कभी हैसियत का पैमाना होता था पानदान

Paandaan was once a measure of status: कभी पानदान किसी के खानदान की हैसियत का पैमाना होता था। हैसियत के अनुसार यह सोने, चांदी, लोहे या स्टील का हो सकता था। यह तबकी बात है जब पान का बीड़ा कूचने का मतलब सार्वजनिक रूप से किसी चुनौती को कबूल करना होता था।
 
फिल्मी दुनियां भी थी पान की दीवानी : फिल्मी दुनियां तो पान की दीवानी ही थी। पान को लेकर कई कालजई गीत लिखे गए। मसलन- पान खाए सैंया हमारो, सांवरी सुरतिया और होंठ लाल..., खईके पान बनारस वाला, खुल जाए बंद अकल का ताला..'।
 
ससुराल से आए पानदान की होती थी अलग अहमियत : तब ससुराल से आने वाले पानदान की अलग अहमियत होती थी। पानदान सिर्फ अकेले नहीं आता था। साथ में सुपारी काटने के लिए सरौता, पान की पीक थूकने के लिए उगलदान भी होता था। पानदान के अलग-अलग खानों में पसंद का जर्दा, सुगंधित तंबाकू, लौंग, इलायची, कत्था और चूना के साथ पान लगाने के लिए एक पतला सा रोलर भी होता था। नवाबों के समय में तो ससुराल से हर महीने खर्चा ए पानदान मिलता था। कुछ साल पहले बारात के जनवास से लेकर किसी भी आयोजन, पर्व हो पान उसका अनिवार्य हिस्सा होता था। संपन्न लोग तो पान वाले को ही बुला लेते थे। अब भी शादी ब्याह में कई लोग ऐसा ही करते हैं।
 
अब न पानदान रहे, न पान की डोलची : समय के साथ पानदान की जगह पान की डोलची ने ले ली। अब न पानदान रहा न पान की डोलची। अलग अलग ब्रांड के गुटके भारी पड़े। जमाना इसका है। फाड़ो खाओ और चलते बनो। अलग से पान पर चूना, कत्था लगाने, सरौता से सुपारी काटने और पान का बीड़ा लगाने का लफड़ा कौन पाले। इस सबके बावजूद पान की शान अलग है। पान की तरह अब तक गुटके को लेकर न कोई न मुहावरा बना न फिल्मी गीत। अलबत्ता इनके विज्ञापनों की मीडिया पर भरमार है।

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