राजनीतिक कटुता बढ़ाने से बचे विपक्ष

Jagdeep Dhankhar controversy: रक्षा मंत्री राजनाथसिंह पूरा जतन कर रहे हैं कि विपक्ष राज्यसभा के सभापति जगदीप घनखड़ के खिलाफ अपना अविश्वास प्रस्ताव वापस ले ले। राजनाथसिंह के बहाने केंद्र सरकार की इस चिंता और कोशिश से इसलिए सहमत हुआ जाना चाहिए, क्योंकि राज्यसभा सभापति का पद पदेन होता है और उक्त सभापति मूलतः देश का उपराष्ट्रपति होता है, जो कि संविधान के अनुसार देश का दूसरा सबसे बड़ा पद है।

गौरतलब यह भी है कि भारत के संसदीय इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि विपक्ष अपने सभापति यानी उपराष्ट्रपति के खिलाफ ही अविश्वास प्रस्ताव लाया हो। ऐसा आजादी के बाद पहले कभी नहीं हुआ और तो और 1975 से लेकर 77 के बीच जब लगभग 22 महीनों के लिए देश में आपातकाल लगा था, तब भी राज्यसभा के तत्कालीन सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का कोई नोटिस नहीं दिया गया। उन दिनों तो तानाशाही चरम पर थी।
 
आम आदमी ने विपक्ष को 10 साल बाद यह मौका दिया है कि वो देश के लोकतंत्र को मजबूत करे, लेकिन यदि राज्यसभा की कार्यवाही में लगातार अवरोध पैदा किए जाकर अविश्वास प्रस्ताव लाया जाएगा, तो विपक्ष की स्थिति जनता की नजरों में ऊंची नहीं होगी बल्कि इससे राजनीतिक कटुता ही बढ़ेगी। भारत में जो संसदीय प्रणाली अपनाई गई है, उसके तहत देश से संबंधित हर छोटे_ मोटे मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष की बहस जरूरी है, लेकिन बात बात पर संसद की कार्यवाही में विपक्ष द्वारा अड़ंगे डाले जाते रहे, तो सरकार आखिर करेगी क्या? मान लिया कि संसद चलाना सरकार का दायित्व है, किंतु इस काम में विपक्ष की भी कोई सकारात्मक भूमिका है या नहीं? सारे विरोधी दल संसद का उसी तरह अनिवार्य अंग हैं, जैसे सरकार में बैठे लोग।
 
खासकर कांग्रेस से सवाल लाजिमी लगता है कि वो तो देश की सबसे पुरानी पार्टी है! फिर वो इतना अपरिपक्व रवैया क्यों अपना रही है? पता हो कि देश का संसदीय ताना- बाना बुनने में कांग्रेस की अहम भूमिका रही है। पूरा जहान भारत को लोकतंत्र की मां या जननी कहता है, लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र में विपक्ष ने जो हुड़दंग मचा रखा है, उसके कारण दुनिया भारत के लोकतंत्र को मदारी का खेल समझ रही है।
 
विपक्ष को ज्ञात होना चाहिए कि सरकार के पास इतना संख्या बल तो है कि वो विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को आसानी से गिरा देगी। ऐसे में एक नई और निरर्थक कवायद से विपक्ष को आखिर हासिल क्या होगा। विपक्ष यहां इसलिए भी गच्चा खा रहा है क्योंकि उसने इस मामले में पर्याप्त होमवर्क ही नहीं किया। इसी के चलते उसका यह प्रयास बचकाना सिद्ध हो रहा है। यदि फायदा मिला तो वो सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार को ही मिलेगा। विपक्ष को करना यह चाहिए था कि वह अपनी शिकायत राष्ट्रपति के पास ले जाता, लेकिन तमाम विरोधी दल इस हठयोग के शिकार हैं कि वे तो नो कॉन्फिडेंस मोशन बिल लाकर ही रहेंगे। भले ही उसमें शिकस्त मिले।
 
विरोधी दलों के लिए यह एक अदूरदर्शिता पूर्ण ही नहीं, बल्कि आत्मघाती कदम भी ही सकता है, क्योंकि वोटर यदि बोलते नहीं हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें कुछ समझता नहीं। यदि विपक्ष को जनता की निगाह में फिर चढ़ते जाना है तो कई राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद 19वीं लोकसभा चुनाव (2029) को देखते हुए उसके पास पर्याप्त समय है। वोटर्स ने पिछले लोकसभा चुनाव में विपक्ष को फिर एक बार इसलिए मौका दिया है कि वो परंपरागत मुद्दों के लिए संसद में बहस करे। वर्ना तो संसदीय कार्यवाही में जनता की ही गाढ़ी कमाई ही बेजा खर्च होगी। (यह लेखक के अपने विचार हैं, वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है) 
 

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