख्तियार खिलजी नाम के एक वहशी की है, जिसने प्राचीन राजधानी गौड़ को बरबाद करके लखनौती को अपना अड्‌डा ठीक वैसे ही बनाया, जैसे कुतबुद्दीन ऐबक ने देहली को अपने गिरोह का अड्‌डा बना दिया था और शर्कियों ने जौनपुर को। मगर गधे पर बैठकर देहली और अवध तक आए खिलजी कबीले के ये वाले मोहम्मद साहब देहली से किसी राजधानी एक्सप्रेस से सीधे बंगाल नहीं पहुंचे थे। मिनहाज सिराज ने बख्तियार के ही समय में लखनौती जाकर अपने प्रतिवेदन लिखे हैं। प्यारे पढ़ो तो सही।

बख्तियार बिहार में नालंदा और विक्रमशिला जैसे सदियों पुराने विश्वविद्यालयों को जलाकर राख करता हुआ घोड़ों का कारोबारी बनकर बंगाल के नादिया में नबद्वीप पहुंचा था और राजा लक्ष्मणसेन के महल पर धोखे से हमला कर दिया था। भारत भर में ऐसी हर कहानी में धोखा एक अनिवार्य रस्म सा है। सोने जैसे बंगाल की जमीन पर वह पहला बीज था, जिससे आज लाखों नौशाद आलमे इस्लाम की रौनक बने हुए हैं। पूर्वी बंगाल में भी, जो आज बांग्लादेश है, जहां अभी-अभी कई मंदिर ढहाए गए हैं और पश्चिम बंगाल में भी, जहां चुनाव बाद की हिंसा में बहुसंख्यक बेइज्जत और बेदखल हैं। आबादी का यह हरा-भरा विस्तार बख्तियार के बाद शुरू हुए आतंक और अत्याचार की सदियों की कामयाब उपज हैं। सदियों तक शांतिप्रिय हिंदू, बौद्ध और जैनियों पर ढहाए गए अकथनीय जुल्मों का कुल परिणाम।

एक शब्द में कहें तो ‘धर्मांतरित’, छल से भी, बल से भी। ये कोरी गप नहीं हैं। असल रेफरेंस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के आर्काइव में हैं, कोई भी आचार्य इरफान हबीब के पास जाकर देख और पलट सकता है। वे अल्लाह के फजल से अभी सेहतमंद हैं।

नौशाद कभी इन दस्तावेजों को भी खंगालें और फुरसत हो तो नालंदा के खंडहरों पर जाकर महसूस करें कि दस हजार विद्यार्थियों के इस आवासीय विश्वविद्यालय में जब आगजनी और कत्लेआम हुआ होगा, दो हजार आचार्य मारे गए होंगे तब महीनों तक क्या मंजर पसरा होगा? शुद्ध हिंदी में आठ सौ साल पहले वह बिहार पर पहला इस्लामी आतंकी हमला था। बिहार का पहला नाइन-इलेवन! फिर बंगाल तक कई नाइन-इलेवन हैं। बलबन के नाइन-इलेवन में लखनौती के दो मील लंबे बाजार के दोनों तरफ नुकीली लकड़ियों पर लाशों को टांगा गया था।
फिरोजशाह के नाइन-इलेवन में एक लाख बंगालियों के कटे हुए हरेक सिर के बदले भुगतान किए गए थे। नवाबों तक यह लंबी श्रृंखला है। आबादी का हरा-भरा विस्तार आतंक की इसी खेतीबाड़ी की लहराती फसलें हैं, जिन्हें सेक्युलर पार्टियों ने अपना वोट बैंक बना दिया।

नौशाद मातम छोड़कर थोड़ा दिमाग पर जोर डालेंगे तो इन्हीं सदियों में किसी मोड़ पर अपने किसी पुरखे की पहचान को नामालूम किन हालातों में बदलता हुआ ही देखेंगे। और वह पुरखा कोई रामकृष्ण, नरेंद्र, अरबिंदो, सुभाष, रबींद्र, कोई बिमल, कोई ऋषिकेश, कोई केष्टो, कोई असित, कोई जॉय, कोई बिश्बजीत, कोई प्रणब या कोई अधीरंजन ही निकलेगा। कोई सरकार या कोई बिश्वास, कोई मुखर्जी, कोई चटर्जी या कोई बनर्जी! असल आलम यही था। नौशाद कहीं नहीं।

नौशाद मियां, अब बनारस आइए। जिस ज्ञानवापी को देखकर आंखें छलक पड़ीं, उसके गुंबद के पीछे आकर आंखें बंद कर लीजिए। बुनियाद के पत्थरों को एक सिरे से टटोलिए। नालंदा वाला अहसास ही होगा। खंडित हों या साबुत, पत्थर झूठ नहीं बोलते। एक जन्मजात नेत्रहीन भी उन पत्थरों को टटोलकर बता सकता है कि वे किसी मियां, किसी मस्जिद के नहीं हैं। लेकिन एक सेक्युलर आंख वाला उसे निर्लज्जता से गंगा-जमनी एकता का नमूना बताएगा। 75 साल की आजादी आंखों में यही धूल झोंकने का अनुष्ठान था, जिसकी पूर्णाहुति 2014 में सौ करोड़ हिंदू पुरोहितों ने कर दी है। नौशाद मियां को अपने मदरसे के गुरू से पूछना चाहिए कि बनारस की ज्ञानवापी में लगा ‘ज्ञान’ क्या कह रहा है, वह कहां से आया है, दुनिया की किस दूसरी मस्जिद का ऐसा नाममात्र का संबंध भला ‘ज्ञान’ से है?

और जो नौशाद गुजरात में हैं, वे चंपानेर, पाटन और अहमदाबाद की ऐसी ही नगीना और अहमदशाही मस्जिद में जाकर पत्थरों से बात करें, जो उत्तरप्रदेश में हैं वे जौनपुर की अटाला मस्जिद में एक दिन बिताएं, जो मध्यप्रदेश में हैं वे धार की भोजशाला या विदिशा के बीजामंडल में जाकर अपने पुरखों के चेहरे तलाशें, कश्मीरियत का राग अलापने वाले अनंतनाग के पास मार्त्तंड मंदिर और मुजफ्फराबाद के पास शारदा पीठ के काले पत्थरों के आसपास अनुभव करें कि कहां के लोग यहां आकर किसके साथ अपना मुंह काला कर रहे थे?

जो नौशाद पाकिस्तान में हैं, वे तक्षशिला और काफिरकोट के खंडहरों पर जाकर असल फातिहा पढ़ें और जो अफगानिस्तान में हैं, वे बामियान और काबुल म्युजियम की गैलरियों में अपने महान् और जाहिलों के हाथों बरबाद बदकिस्मत पुरखों का ख्याल अपने बंजर कर दिए गए दिमागों में सिर्फ पल भर के लिए रोशन करें। न नौशाद कहीं कम हैं और न ही इन भूले-भटके नौशादों को उनके मूल का अनुभव कराने वाले स्मारक कम हैं। ये पासवर्ड हैं। दिमाग में डालोगे तो असली आधार कार्ड बाहर आ जाएंगे। बस इन नौशादों को कोई यह बताने वाला नहीं है कि उन्हें मातम किन बातों पर करना चाहिए, कब और कहां करना चाहिए। उन्हें शर्म किस बात पर आनी चाहिए और फख्र कहां होना चाहिए। आंसू कहां, कब और क्यों गिरने चाहिए।

देश भर में हुईं अब तक की सारी पुरातात्विक खुदाइयों और इस्लामी बहेलियों के हाथों सदियों तक बरबाद खंडहरों में एक भी जैनी, बौद्ध या हिंदू का एक भी आंसू मलबे में नहीं मिला है। वे कभी आंसू नहीं बहाते। वे धैर्य धारण करते हैं। उनका विश्वास न्याय में है, अहिंसा में है, करुणा में है। उनका यकीन व्यवस्था में है। वे केवल प्रतीक्षा करते हैं, प्रयास करते हैं, संघर्ष करते हैं। सदियों की लंबी प्रतीक्षा का अनुभव है उन्हें। पीढ़ियों तक प्रतीक्षा, क्योंकि वे पुनर्जन्म को मानते हैं। इस जन्म में न सही, अगले जन्म में सही। फिर लौटकर आएंगे। सारे हिसाब यहीं बराबर होंगे। कौन कहां भागा जा रहा है। कल तुम्हारे नकली सिक्के तलवार के जोर पर चल गए। अंतत: सत्य की विजय का विश्वास उन्हें जिलाए रखता है, जिसके आदर्श पात्र राजा हरिश्चंद्र भी इसी बनारस के किसी मोड़ पर कभी टकराए थे!

हमारा ईश्वर हमारे दिलों को शांति और विश्वास से भरता है। वह न तो सात आसमानों के अड्‌डे पर बैठकर खौफ में जीने और मरने की धमकियां देता और न किसी एक आखिरी दिन का डर बैठाकर दिन के पांचों वक्त पीछे पड़ा रहता है। विश्वास न हो तो किसी जिनालय में तीर्थंकरों की शांत और विराट मुद्रा को आंखें खोलकर देखो, किसी विहार में तथागत की ध्यान मुद्रा का अनुभव आती-जाती श्वांस में गौर करो। वे तप और त्याग सिखाते हैं, तलवार नहीं थमाते। वे करुणा उंडेलते हैं, कष्ट नहीं। और हमारा नटराज तो डमरू बजाता हुआ बनारस में ही है और अगर सुन सको तो अब मथुरा में उसकी मधुर बांसुरी की धुन भी सुनाई देगी।

नौशाद मियां, रोओ नहीं। तुम अलग नहीं हो। हमारी जड़ें एक हैं। अगर उस कैमरे वाली कन्या को भी असल अतीत का थोड़ा ज्ञान होता तो ज्ञानवापी के पीछे यही कहती कि तुम नौशाद हो ही कब से। प्याज की परत सी ये बदली हुई पहचान है। छील दो। दो आंसू और गिरेंगे और काशी कॉरिडोर में सब धुल जाएगा…
फोटो: यूपी तक वीडि‍यो से स्‍क्रीन शॉट

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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