लोग आज भी खोज रहे हैं ‘कोडवर्ड के रहस्‍य’ के साथ जमीन में गढ़ी ‘वीरप्‍पन’ की दौलत

चंदन की तस्‍करी में सबसे कुख्‍यात और बड़ा नाम। 150 से ज्‍यादा हत्‍याएं। कई दशकों तक आतंक। यह सब अगर एक साथ देखा जाए तो एक ही नाम जेहन में आता है वीरप्‍पन। 

आतंक का पर्याय बन चुके इस चंदन माफि‍या को पकड़ने के लिए कर्नाटक और तमिलनाडु की पुलिस लंबे वक्त तक ख़ाक छानती रही। लेकिन वो आंखों में ऐसी धूल झोंकता था कि दशकों तक पुलि‍स के हाथ नहीं आया। ठीक इसी तरह से उसके अपराधों के बल पर एकत्र की गई उसकी दौलत का आज तक कोई पता नहीं लगा पाया।

वीरप्‍पन ने अपने अपराध और आतंक के बल पर करीब 3 हजार करोड़ की संपत्‍त‍ि बनाई। कहा जाता है कि आज भी लोग वीरप्‍पन की संपत्‍ति‍ को जंगलों में खोजते हैं, लेकिन वो उस दौलत को कुछ ऐसे छुपाकर गया कि उसे खोजना आज भी मुमकीन नहीं हो सका।

वीरप्पन के बारे में कहा जाता है कि उसकी जितनी भी काली कमाई थी वो उसे एक ख़ास तरह के ‘कोडवर्ड’ के साथ जमीन में दबा देता था, यह कोडवर्ड खुद वीरप्पन या उसके कुछ खास करीबी लोगों को ही पता होता था।

वीरप्‍पन का असली नाम कूज मुनिस्वामी वीरप्पन था, जो चन्दन की तस्करी के साथ-साथ हाथी दांत की तस्करी भी करता था। उसे पकड़ने के लिए सरकार ने करीब 20 करोड़ रुपये खर्च किए थे। 2004 में वीरप्पन पुलिस एनकाउंटर में मारा गया।

दरअसल, वीरप्पन पहली बार 1987 में तब सुर्खियों में आया, जब उसने चिदंबरम नाम के एक फॉरेस्ट अफसर को अगवा कर लिया था। इसके बाद उसने पुलिस के एक पूरे समूह को ही बम से उड़ा दिया। जिसमें 22 लोग मारे गए। इसके बाद 1997 में वीरप्पन ने सरकारी अफसर समझकर दो लोगों का अपहरण किया था। लेकिन वो दोनों फोटोग्राफर निकले। वो लोग वीरप्पन के साथ 11 दिन रहे। छूटकर आने के बाद उन दोनों ने वीरप्पन के बारे में हैरान करने वाले खुलासे किए थे।

दोनों फोटोग्राफर ने बताया था कि वीरप्पन हाथियों को लेकर बेहद भावुक था। उसने फोटोग्राफरों को बताया था कि जंगल में जो कुछ होता है, उसके लिए उसे जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, जबकि इस काम में जंगल में 20-25 और भी गैंग काम करती थी। उन्‍होंने बताया था कि वीरप्पन खाली वक्त में नेशनल ज्योग्रॉफिक मैगजीन पढ़ा करता था।

वीरप्‍पन पर शि‍कंजा कसने के लिए 2003 में विजय कुमार नाम के अधिकारी को एसटीएफ का चीफ बनाया गया था। विजय कुमार इसके पहले भी वीरप्पन को पकड़ने की नाकाम कोशिश कर चुके थे। इस बार अलग तरह की योजना बनाई गई। वीरप्पन की गैंग में लोग कम हो रहे थे, इसी का फायदा उठाकर उन्‍होंने पुलिस के लोगों को वीरप्‍पन की गैंग में शामिल करवा दिया।

18 अक्टूबर 2004 को वीरप्पन अपनी आंख का इलाज कराने जा रहा था। जंगल के बाहर पपीरापट्टी गांव में उसके लिए एक एंबुलेंस खड़ी थी। वो उसी में सवार था। वीरप्पन को इस बात का अंदाजा नहीं था कि वो एंबुलेंस पुलिस की है। उसे एसटीएफ का ही एक आदमी चला रहा था। पुलिस बीच रास्ते में जाल बिछाकर बैठी थी। अचानक ड्राइवर ने रास्ते में एंबुलेंस रोक दी और वो उसमें से उतरकर भाग गया। इससे पहले कि वीरप्पन कुछ समझ पाता। पुलिस ने एंबुलेंस पर चारों तरफ से गोलियां बरसा दीं। फायरिंग में वीरप्पन मारा गया।

एक अनुमान के मुताबिक वीरप्पन ने हाथी दांत, चंदन की तस्करी और किडनैपिंग के जरिये करीब 3 हजार करोड़ की दौलत कमाई थी। लेकिन एसटीएफ या सरकार को वीरप्पन की इस कमाई से आज तक कुछ नहीं मिल सका है। कहा जाता है कि कई गांवों के लोगों ने उसके खजाने का ढूंढने की कोशिश की। वीरप्पन अपनी सारी संपत्ति जमीन में दबाकर रखता था। जंगल में कई जगह गड्डे खोदे जाते और उसके अंदर अनाज के साथ रुपए, जेवरात आदि दबाकर रखता था। इन ठिकानों को याद रखने के लिए वो एक खास कोडवर्ड बनाता था, जो उसे और उसके कुछ साथियों को पता होते थे। वीरप्पन की मौत के बाद कोई भी अब तक उन खजानों को खोज नहीं पाई है।

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