महाराणा प्रताप की वीरता को नजरअंदाज करता इतिहास

#मेवाड़... हिन्दुस्तान के इतिहास का वो पन्ना जिसने कभी भी भारी-भरकम फौज वाले मुगलों की अधीनता या पराजय स्वीकार नहीं की...! #शौर्य #दिलेरी और #जांबाजी जिसके लहू के कतरे-कतरे में रही... अंग्रेज इतिहासकार टॉड ने लिखा कि पूरी दुनिया के इतिहास में वीरता की ऐसी नायाब मिसालें बहुत कम दिखाई दी हैं... क्या आपने कभी पढ़ा है कि हल्दी घाटी के बाद अगले 10 साल में मेवाड़ में क्या हुआ?
 
इतिहास से जो पन्ने हटा दिए गए हैं, उन्हें वापस संकलित करना ही होगा, क्योंकि वे ही हिन्दू रेजिस्टेंस और शौर्य के प्रतीक हैं।
 
इतिहास में तो ये भी नहीं पढ़ाया गया है कि हल्दी घाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फौज 5-6 कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुन: युद्ध में सम्मिलित हुई है। ये वाकया अबुल फजल की पुस्तक अक़बरनामा में दर्ज है।
 
क्या हल्दी घाटी अलग से एक युद्ध था? या एक बड़े युद्ध की छोटी-सी घटनाओं में से बस एक शुरुआती घटना? 
महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दी घाटी तक ही सीमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। वास्तविकता में हल्दी घाटी का युद्ध महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था। मुगल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर आधिपत्य जमा सके। हल्दी घाटी के बाद क्या हुआ, वो हम बताते हैं।
 
हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7,000 सैनिक ही बचे थे और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुंदा, उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था। उस स्थिति में महाराणा ने 'गुरिल्ला युद्ध' की योजना बनाई और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में सेटल नहीं होने दिया। महाराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दी घाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच 1-1 लाख के सैन्यबल भेजे, जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे।
 
हल्दी घाटी युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के 25 लाख रुपए और 2,000 अशर्फियां लेकर हाजिर हुए। इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई। भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया, उससे 25,000 सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी। बस फिर क्या था? महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40,000 लड़ाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गई।
 
उसके बाद शुरू हुआ हल्दी घाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है। इसे 'बैटल ऑफ दिवेर' कहा गया गया है।
 
बात सन् 1582 की है। विजयादशमी का दिन था और महाराणा ने अपनी नई संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया। उसके बाद सेना को 2 हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया। एक टुकड़ी की कमान स्वयं महाराणा के हाथ में थी और दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमरसिंह कर रहे थे।
 
कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दी घाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है। ये वे ही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द-गिर्द आप 'फिल्म 300' देख चुके हैं। कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है, जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूं ही टकरा जाते थे।
 
दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था। महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमरसिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया। हजारों की संख्या में मुगल, राजपूती तलवारों, बरछों, भालों और कटारों से बिंध दिए गए। 
युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुगल को बरछा मारा, जो सुल्तान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया। उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काटकर निकल गई।
 
महाराणा प्रताप ने बहले खान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। शौर्य की यह बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती है। उसके बाद यह कहावत बनी कि 'मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है'। ये घटनाएं मुगलों को भयभीत करने के लिए बहुत थीं। बचे-खुचे 36,000 मुगल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण किया।
 
दिवेर के युद्ध ने मुगलों का मनोबल इस तरह तोड़ दिया जिसके परिणामस्वरूप मुगलों को मेवाड़ में बनाई गई अपनी सारी 36 थानों व ठिकानों को छोड़कर भागना पड़ा। यहां तक कि जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातोरात खाली कर भाग गए।
 
दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा, कुम्भलगढ़, बस्सी, चावंड, जावर, मदारिया, मोही, मांडलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़कर मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए।
 
अधिकांश मेवाड़ को पुन: कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला कि अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुगलों को हासिल (टैक्स) देगा, तो उसका सिर काट दिया जाएगा। इसके बाद मेवाड़ और आसपास के बचे-खुचे शाही ठिकानों पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मंगाई जाती थी।
 
दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलों के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा। मुट्ठीभर राजपूतों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलों के हृदय में भय भर दिया। दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलों में ऐसे भय का संचार कर दिया कि अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए।
 
इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग-अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। अकबर खुद 6 महीने तक मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आसपास डेरा डाले रहा, लेकिन ये महाराणा प्रताप द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चिर देने का ही डर था कि वो सीधे तौर पर कभी मेवाड़ पर चढ़ाई करने नहीं आया।
 
ये इतिहास के वे पन्ने हैं जिनको दरबारी इतिहासकारों ने जान-बूझकर पाठ्यक्रम से गायब कर दिया है जिन्हें किअब वापस करने का प्रयास किया जा रहा है।
 

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