तुर्की के साथ हमारे कूटनीतिक संबंधों के प्रकट/अप्रकट पहलू

भारत ने पिछले सप्ताह तुर्की के विवादास्पद राष्ट्रपति एरडोगन की मेजबानी की। राष्ट्रपति एरडोगन विवादास्पद इसलिए कहे जाते हैं, क्योंकि वे निरंतर कार्यपालिका एवं न्यायपालिका से संबंधित अधिकारों को स्वयं में समेटते जा रहे हैं यानी अधिनायकवाद की ओर बढ़ते जा रहे हैं। इनके नेतृत्व में तुर्की धर्मनिरपेक्ष और उदारवाद से हटकर कट्टरपंथ की ओर बढ़ रहा है। प्रजातंत्र का गला घुंट रहा है। जो मध्यपूर्व आज लगभग तानाशाह रहित हो चुका है उसमें एक नए तानाशाह का उदय हो रहा है और पश्चिमी देशों के पास इस उभरते तानाशाह को रोकने के लिए कोई योजना नहीं है। तुर्की और एरडोगन के बारे में हम पहले भी इस कॉलम के माध्यम से पाठकों को समय-समय पर अवगत कराते रहे हैं। 
 
जहाँ तक भारत के साथ तुर्की के संबंधों का प्रश्न है, चीन के बाद तुर्की ही एक अकेला ऐसा देश है जो भारत की तुलना में पाकिस्तान से अधिक निकट है। भारत की न्यूक्लिअर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता का विरोध करने वाले चंद देशों में एक तुर्की भी था। चीन और तुर्की द्वारा भारत की एनएसजी सदस्यता का विरोध पाकिस्तान के दबाव की वजह से था, जबकि कुछ अन्य देश केवल सिद्धांतों के आधार पर भारत का विरोध कर रहे थे। यद्यपि भारत ने खुले दिल से एरडोगन की मेजबानी की किन्तु कुछ सतही समझौतों के अतिरिक्त इस दौरे में कुछ हासिल नहीं हुआ और ऐसी उम्मीद भी नहीं थी। 
 
आने से पहले ही पाकिस्तान को खुश करने के लिए राष्ट्रपति एरडोगन ने काश्मीर पर मध्यस्थता करने के बयान दे दिए थे। ये बयान निश्चित रूप से भारतीय कूटनीति के गले नहीं उतरे होंगे। भारत कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता है और क्योंकि यह उसके घर का मामला है, अतः उसके द्वारा किसी की भी मध्यस्थता स्वीकार करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, तुर्की का तो बिलकुल नहीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिसका घर जल रहा हो वह दूसरे के घर में अंगीठी बुझाने के लिए मध्यस्थता करने की बात कर रहा है। तुर्की प्रशासन ने जिस तरह अपने ही नागरिकों, विशेषकर कुर्दो का  दमन कर रखा है और उन पर किसी भी तरह के हथियारों के इस्तेमाल से परहेज नहीं करता, हास्यास्पद है कि वह आज हमें सीख दे रहा है। चूँकि कुर्दों का यहाँ सन्दर्भ आया है इसलिए कुर्दों के बारे में थोड़ा सा जान लेते हैं। 
 
कुर्द जाति संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। दक्षिणपूर्वी तुर्की, उत्तरी सीरिया, उत्तर पश्चिमी ईरान और उत्तरी इराक मिलकर एक वृहद् क्षेत्र बनाते हैं जिसमें कुर्दों का निवास है।  दुनिया में कुर्द तीन करोड़ से अधिक होने के बावजूद इनका अपना कोई राष्ट्र नहीं है। तुर्की में तो लगभग बीस  प्रतिशत कुर्द हैं किन्तु हर देश की तरह यहाँ भी वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं। अतः कुर्द अपने अधिकारों के लिए तुर्की प्रशासन से दशकों से लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में कुर्दों के भी कई समूह बन गए हैं। एक समूह जो उग्रवाद में विश्वास रखता है और संघर्ष कर कुर्द राष्ट्र बनाना चाहता है उसको सभी पश्चिमी देशों ने आतंकवादी समूह घोषित कर रखा है किन्तु तुर्की ने तो शांति से अपने अधिकारों की मांग करने वाले कुर्द संगठनों को भी आतंकवादी घोषित कर रखा है और उन पर हर प्रकार के हथियारों का इस्तेमाल और अत्याचार करता है जिसे पश्चिमी देश पसंद नहीं करते। इतना ही नहीं कुर्दों के एक समूह को तो अमेरिका का समर्थन प्राप्त है और अमेरिका के सहयोग से वह आतंकी संगठन इसिस के साथ जमीनी युद्ध लड़ रहा है। तुर्की, इसिस के विरुद्ध लड़ रहे इन कुर्दों पर भी बम से गिराने से बाज नहीं आता। 
 
अब चूँकि तुर्की ने कुर्दों को आतंकी संगठन घोषित कर रखा है, अतः उसे भारत के साथ आतंकी संगठनों की निंदा के प्रस्ताव पर कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि इस प्रस्ताव में उसका उल्लू भी सीधा होता है। इसलिए भारत के साथ उसने आतंकी संगठनों के विरुद्ध साझा प्रस्ताव पारित कर दिया। प्रश्न यह है कि इस यात्रा से तुर्की का पाकिस्तान द्वारा आतंकी संगठनों को पोषित करने की नीति पर कोई नजरिया बदलता है या नहीं अन्यथा यह यात्रा मात्र एक औपचारिकता ही रहेगी। इसके बावजूद भी हमारी धारणा है कि भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के साथ दीर्घकालीन पारस्परिक सम्बन्ध बनाए रखने की हर विकसित या विकासशील राष्ट्र की अन्तर्निहित चाहत रहेगी भले ही वह ऊपरी तौर पर पाकिस्तान जैसे दिवालिया देशों के साथ खड़ा नज़र आए। हमारा विश्वास है कि भारत और तुर्की के कूटनीतिक रणनीतिकार अंदरुनी तौर पर इन्ही संबंधों के विकास की ओर प्रयत्नशील होंगे। कूटनीति में कई बार जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं। 

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