संजा क्या है? कब हुई शुरुआत, कैसे पड़ा नाम, जानिए संजा पर्व का इतिहास

मानव मन की गहनतम अनुभूति की सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति जब किसी अनुकृति के रूप में परिणित होती है तो वह अनुकृति हमारी संस्कृति और लोककला के प्रतीक के रूप में पहचानी जाती है। मानव मन की संवेदनशीलता की गहराई को इन प्रतीकों के माध्यम से समझना बेहद सरल और सुखद होता है।
 
कला की अभिव्यक्ति जब धर्म के माध्यम से की जाती है तब वह कृति पवित्र और पूजनीय हो जाती है। धर्म ने कला को गंभीरता दी है तो कला ने भी धर्म पर अपने सौंदर्य को न्यौछावर करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। धर्म का कलात्मक सौंदर्य और कला का धार्मिक स्वरूप पावन और गौरवशाली होता है। इसी खूबसूरत मिलन की देन है मालवा जनपद का एक मीठा व सौंधा सा पर्व संजा।
 
अपनी अनूठी व बेमिसाल लोक परंपरा व लोककला के कारण ही मालवा क्षेत्र की देश में एक विशिष्ट पहचान है, यहीं की गौरवमयी संस्कृति की सौम्य, सहज व सुखद अभिव्यक्ति का पर्व है - संजा!
 
संजा कुंवारी कन्याओं का अनुष्ठानिक व्रत है। राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में किंचित हेरफेर के साथ वही रूप परिलक्षित होता है, जो मालवा जनपद में विद्यमान है। आश्विन मास की प्रतिपदा से मालवा की कुंवारी कन्याएं इस व्रत का शुभारंभ करती है जो संपूर्ण पितृपक्ष में सोलह दिन तक चलता है। सोलह की संख्‍या में यूं भी किशोरियों के लिए पूर्णता की द्योतक होती है।
 
प्रतिदिन गोधूलि बेला में घर के बाहर दहलीज के ऊपर की दीवार पर या लकड़ी के साफ-स्वच्छ पटिए पर गोबर से पृष्ठभूमि लीपकर तैयार की जाती है, यह पृष्ठभूमि विशिष्ट आकार लिए होती है। चौकोर वर्गाकार आकृति के ऊपरी तथा दाएं-बाएं हिस्से में समरूप छोटे वर्ग रेखा के मध्य में बनाए जाते हैं।

सूर्यास्त से पूर्व संजा तैयार कर ली जाती है एवं सूर्यास्त के बाद आरती की तैयारी की जाती है। इन दिनों गोबर, फूल, पत्तियां, पूजन सामग्री प्रसाद इत्यादि के साथ-साथ मंगल गीतों को गाने के लिए सखियां जुटाती मालव बालाओं को सहज ही देखा जा सकता है।
 
बरखा के विदा होते हुए दिन और शरद के सुखदागमन के आहट देते दिन इस प्रकृति प्रधान पर्व संजा के श्रृंगार के लिए अ‍नगिनत रंगबिरंगे महकते प्रसाधन उपलब्ध करा देते हैं।

विवाहपर्यन्त इस व्रत को पालन करने वाली मालवकन्याएं इस व्रत पर अपनी अटूट आस्था, असीम श्रद्धा और अगाध भक्ति के साथ स्वयं की सुप्त कलात्मक अनुभूतियों को संपूर्ण शिद्दत से अभिव्यक्त करती है।
 
प्रतिपदा से आरंभ होकर अंतिम दिवस तक संजा विभिन्न मोहक आकृतियों को धारण करते हुए अपने पूर्ण निखार से पूरे वर्ष भर सहेज कर दीवार पर रखी जाती है। विवाहित कन्या ससुराल से लौटकर अगले वर्ष अपने हाथों से इसे निकालकर कतिपय अनुष्ठानों के साथ नदी में विसर्जित कर इस व्रत का उद्यापन करती है।
 
संजा की संपूर्ण कथा को जाने बगैर महज उसकी आकर्षक आकृतियों और मनभावन गीतों पर ही चर्चा करना पर्याप्त नहीं होगा। कन्याओं के इस अनुष्ठानिक पर्व की परंपरा में संजा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व और उसकी कारूणिक गाथा का आभास भी गुंफित है।
 
संजा के ऐतिहासिक मूल्यों का निर्धारण प्रमाणों के अभाव में यथातथ्य खरा नहीं उतरता। सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे भिन्न-भिन्न प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का अन‍ुमान है कि कहीं सांझी का ब्रह्मा की कन्या संध्या से किसी तरह का संबंध तो नहीं है?
 
कालकापुराण (विक्रम की दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी) के अनुसार एक विपरीत किंवदंती उभरती है कि संध्या व ब्रह्मा के समागम से ही 40 भाव और 69 कलाएं उत्पन्न हुईं।
 
उदीरितोन्द्रियों घाता विक्षांचक्रे यदाथ्ताम्।
तदैवह्नूनपन्चाराद् भावा जाता शरीरत:।।
विव्योकाद्यास्थता हावाश्चतु: षष्टिकला स्थना:
कन्दर्पशर विद्याया संध्यायांअभवान्दिविजा:
 
किंतु भाव एवं कला की उत्पत्ति मात्र से एवं नाम साम्य के कारण यह अनुमान भ्रामक होगा अत: सांझी का संध्या से किसी तरह का संबंध प्रतीत नहीं होता। संजा कौन थी? इस प्रश्न के उत्तर किशोरावस्था से भिन्न-भिन्न मिलते रहे हैं। कभी यह कि माता पार्वती ने भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त करने के लिए खेल-खेल में इस व्रत को प्रतिष्ठापित किया था, तो कभी यह कि कुंवारी कन्याओं को सुयोग्य वर प्राप्त हो एवं तदुपरान्त उसका भविष्य मंगलमय व समृद्धिदायक हो इसलिए सांगानेर की आदर्श कन्या संजा की स्मृति में यह व्रत किया जाता है।
 
संजा के सन्मुख गाए जाने वाले एक गीत से उसके इसी प्रकार के ऐतिहासिक पक्ष पर प्रकाश पड़ता है।
जीरो लो भई जीरो लो
जीरो लइने संजा बई के दो
संजा को पीयर सांगानेर
परण् पधार्या गढ़ अजमेर
राणा जी की चाकरी
कल्याण जी को देस
छोड़ो म्हारी चाकरी
पधारो व्हांका देस।
 
उक्त पंक्तियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सांझी का मायका सांगानेर नामक स्थान में है और विवाह अजमेर में हुआ है। सांगानेर कल्याण जी का देश है, जहां राणाजी की चाकरी होती है इसलिए विवाह के बाद कल्याण जी इसे अपनी सेवा से मुक्ति प्रदान कर ससुराल जाने का आग्रह करते हैं।
 
अन्य गीतों में प्रयुक्त प्रवृत्तियां मध्यकालीन सामंती वातावरण की पोषक है। बाल सुलभ चेष्टाओं द्वारा अन्य असंगत अतार्किक बातों को छोड़कर उन गीतों में देखें तो कई अन्य बातें और भी स्पष्ट हो जाती हैं। यथा-संजा का विवाह बचपन में हुआ है और वह सास के सम्मानजनक पद से अनभिज्ञ है अत: सखियों द्वारा खिझाने पर वह जवाब देती है -
ऐसी दुंगा दारी के चमचा की
काम करउंगा धमका से
मैं बैठूंगा गादी पे
उके बैठऊंगा खूंटी पे।
 
अत: यह भी स्पष्ट होता है कि संजा प्रतिष्ठित परिवार की पुत्री थी, जहां उसका पालन पोषण अत्यंत ऐश्वर्य और वैभव के मध्य हुआ होगा।
संजा तू बड़ा बाप की बेटी
तू खाए खाजा रोटी
तू पेने मानक मोती
पठानी चाल चाले
गुजराती बोली बोले...।
 
संजा के अंतिम दिन बनाए जाने वाले किलाकोट में राजपूत संस्कृति का पूरा प्रभाव है। मध्यकाल में किलाकोट के भीतर ही पूरा नगर बसा होता था, इसलिए जो किलाकोट बनाए जाते हैं। उनके पूर्ण प्रबंध का संकेत आकृतियों में होता है। किलाकोट में मीरा की गाड़ी बनाना आवश्यक समझा जाता है, इससे जिज्ञासा होती है कि कही संजा व्रत का संबंध मीरा के द्वारका गमन से तो नहीं?
 
संभवत: सांझी मालवा, ब्रज, राजस्थान आदि में घुमन्तू जातियों के आगमन द्वारा प्रचलित हुई और उसका मूल उद्‍गम अधिक संभव है अजमेर-सांगानेर से ही हुआ हो। यही लोकधारणाओं पर आधारित उसका ऐतिहासिक पक्ष है। किंतु उसके प्रचलन संबंधी कई प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं। प्रथम तो यही कि संजा का पितृपक्ष से क्या संबंध है? संजा का विवाह प्रसंग, इसकी सौभाग्यश्री एवं ससुराल पक्ष का उल्लेख सुंदर जीवन का द्योतक है लेकिन फिर श्राद्धपक्ष में उसे मनाए जाने की परंपरा क्या अर्थ रखती है?
 
विवाहिताएं अपने विवाह के प्रथम वर्ष के उपरांत इसे क्यों नहीं बनाती? श्री जोगेंद्र सहाय सक्सेना का अनुमान है कि इसका संबंध अनिष्ट से मालूम होता है और वह अनिष्ट संजा के विवाह होने के एक वर्ष के अंदर ही घटित हुआ हो। किंतु संजा के मंगल गीतों की आकर्षक भावाभिव्यंजना, रस स्निग्धता व सौभाग्य यही सिद्ध करते हैं कि संजा अपने समय की आदर्श, संस्कारशील सुकन्या रही होगी।
 
गीतों में मुखरित कल्याण कामना, माता-पिता, सास-श्वसुर, भाई-भावज, ननद, देवर-देवरानी और अंतत: ससुराल में ठाट-बाट से गमन आदि सभी मंगलसूचक हैं। संभव है कि अपने माता-पिता की लाड़ली होने के कारण उसके ससुराल चले जाने के बाद उन्होंने अपनी राज्य सीमा में संजा की स्मृति में कुंवारी कन्याओं का कोई त्योहार आरंभ किया हो, जिसने आगे चलकर अनुष्ठानिक महत्व प्राप्त कर लिया हो।
 
सांझी का ऐतिहासिक पक्ष ठोस प्रमाणों के अभाव में केवल लोकगीतों पर आधारित मात्र है फिर भी इतना स्पष्ट है कि इसमें बालिकाओं के भावी जीवन के लिए मंगलकामना और समृद्धि का संदेश है। संजा इसलिए सौभाग्य का आदर्श प्रतीक ही नहीं, उनके लिए सजीव व्यक्तित्व सदृश्य है। संजा के गीतों का मूल स्वभाव (बालवृत्तियों से युक्त होकर भी) आदर्श के प्रति श्रद्धापूरित है।
 
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रतिपदा से प्रारंभ होने वाले इस सुमधुर, सौम्य, सुरीले पर्व की गरिमा और उत्कृष्टता आधुनिकता के कांटों से बचकर आज भी अपनी महक, गमक और चमक को यथावत रखे हुए हैं। चाहे शहरी संस्कृति की ' कॉन्वेन्टेड' कन्या के लिए यह सब कुछ 'ऑड' हो लेकिन मालवा संस्कृति में पली-बढ़ी कन्या के लिए यह पर्व और विवाहोपरांत इस पर्व की इंद्रधनुषी स्मृतियां हमेशा ताजगी और मिठास का अहसास कराती है, कराती रहेंगी।

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