मोरबी त्रासदी से सबक ले देश

अवधेश कुमार
morbi bridge collapse
 
गुजरात के मोरबी पुल की त्रासदी ने पूरे देश को हिला दिया है। इस घटना की कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मच्छु नदी पर बनाया सस्पेंशन ब्रिज यानी झूलने वाला पुल पर्यटकों के आकर्षण का बड़ा कारण था। लेकिन कौन जानता था वहां पहुंचे लोगों में बड़ी संख्या के लिए अंतिम दिन होगा। पुल टूटा और नीचे नदी में 15 फीट के आसपास पानी था, जिसमें लोग डूबते चले गए। 
 
किसी भी त्रासदी में दो सौ लोगों का अंत हो जाना सामान्य घटना नहीं होती। गुजरात जैसे प्रदेश में जहां बचाव और राहत की मजबूत टीमें है, वहां इतनी संख्या में लोगों की मृत्यु बताती है की घटना कितनी विकराल थी। वहां एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के साथ तैराकों, दमकलों व वायु सेना के कमांडों, रेस्क्यू नावें आदि सब कुछ होने के बावजूद दूसरे दिन भी लापता लोगों का पता नहीं लग सका और इस कारण मृतकों की संख्या बताना कठिन हो गया। रात्रि में बचाव ऑपरेशन करना लगभग मुश्किल था।

राजकोट के भाजपा सांसद मोहन कुंदरिया के परिवार के 12 लोगों की जान इसमें चली गई। पता नहीं और ऐसे कितने परिवार होंगे जिनके लिए यह संपूर्ण जीवन भर के लिए त्रासदी साबित होगी।
 
ध्यान रखिए कि यह प्राकृतिक आपदा नहीं है। न बाढ़ आया न तूफान और निरपराध लोग जान गंवा बैठे। पुल के रखरखाव की जिम्मेदारी वाले ओरेवा ग्रुप पर गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज हो गया है। जांच के लिए समिति भी बना दी गई है। कहा जा सकता है कि अंतिम निष्कर्ष के लिए समिति की रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। निस्संदेह, इस समय आप किसी भी कारण को खारिज नहीं कर सकते। 
 
देश विरोधी ताकतें जिस तरह हिंसा और दुर्घटना पैदा करने के लिए षड्यंत्र कर रहे हैं, उसमें चुनाव वाले गुजरात जैसे संवेदनशील प्रदेश में शंका की उंगली उठना बिलकुल स्वाभाविक है। आखिर ये शक्तियां भीड़भाड़ वाले जगहों पर अपने तरीके से ऐसी कोशिश करती हैं जिनमें ज्यादा से ज्यादा लोग हताहत हो। हालांकि अभी तक ऐसा कोई पहलू नहीं दिखा जिससे षड्यंत्र नजर आए। अभी तक की जानकारी इतनी है कि पुल कमजोर था। दुर्घटना के पहले के वीडियो में दिख रहा है कि कुछ लोग उसके केबल के कमजोर होने का मजाक उड़ा रहे हैं। कुछ उसको हाथ पैरों से मार रहे हैं। कोई कह रहा है कि देखो यह कितना कमजोर है, जो कभी भी टूट सकता है। 
 
करीब डेढ़ सौ वर्ष पुराना पुल कमजोर और जोखिम भरा था, तभी मरम्मत के लिए 6 महीना पहले बंद कर दिया गया था। ओरोवो ग्रुप ने इसकी मरम्मत की तथा 26 अक्टूबर को आम लोगों के लिए खोला गया यानी 4 दिन पहले खुला और पांचवें दिन 30 अक्टूबर को शाम को पुल टूट गया। यह कैसे संभव है कि एक मान्य कंपनी पुल की मरम्मत में इतनी कोताही बरते कि वह 4 दिन भी न चल पाए? 
 
वहां के नगर निगम का कहना है कि उस पुल की क्षमता 100 लोगों की है लेकिन 500 से 1000 के आसपास लोग उस पर इकट्ठे थे। 765 फीट लंबा यह पुल केवल 4.5 फीट चौड़ा है। जाहिर है, यह जिस काल में बनाया गया उस समय के लिए उपयुक्त हो सकता है। बावजूद इतने लंबे पुल के लिए केवल 100 लोगों की क्षमता और वह भी आज की स्थिति में, जब तबसे जनसंख्या वृद्धि कई गुनी हो चुकी है।

बताता है कि संख्या की दृष्टि से वह जो कौन था। आम हालांकि लोगों का कहना है कि बंद होने के पहले भी पुल पर काफी संख्या में लोग रहते थे, बहुत दिनों के बाद पुल खुला था इस कारण भी संख्या ज्यादा थी। साथ ही छठ पूजा होने के कारण भी लोग चले आए थे। तो पहला कारण यही नजर आता है कि संख्या से ज्यादा लोगों के खड़े होने के कारण फूल वजन नहीं सह सका और टूट गया। तो निर्धारित संख्या से ज्यादा लोग आए क्यों? 
 
चश्मदीद बता रहे हैं कि कुछ लोग पुल को हिला रहे थे और उसकी शिकायत कर्मचारियों से की गई लेकिन वे टिकट काटने में व्यस्त रहे। वास्तव में अगर कारण वही है जो अभी दिख रहा है तो कहा जा सकता है कि निर्धारित संख्या तक ही टिकट काटा जाता तथा समय सीमा तय कर लोगों को बाहर निकाल कर फिर नए लोगों को प्रवेश कराया जाता तो यह हादसा नहीं होता। इतने पुराने पुल पर तय संख्या से ज्यादा टिकट काटकर लोगों को जाने दिया गया। यह तो दुर्घटना को निमंत्रण देने जैसा व्यवहार था। 
 
हादसे के बाद का वीडियो दिखा रहा है कि पुल टूटने के बाद लोग उस भाग में भी बचने के लिए छटपटा रहे हैं जो पानी में जा रहा है। लोग पुल पर फंसे हुए हैं लेकिन उनके तात्कालिक बचाव के लिए कोई उपाय नहीं है। जाहिर है, इस तरह का कोई हादसा हो सकता है इसकी कल्पना न किए जाने के कारण तात्कालिक बचाव और राहत के पूर्वोपाय नहीं किए गए थे। नगर निगम और ओरोवा कंपनी दोनों को इसका जवाब देना चाहिए। 
 
नगर निगम का तर्क है कि फिटनेस सर्टिफिकेट लिए बिना ही कंपनी ने चालू कर दिया। यह हैरत कि बात है कि नगर निगम की सहमति के बगैर केवल कंपनी ने पुल को खोल दिया होगा। स्पष्ट है कि मोरबी के अधिकारी सच नहीं बोल रहे। मेंटेनेंस करने वाली कंपनी को यह अधिकार नहीं होता कि वह जब चाहे पुल बंद कर दे और जब चाहे खोल दे। कंपनी प्रशासन को रिपोर्ट दे सकती है और फैसला प्रशासन का ही होता है। अगर इसके पीछे कोई षड्यंत्र नहीं है तो कंपनी के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन व नगर निगम को भी इसके लिए उत्तरदायी मानना होगा। आखिर इतने लोगों की जान चली जाए, सैकड़ों परिवार तबाह हो जाएं, अनेक बच्चे अनाथ तथा महिलाएं विधवा व पुरुष विधुर हो जाएं और उसके लिए केवल मेंटेनेंस करने वाली कंपनी को जिम्मेवार मानना एकपक्षीय फैसला होगा। 
 
इस घटना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में भी देखने की आवश्यकता है। यह पुल 20 फरवरी 1879 को जनता के लिए खोला गया था। तब मुंबई के गवर्नर रिचर्ड टेंपल ने इसका उद्घाटन किया था। यह सामान यातायात का मुख्य पुल नहीं था। लेकिन हमारे देश में सामान्य यातायात वाले प्राचीन पुलों की संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसा नहीं है कि किसी की मरम्मत नहीं होती। समय-समय पर अनेक पुलों की मरम्मत होती रहती हैं।

बावजूद आप देखेंगे कि ऐसे पुलों की संख्या हजारों में है जिनको देखने से ही लगता है कि कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है। हम आप जान जोखिम में डालकर उस पर चलते हैं। गाड़ियां चलती हैं। यही नहीं उसके बाद के और हमारे आपके समय के बने हुए भी हजारों पुलों, फुट ओवरब्रिजों, फ्लाई ओवरों, सब पर नजर दौड़ाई जाए तो अनेक हादसे की स्थिति में जाते हुए दिखेंगे। 
 
राजधानी दिल्ली में ऐसे कई फुट ओवरब्रिज हैं, जो कभी भी बड़े हादसे के कारण बन सकते हैं। वास्तव में पुलों, फुट ओवर ब्रिजों, पैदल पार पथों आदि को लेकर संबंधित विभाग को जितना सतर्क और चुस्त होना चाहिए वह प्रायः नहीं दिखता। जब बड़ी घटनाएं होती हैं तो हाय तौबा मचता है लेकिन कुछ समय बाद फिर वही स्थिति। कोई उससे सबक लेकर अपने यहां के पुलों की समीक्षा नहीं करता। 
 
जाहिर है, मोरबी त्रासदी पूरे देश के लिए चेतावनी होनी चाहिए। हर श्रेणी के पुलों तथा फ्लाई ओवरों की गहन समीक्षा होनी चाहिए। सभी राज्य इसके लिए आदेश जारी कर एक निश्चित समय सीमा के अंदर समीक्षा रिपोर्ट मंगवाए और उसके अनुसार जहां जैसी मरम्मत या बदलाव की जरूरत हो वो किया जाए।


समीक्षा हो तो ऐसी अनेक पहलू निकलेंगे जिन्हें तत्काल बंद करने का ही विकल्प दिखाई देगा। कुछ ऐसे पुल हैं जिन्हें तोड़कर नए सिरे से बनाना होगा। समस्या को टालने से वह और विकराल होती है। जो समस्या सामने है उनका समाधान भविष्य का ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।

मोरबी त्रासदी ने हम सबको झकझोरा है लेकिन अगर देश ने इसे सबक नहीं लिया तो ऐसी त्रासदी बार-बार होती रहेगी। स्वयं मोरबी और राजकोट प्रशासन को आगे यह निर्णय करना होगा कि पुल को रखा जाए या नहीं और नहीं रखा जाए तो इसका विकल्प क्या हो सकता है। 

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