दुखी मन से कैसे हो नया साल मुबारक...!

2016 खत्म हुआ है और 2017 की शुरुआत हो चुकी है। वैसे तो सिर्फ तारीख ही बदली है, नया कुछ नहीं है। पर इसे हम-आप मिलकर आपसी प्रयासों से नया बना सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे बसंत में पेड़-पौधे पुराने पत्ते त्याग देते हैं, खुद में बदलाव के लिए संघर्ष करते हैं, तप करते हैं। तब क्या उन्हें भी दुख नहीं होता होगा अपने उन पत्तों को त्यागते हुए, जो बीते लगभग एक साल उस वृक्ष का हर मौसम में साथ देते रहे? बारिश में भीगते रहे, ठंड में कांपते और गर्मी में तपते रहे हैं। पर बदलाव प्रकृति का नियम है। इसे न तो रोका जा सकता है और न ही इसमें कोई बदलाव लाए जा सकते हैं। हां, इस सिद्धांत के साथ जिया जा सकता है। खुद में बदलाव ला कर। संघर्ष करके, अतीत को भूलकर नहीं, उससे सीखकर आगे बढ़ा जा सकता है। 
जैसा कि हम जानते हैं, 2016 में हमने बहुत कुछ पाया है, तो उससे भी ज्यादा हमने खोया है। दुखों का जो सैलाब अपने सपनों में भी नहीं देखा था, उसे हमने भोगा है। बेशक उसे भुलाया भी नहीं जा सकता क्योंकि कहा भी गया है कि - 'मनुष्य को बाहर सीखने की उतनी जरूरत नहीं जितनी कि वह अपने अतीत की पाठशाला से सीख सकता है।' तो हमें अपनी उन्हीं गलतियों से सीख लेने की जरुरत है, जिसके गुजरने के बाद उस तरफ देखना भी हमने जरूरी नहीं समझा।
 
हमें जानना होगा कि हमारे देश की शांति, एकता और संप्रभुता पर गहरा कुठाराघात क्यों हुआ? क्यों सैनिकों की हत्याएं होती रहीं और हम बुत बने रहे? क्यों हमारा किसान आत्महत्याएं करता रहा? क्यों चंद वहशी दरिंदों के हाथ हमारी बच्चियों, युवतियों और महिलाओं के आंचल तक जाते रहे? क्यों सांप्रदायिकता की आढ़ लेकर कई राज्यों में राम-रहमान जैसे लोगों को मौत के घाट उतारा जाता रहा और क्यों एक के बाद एक ट्रैन हादसे होते रहे? 
 
पर यह नया वर्ष मात्र ऐसे प्रश्न उठाने का बस नहीं है। यह नया वर्ष श्रद्धांजलि अर्पित करने का है। बेघरों-बेसहराओं को सहारा देने का है। बच्चियों, युवतियों और महिलाओं की रक्षा में एक भाई-एक पुत्र के खड़े होने का है। एक किसान बन खेतों की और जवान बन सीमाओं की रक्षा करने का है। यह वर्ष सांप्रदायिक होने का नहीं बल्कि राम-रहमान बन एक दूसरे को गले लगाने का है। यह वर्ष परायों को भी अपना बनाने का है।
 
आज जब 2016 विदा हो रहा है और नये साल की नई सुबह की पहली किरण धरती पर उतर रही है तो लग रहा है कि आंखों से आंसू विदा हो रहे हों, जिसके बाद स्वभाविक रूप से आंखें साफ हो जाएंगी। काल की घटाएं छट जाएंगी, जिसके बाद नव जीवन के नव सूर्य का उदय होगा। जिसका प्रकाश अपनों के वियोग में मुरझा चुके चेहरों में क्रांति व तेज का प्रवाह कर देगा। जिससे वे चेहरे पुनः चमक उठेंगे, दमक उठेंगे। वे सारी विसंगतियां खत्म हो जाएंगी, विषमताओं को तिलांजलि दी जाएगी और आपसी विद्रोह के स्वर सम्भवता निर्विवाद शांत हो जाएंगे और इस बड़े लोकतंत्र में जनतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हो उठेगी। इसी विश्वास के साथ आप सभी को नववर्ष मंगलमय हो।

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