चीनी हठधर्मिता के विरुद्ध भारत द्वारा आत्मशक्ति का प्रदर्शन

शरद सिंगी
भारतीय सेना पिछले माह की 16 जून से भारत, चीन और भूटान की सीमाओं के संगम क्षेत्र डोकलाम में चीनी सेना की आँखों में आँखें डालकर खड़ी है। चीनी मीडिया और चीन के विदेश विभाग की लगातार युद्ध की धमकियाँ भारतीय फ़ौज पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहीं है। शायद यह पहला अवसर है जब भारत ने चीन के विरुद्ध इस तरह का कड़ा रुख अपनाया है। यहाँ महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भारत, चीन का सामना अपने लिए नहीं बल्कि अपने मित्र देश भूटान की सीमाओं की रक्षा के लिए कर रहा है और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब भारत की जमीन पर नहीं अपितु भूटान और चीन के बीच की विवादित जमीन पर हो रहा है। अब यह जानना जरुरी है कि इस तीसरे देश के लिए भारत को चीन जैसे देश से पंगा लेने से क्या लाभ?
 
पूरा विश्व जानता है चीन के सीमा विवाद चीन की सीमा से लगे हर देश के साथ हैं जैसे वियतनाम, फिलीपींस, ताइवान,  दक्षिण कोरिया, कज़ाख़स्तान, ब्रुनेई इत्यादि। अपनी सीमा से सटे सभी छोटे देशों पर चीन का रवैया धौंसियाना है और वह  उनकी जमीनों को हड़पने का कोई मौका नहीं छोड़ता। चीन अपनी इसी आक्रामक नीति की वजह से विश्व में बदनाम है। इसलिए चीन के कुछ पड़ोसी छोटे देशों को तो अमेरिका की शरण में जाना पड़ा और उसके साथ रक्षा समझौते करने पड़े। नेपाल और भूटान भी उन्हीं छोटे देशों की श्रेणी में आते हैं। तिब्बत को तो चीन पहले ही हजम कर चुका है। भारत के अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम पर भी उसकी नज़रें हैं। भूटान जैसे देश को चीन एक दिन में ही रौंद सकता है। ऐसे में भारत का भूटान के लिए खड़ा होना एक अत्यंत साहस और समझदारीपूर्ण कदम है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के इस कदम से भारत के प्रति नेपाल और भूटान का विश्वास मजबूत होगा। 
 
चीन की दादागिरी से परेशान अन्य छोटे देश भी इस गतिरोध को अवश्य देख रहे होंगे और यह घटना उनमें आत्मविश्वास का संचार करेगी कि चीन के विरुद्ध खड़ा होने के लिए किसी भय की आवश्यकता नहीं। उल्लेखनीय बात यह है कि भारत इस समय इस गतिरोध का कोई ढिंढोरा नहीं पीट रहा याने अपनी ओर से वह कोई भी ऐसा काम नहीं कर रहा जिससे तनाव बढे। कमजोर के लिए खड़े होने के  भारत के इस निर्णय को विश्व में सराहना ही मिलेगी। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भूटान की सुरक्षा के पीछे भारत को अपनी सुरक्षा का भी ध्यान है क्योंकि भूटान, भारत और चीन के बीच एक बफर देश का काम भी करता है।  
 
यदि भारत की यह सांकेतिक रणनीति सफल होती है तो भारत का एक स्पष्ट संकेत और सन्देश कई देशों को जाएगा। सर्वप्रथम तो पाकिस्तान को कि चीन के भरोसे उसे उछलने या अपनी हदों को पार करने की आवश्यकता नहीं है। अपने आका के हाल देखकर उसे अपनी औकात समझ में आ गई होगी। यहाँ यह बात भी समझ लेना आवश्यक है कि चीन से युद्ध की स्थिति में भारत की ओर से लड़ने कोई नहीं आने वाला किन्तु चीन की साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध लड़ रहे जापान और दक्षिण कोरिया का समर्थन भारत को जरूर मिल सकता है। अमेरिका और रूस की भूमिका भी तटस्‍थ होगी किन्तु दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी से परेशान अमेरिका का झुकाव भारत की ओर ही रहेगा।   
 
भारत ने स्पष्टतौर पर जतला दिया है कि उसकी रीढ़ की हड्डी सीधी है। एक माह से अधिक से चल रहे इस गतिरोध का परिणाम जो भी हो, भारत पहले ही कूटनीतिक विजय पा चुका है और यदि अब पीछे भी हटना पड़ा तो उसके उद्देश्य पूरे हो चुके हैं क्योंकि पहले तो भारतीय सेना, चीन और भूटान के बीच की विवादित जमीन पर खड़ी है जो भारत की जमीन नहीं है। इसलिए यदि भारत पीछे भी हटता है तो भारत को नुकसान नहीं होता है किन्तु यदि चीन इस जोराजोरी में आगे या पीछे होता है तो उसे दोनों तरफ से नुकसान है। पीछे जाता है तो उसकी भद है और भूटान के खिलाफ आगे बढ़ता है तो थू थू। 
 
चीन के पास अपनी सर्वोच्‍चता सिद्ध करने के लिए भारत के साथ सीमित युद्ध के अतिरिक्त कोई तरीका नहीं है, किन्तु युद्ध की स्थिति में उसे लाभ से अधिक नुकसान हैं। चीन यदि भारत पर हमला करता है तो भारत के लिए चीन के उत्पादों पर क़ानूनी प्रतिबन्ध लगाना आसान हो जाएगा जो भारत अभी नहीं कर सकता क्योंकि आपसी व्यापार पर ऐसी कोई भी पाबन्दी अंतरराष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध है। चीनी उत्पादों पर प्रतिबन्ध चीन की अर्थव्यवस्था पर बहुत बड़ी चोट होगी जो  पहले ही नाजुक स्थिति से गुजर रही है। दूसरा, चीन इस समय विश्व मंच पर अपनी भूमिका को नायक के रूप में देखना चाहता है। ऐसा कोई भी युद्ध उसकी इस महत्वाकांक्षा पर कुठाराघात होगा। 
 
इसलिए जरुरी है चीन, भारत के साथ बैठकर कोई शांतिपूर्ण हल निकाल ले जिसमें सबकी भलाई है। इस लेख के लिखे जाते समय भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल चीन में ही थे जो भारतीय पक्ष को और इस विवाद से चीन को होने वाले व्यापक नुकसान को रेखांकित कर रहे होंगे जिसका निश्चय ही कोई अनुकूल प्रभाव पड़ेगा। और फिर भी यदि चीन अपनी हठधर्मिता पर अड़ा रहता है तो ऊपर किए गए विश्लेषण के अनुसार भारत की हानि से अधिक उसकी ही हानि होनी है। 
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