कांग्रेस की दुर्दशा का इससे बड़ा प्रमाण कुछ नहीं हो सकता है कि इस समय उसके बारे में जो भी नकारात्मक टिप्पणी कर दीजिए सब सही लगता है।
केंद्रीय नेतृत्व यानी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा जो दांव लगाते हैं वही उल्टा पड़ जाता है। कन्हैया कुमार को पार्टी में शामिल कराना भी एक दांव है। जिग्नेश मेवानी ने केवल विधायकी बचाने के लिए कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण नहीं की है, अन्यथा वे भी कांग्रेसी हो गए।
कांग्रेस का दुर्भाग्य देखिए कि उसने कन्हैया और जिग्नेश को पार्टी का अंग बनाने की पत्रकार वार्ता को व्यापक रूप देने की रणनीति बनाई लेकिन पंजाब का घटाटोप भारी पड़ गया। राहुल गांधी पत्रकार वार्ता से अलग रहे और पंजाब के बारे में पूछे गए प्रश्नों का जवाब दिए बिना 24 अकबर रोड से बाहर निकल गए। जो धमाचौकड़ी कांग्रेस में पिछले डेढ़ वर्ष से मची है वह फिर मुखर रूप में सामने आ रहा है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ही जिस तरह नेहरू इंदिरा परिवार के विरुद्ध आवाज उठा रहे हैं वैसा कांग्रेस के इतिहास में देखा नहीं गया। पंजाब का पूरा मामला राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने मिलकर तय किया इसलिए जो कुछ हो रहा है उसकी जिम्मेवारी उनके सिर जाती है। लेकिन पंजाब, छत्तीसगढ़ या राजस्थान कांग्रेस के व्यापक संकट की सतह पर दिखती प्रवृत्तियां भर हैं।
कन्हैया और जिग्नेश को कांग्रेस में लाने के पीछे की सोच भी इसी संकट से जुड़ी है। राजनीतिक दल में असंतोष, विद्रोह अंतर्कलह अस्वाभाविक नहीं है। नेतृत्व की भूमिका उनके कारणों को ठीक से समझ कर सही निर्णय लेने की होनी चाहिए। कांग्रेस नेतृत्व इन दोनों भूमिकाओं में विफल साबित हो रहा है। उसके द्वारा उठाए समाधान के कदम नए संकट के कारण बनते हैं। इसमें यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कन्हैया और जिग्नेश कांग्रेस में व्याप्त महासंकट के समाधान के वाहक बनेंगे या भविष्य में उसकी वृद्धि के कारण?
कांग्रेस पर नजर रखने वाले जानते हैं कि इन दोनों को पार्टी में लाने का सुझाव चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर का था। उनके साथ इनकी बैठक हुई थी। पहले यह सोचे कि इनको पार्टी में लाने के पीछे की दृष्टि क्या है? यूपीए सरकार के समय से ही सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद में वामपंथियों या उनकी विचारधारा से जुड़े एक्टिविस्टों- बुद्धिजीवियों का समूह शामिल था। उनका प्रभाव भी सरकार पर देखा गया। राहुल गांधी उन सबसे प्रभावित थे और उनकी भाषा बदलती गई।
उनके सलाहकारों का एक चुनाव विश्लेषण यह है कि कांग्रेस के चुनावी पतन का बड़ा कारण मुसलमानों और दलितों के बीच व्यापक जनाधार का लगभग खत्म हो जाना है। इन दोनों समूहों को जहां भी कांग्रेस से अलग राजनीतिक विकल्प मिलता है वहां उसके साथ जाते हैं। दूसरे, भाजपा के विरुद्ध बड़ा वर्ग विचारधारा के स्तर पर ऐसे राजनीतिक दल या गठबंधन को समर्थन देता है या देना चाहता है जिसमें भाजपा को हराने की क्षमता दिखाई दे।
जेएनयू में अफजल गुरु के समर्थन में लगे नारे के आरोपी कन्हैया कुमार संयोगवश उसी लिबरल सेकुलर वामपंथी धारा का एक चेहरा बन चुके हैं। जिग्नेश मेवानी दलित होने के साथ उसी धारा से आते हैं। प्रशांत किशोर शायद यह सोच रहे हैं कि इन दोनों को आगे लाकर कांग्रेस अपने इस खोए जनाधार को पाने के साथ भाजपा के विरुद्ध एक पार्टी या मोर्चा की तलाश करने वाले लोगों के आकर्षण का केंद्र बन सकती है।
कांग्रेस के साथ वामपंथी धारा के लोगों का संबंध नया नहीं है। 1967 में 8 राज्यों में कांग्रेस की पराजय तथा संविद सरकारों के गठन के बाद इंदिरा गांधी ने वामपंथी धारा के लोगों को महत्व दिया और उस सोच के तहत कई कदम उठाए। 1975 में आपातकाल लगाने का तत्कालीन भाकपा ने समर्थन किया था।
1977 के चुनाव में भी भाजपा का कांग्रेस को समर्थन मिला था। भाजपा के उभार के बाद माकपा की अगुवाई में सेक्यूलरवाद को बचाने के नाम विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिशों की ही परिणति 2004 में यूपीए थी। शायद राहुल, प्रियंका और सोनिया वैसा फिर कुछ हो जाने की उम्मीद कर रहे हैं किंतु तब और आज के कालक्रम और राजनीतिक वर्णक्रम में व्यापक परिवर्तन आ चुका है।
1970 के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर विशेष विचारधारा का वाहक भाजपा जैसी सशक्त पार्टी नहीं थी। दूसरे, वामपंथी विचारधारा को अपनाना या उनको परदे के पीछे वैचारिक थिंक टैंक के रूप में महत्व देना व राजनीतिक समर्थन पाना एक बात है और किसी को एक प्रमुख चेहरा बनाकर पार्टी में लाना दूसरी बात। कन्हैया हो या जिग्नेश दोनों की छवि वैचारिक प्रतिबद्धता वाले वामपंथी की नहीं है। जिग्नेश को दलितों का व्यापक समर्थन भी नहीं है।
आप इससे सहमत हो नहीं हो, एक बड़ा वर्ग कन्हैया के लिए देशद्रोही शब्द प्रयोग करता है। इस शब्दप्रयोग के अनुचित मानने वाले हैं पर बड़े समूह की धारणा ऐसी है तो उसका राजनीतिक परिणाम उसी रूप में आएगा। वास्तव में उनके विरूद्ध व्यापक ध्रुवीकरण होना निश्श्चत है। इस धारा के भाजपा विरोधी लोगों का पूरा जमावड़ा बेगूसराय में हुआ। बावजूद कन्हैया बुरी तरह लोकसभा चुनाव हारे।
भाकपा से अलग होने के बाद कन्हैया की छवि वामपंथी धारा में भी बिगड़ी है। प्रश्न उठाया जा रहा है किजो व्यक्ति जेएनयू में माकपा की छात्र इकाई का नेता रहा, अध्यक्ष बना, जिसने मार्क्स, लेनिन, माओ की वकालत की उसे इस विचारधारा का वाहक कांग्रेस कैसे दिख गया? यह प्रश्न नावाजिब नहीं है। कांग्रेस को भी इन प्रश्नों से दो-चार होना पड़ेगा। जिन्होंने कन्हैया को लालू से लेकर नीतीश कुमार तक के पास जाते देखा और उनके कारणों को जाना है वे उन पर विश्वास नहीं कर सकते। इन दोनों की भाषा और तेवरों को कांग्रेस के परंपरागत नेता, कार्यकर्ता, समर्थक आसानी से गले नहीं उतार पाएंगे।
किसी भी पार्टी का वैचारिक और अभिव्यक्ति के स्तर पर संपूर्ण रूपांतरण संभव नहीं है और ऐसा करना वर्तमान क्षरण की प्रक्रिया को ज्यादा तीव्र करेगा। नवजोत सिद्धू के हाथों पंजाब संगठन की कमान देने के बाद के कड़वे अनुभव को देखते हुए कांग्रेस के प्रथम परिवार के सामने फिर आत्मंथन का अवसर आया। आत्ममंथन करें तो भविष्य में किसी निर्णय के पूर्व व्यापक विमर्श की आवश्यकता दिखाई देती।
प्रशांत किशोर को ज्यादा महत्व देने या कन्हैया और मेवानी को पार्टी में लाने का विरोध करने वाले सभी वरिष्ठ एवं अनुभवी नेता हैं। हालांकि इनमें किसी ने कांग्रेस के उद्धार की कोई ग्राह्य रूपरेखा सामने नहीं रखी है। इनकी मूल छटपटाहट सत्ता से वंचित होने तथा लंबे समय तक सत्ता में वापसी की संभावना नहीं दिखने के कारण पैदा हुई।
बावजूद इनके प्रश्नों और सुझावों को किसी दृष्टिकोण से गलत नहीं कहा जा सकता। पार्टी की एकमात्र चिंता उसके पुनर्जीवन की होनी चाहिए न कि किसी व्यक्ति, परिवार या व्यक्तियों के समूह को बनाए रखने की। दुर्भाग्य से लगातार पार्टी के पतन के बावजूद कांग्रेस का एक वर्ग उन सबको पार्टी विरोधी करार देने पर तुला है जो नेतृत्व और उनके निर्णयों पर प्रश्न उठाते हैं, कार्यसमिति की बैठक बुलाने या चुनाव कराकर राष्ट्रीय अध्यक्ष से नीचे तक निर्वाचन की मांग कर रहे हैं।
कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, मनीष तिवारी, भूपेंद्र सिंह हुड्डा आदि कांग्रेस विरोधी हो गए, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। जिस तरह कपिल सिब्बल के घर पर प्रदर्शन हुए, अंडे, केले के छिलके और पत्थर फेंके गए, अभद्र नारे लगाए गए वह बताता है कि कांग्रेस के अंदर संगठन से ज्यादा एक परिवार के प्रति भक्ति दिखाने का आत्मघाती भाव बना हुआ है। पी चिदंबरम जैसे वरिष्ठ नेता को कहना पड़े कि मैं इस हालात में असहाय महसूस कर रहा हूं तो इससे बड़ा प्रमाण पार्टी के दुर्दिन का नहीं हो सकता।
क्या परिवार पार्टी को संभालने तथा इसको अपरिहार्य वैचारिक और सांगठनिक पुनर्जीवन देने में सक्षम नहीं हो पा रहा है इसे प्रमाणित करने की आवश्यकता है? कांग्रेस लगातार चुनावों में बुरे प्रदर्शन का शिकार क्यों हो रही है? शीर्ष पर आप हैं, निर्णय का सूत्र आपके हाथों हैं तो पार्टी में टूट और सिकुड़ते जनाधार की जिम्मेवारी किसके सिर जाएगी?पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह नई पार्टी बनाकर कांग्रेस के खिलाफ ताल ठोकने जा रहे हैं तो क्यों? छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सतत विद्रोह का हल न निकलने का कारण क्या है? परिवार के निकटतम माने जाने वाले नेता लगातार पार्टी से बाहर क्यों जा रहे हैं? ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर जितेंद्र प्रसाद, लुइजिन्हो फलेरियो, शर्मिष्ठा मुखर्जी, अभिजीत मुखर्जी, हेमंत विश्व शर्मा आदि क्यों बाहर जाने को मजबूर हुए? हेमंतो ने पार्टी छोड़ते समय राहुल गांधी के व्यवहार के बारे में जो कुछ कहा क्या वह गलत था? जी23 या अन्य वरिष्ठ नेता न उस तरह बोल रहे हैं न पार्टी छोड़ रहे हैं।
बावजूद उन सबको कांग्रेस विरोधी घोषित कर देना विनाश काले विपरीत बुद्धि का ही द्योतक है। कन्हैया और जिग्नेश कांग्रेस के संकट और नेतृत्व पर उठ रहे प्रश्नों के पीछे के कारणों के समाधान में कोई भूमिका निभा सकते हैं ऐसा मान लेना बेमानी होगा। कल चुनावों में सफलता न मिलने पर ये भी प्रश्न नहीं उठाएंगे या पार्टी नहीं छोड़ेंगे इसकी गारंटी नहीं है। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)