पर सोचिए न, क्या हुआ जो मृत्यु है जीवन भी तो है, क्या हुआ जो बंधन है, मुक्ति भी तो है, क्या हुआ जो घर से निकल नहीं सकते, क्या हुआ जो आवाजों का शोर नहीं है, हंसी, खिलखिलाहटों का दौर नहीं है.... हमारे मन के आंगन के उत्सव तो हमारे हाथ में हैं ना... क्या हुआ जो रंगबिरंगे चौराहे नहीं है, घर का कच्चा-पक्का आंगन तो है न...क्या हुआ जो मंदिरों में भक्तों का सैलाब नहीं है, मन के भीतर तो भक्ति का सैलाब उमड़ रहा है न...