गांव बिगड़ने लगा

थक-हारकर सर्विस लेन की बेंच पर गांधीजी बैठ गए। अपने जमाने का नक्शे का परचा निकाला व कुछ देखा। एक-दो राहगीरों से पूछा- भैया, यहां फलां गांव हुआ करता था। कहां है? एक-दो ने दिमाग खाएगा, सोचकर किनारा कर लिया। कुछ मिले भी तो उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। गांधीजी ने सिर पकड़ लिया। मेरा भारत गांवों में बसता था। आज तो गांव ही गायब हो गया। गांधीजी बरसों पहले जिस गांव को हरा-भरा पर्यावरण से भरपूर, सर्वधर्म समभाव, भाईचारा, प्रेम, अध्यात्म, विज्ञान, सदाचार, अनुशासन आदि-इत्यादि गुणों से युक्त कर गए थे वही गांव आज गांधीजी को नहीं मिल रहा था। गांधीजी का स्वच्छ निर्मल गांव आज पता नहीं कहां खो गया था।
 
जंगल नष्ट-बढ़ता प्रदूषण
 
जिस गांव के चारों तरफ जंगल थे, हरियाली थी, किसी का कुछ पता नहीं। विदेशी पेड़-पौधे शोपीस बने थे, जो खुद ही छाया के लिए तरस रहे थे। जगह-जगह सीमेंट-कांक्रीट की इमारतें। गुणात्मक विधि से बढ़ती आबादी ने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति का अधिकांश रूप से दुरुपयोग व दोहन किया, फलस्वरूप आज तक की स्थिति में लगभग 75 प्रतिशत गांवों के आसपास के जंगल नष्ट हो गए। शहरी विकास की छाया ने गांवों में भी पसरना शुरू किया, फलस्वरूप जहां फलदार-छायादार पेड़-पौधे थे वहां सीमेंट-कांक्रीट फैल गया। रही-सही कसर अपशिष्ट पदार्थों आदि ने पूरी कर दी। रासायनिक और अन्य तरह का कचरा शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी आतंक मचाने लगा।
 
विकास/मतभेद-मनभेद में बढ़ोतरी
 
गांवों की सभ्यता, संस्कृति, प्राकृतिक वातावरण यानी निच्छलता, नि:स्वार्थ, भाईचारा, प्रेम व सद्भाव शनै:-शनै: शहरी संस्कृति से रूबरू होने पर धराशायी होने लगे और स्वार्थता ने अपनी पैठ शुरू कर दी। विशुद्ध ग्रामीण भारतीय को हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई बना दिया गया। हां, ये जरूर है कि गांव वालों को शिक्षा का अवसर दिया गया, उनके स्वास्थ्य की चिंता रखी गई और भी कई विकास कार्यक्रम भी हुए। जिन गांवों में बिजली सपना थी, वहां बिजली पहुंची।
 
मगर भौतिक विकास के विरुद्ध आत्मिक विकास में शहर की प्रदूषित संस्कृति ने भी डेरा डाल लिया। इसी वजह से आज गांव में भी खरामा-खरामा ये देखा जा सकता है कि जिस घर में भोजन कराए बिना जाने नहीं देते थे, आज उस घर के मेजबान कहते हैं कि 'पानी से काम चल जाएगा?' विकास हुआ है, मगर लोगों के दिलों का विकास ह्रास गति में चला गया यानी अब गांव भी शहर के साथ कंधा मिला रहे हैं। गांव भी अब बिगड़ते जा रहे हैं।

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