अब रेल्वे में वीआईपी संस्कृति पर अंकुश

ललि‍त गर्ग
रेल मंत्री ने रेलवे में वीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए जो आदेश जारी किया वह सराहनीय एवं स्वागत योग्य है, देश में वीवीआईपी कल्चर को खत्म करने के नरेंद्र मोदी के संकल्प की क्रियान्विति की दिशा में यह एक उल्लेखनीय कदम है। इस निर्णय से रेल्वे प्रशासन की एक बड़ी विसंगति को न केवल दूर किया जा सकेगा, बल्कि ईमानदारी एवं प्रभावी तरीके से यह निर्णय लागू किया गया तो समाज में व्याप्त वीआईपी संस्कृति के आतंक से भी जनता को राहत मिलेगी। अभी देश में वीआइपी संस्कृति कोरे आदेशों में समाप्त हुई है, व्यवहार में जिस दिन यह समाप्त होगी, देश का कायाकल्प दिखाई देगा। भले ही कीमती कारों से लालबत्ती गायब हो गई हो, लेकिन आज भी धौंस जमाते तथाकथित छुटभैये नेता जिस तरह से कहर बनकर जनता को दोयम दर्जा का मानते रहे हैं, उससे मुक्ति मिलना अभी बाकि है। ऐसा होने से ही राजनीति में अहंकार, कदाचार एवं रौब-दाब की विडंबनाओं एवं दुर्बलताओं से मुक्ति का रास्ता साफ होगा। इससे साफ-सुथरी एवं मूल्यों पर आधारित राजनीति एवं प्रशासन-व्यवस्था को बल मिलेगा।
 
रेल मंत्री पीयूष गोयल के इस आदेश से यह भी स्पष्ट होता है कि विशिष्ट व्यक्तियों के वाहन में लालबत्ती के इस्तेमाल को रोकने के फैसले से वीआईपी संस्कृति का पूरी तौर पर खात्मा नहीं हुआ है। इसके अनेक प्रमाण भी रह-रहकर सामने आते रहते हैं। कभी कोई मंत्री हवाई यात्रा के दौरान विशिष्ट सुविधा की मांग करता दिखता है तो कभी कोई सुरक्षा के अनावश्यक तामझाम के साथ नजर आता है। इस सबसे यही इंगित है कि वीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए अभी और कई कदम उठाने होंगे। ऐसे कदम उठाने के साथ ही यह भी देखना होगा कि कहीं पिछले दरवाजे से वीआईपी संस्कृति वाले तौर-तरीके फिर से तो नहीं लौट रहे हैं। ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि हमारे औसत शासक अभी भी सामंती मानसिकता से ग्रस्त नजर आते हैं। 
 
जैसे ही नेतागण सत्ता की ऊंची कुर्सी हासिल करते हैं, वे खुद को विशिष्ट दिखाने के लिए तरह-तरह के जतन करने में लग जाते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति शीर्ष नौकरशाहों की भी है। नए भारत में इस तरह के अनुशासित, अहंकारमुक्त, स्वयं को सर्वोपरि मानने की मानसिकता से मुक्त जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। अंग्रेजों द्वारा अपनी अलग पहचान बनाए रखने की गरज से ऐसी व्यवस्था लागू की गई थी, जिसका आंखें मूंदकर हम स्वतंत्र भारत में पालन किए जा रहे थे। यह समझना कठिन है कि रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अथवा सदस्यों के दौरे के समय रेलवे महाप्रबंधकों के लिए उनकी अगवानी के लिए उपस्थित होना क्यों आवश्यक था? यह आश्चर्यजनक है कि इससे संबंधित नियम पिछले 36 सालों से अस्तित्व में था और इसके पहले किसी ने भी उसे खत्म करने की जरूरत नहीं समझी। यह अच्छी बात है कि रेलमंत्री ने इस अनावश्यक व्यवस्था को खत्म करने के साथ ही अन्य अनेक अनुकरणीय फैसले भी लिए हैं। इन फैसलों के तहत अब किसी अधिकारी को कभी भी गुलदस्ता और उपहार नहीं दिए जाएंगे। रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों को केवल दफ्तर में ही नहीं बल्कि घर पर भी इस तरह की पाबंदी का पालन करना होगा। इसके साथ ही करीब तीस हजार वे कर्मचारी अब रेलवे की सेवा में लगेंगे जो अभी तक रेल्वे के अधिकारियों के यहां घरेलू सहायक के तौर पर काम कर रहे थे। 
 
एक रेल्वे ही नहीं ऐसे अनेक केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभाग है जिनके लाखों कर्मचारी अपने अधिकारियों के यहां घरेलू सहायकों के रूप में कार्य करते हैं, उनके यहां भी इस तरह की वीआईपी संस्कृति को समाप्त किया जाना नितांत अपेक्षित है। अच्छा यह होगा कि केंद्र सरकार और साथ ही राज्य सरकारों के स्तर पर सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी विभाग के अधिकारी कर्मचारियों को घरेलू सहायक के रूप में इस्तेमाल न करें। चूंकि वीआईपी संस्कृति के तहत खुद को आम लोगों से अलग एवं विशिष्ट दिखाने की मानसिकता ने कहीं अधिक गहरी जड़ें जमा ली हैं इसलिए उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए हर स्तर पर सक्रियता दिखानी होगी। कई लोग सत्ता एवं संपन्नता के एक स्तर तक पहुंचते ही अफण्ड करने लगते हैं और वहीं से शुरू होता है प्रदर्शन का ज़हर और आतंक। समाज में जितना नुकसान परस्पर स्पर्धा से नहीं होता उतना प्रदर्शन से होता है। प्रदर्शन करने वाले के और जिनके लिए किया जाता है दोनों के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं वे निश्चित ही सौहार्दता एवं समता से हमें बहुत दूर ले जाते हैं। अतिभाव और हीन-भाव पैदा करते हैं और बीज बो दिए जाते हैं शोषण, कदाचार और सामाजिक अन्याय के। अब यदि आजादी के बाद से चली आ रही वीआईवी संस्कृति की इन विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने की ठानी है तो जनता को शकुन तो मिलेगा ही और इसके लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बधाई के पात्र है।
 
वीआईपी संस्कृति ने जनतांत्रिक और समतावादी मूल्यों को ताक पर ही रख दिया था। हर व्यवस्था कुछ शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों को विशिष्ट अधिकार हासिल होते हैं, इसी के अनुरूप उन्हें विशेष सुविधाएं भी मिली होती हैं। जिस अधिकारी या व्यक्ति को वीआईपी की सुविधा मिली थी, उनके पारिवारिकजन एवं मित्र आदि इस रौब या वीआईपी होने का दुरुपयोग करने लगे। आम जनता से हटकर एक खास मनोवृत्ति को प्रतिबिंबित करने का जरिया बन गई यह वीआईपी संस्कृति। अपने रुतबे का प्रदर्शन और सत्ता के गलियारे में पहुंच होने का दिखावा - इस तरह सत्ता का अहं अनेक विडंबनापूर्ण स्थितियां का कारण बनती रही। अपने को अत्यंत विशिष्ट और आम लोगों से ऊपर मानने का दंभ एक ऐसा दंश या नासूर बन गया जो तानाशाही का रूप लेने लगा। जनता को अधिक-से-अधिक सुविधा एवं अधिकार देने की मूल बात कहीं पृष्ठभूमि में चली गई और राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी कई बार अपने लिये अधिक सुविधाओं एवं अधिकारों से लैस होते गए। शासन एवं राजनीति की इस बड़ी विसंगति एवं गलतफहमी को दूर करने का रास्ता खुला है जो लोकतंत्र के लिए एक नई सुबह है। क्योंकि राजनीति एवं प्रशासन में आम लोगों के विश्वास को कायम करने के लिए इस तरह के कदम जरूरी है। सत्ता का रौब, स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान का गणित हर वीआईपी पर छाया हुआ है। सोच का मापदंड मूल्यों से हटकर निजी हितों पर ठहरता रहा है। यही कारण है राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की बात उठना ही बंद हो गई। जिस नैतिकता, सरलता, सादगी, प्रामाणिकता और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही, सामाजिक व्यवस्था बनी रही, जीवन व्यवहार चलता रहा वे आज लुप्त हो गए हैं। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था आज हमने उसे तार-तारकर खूंटी पर टांग दिया था। मानों वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब इतिहास की चीज हो गई। लेकिन अब बदलाव आ रहा है तो संभावनाएं भी उजागर हो रही हैं। लेकिन इस सकारात्मक बदलाव की ओर बढ़ते हुए समाज की कुछ खास तबकों को भी स्वयं को बदलना होगा। राजनेताओं की भांति हमारे देश में पत्रकार, वकील आदि ऐसे वर्ग है जो स्वयं को वीआईपी से कम नहीं समझते। इन लोगों के लिए भी कुछ नियम बनने चाहिए।
 
वस्तुतः वीआईपी संस्कृति नहीं, एक कुसंस्कृति हो गई है और एक बुरी संस्कृति के रूप में इसका विस्तार हो जाने का ही यह दुष्परिणाम है कि शीर्ष पदों पर बैठे नेता एवं नौकरशाह आम लोगों की समस्याओं के समाधान करने को लेकर आवश्यक संवेदनशीलता का परिचय देने से इंकार करते हैं। जब तक शासक वर्ग स्वयं को आम जनता से अलग एवं विशिष्ट मानता रहेगा तब तक जनसमस्याओं के समाधान की प्रक्रिया शिथिल ही रहने वाली है। यह आवश्यक हो जाता है कि रेल मंत्री ने अपने विभाग में वीआइपी संस्कृति को खत्म करने के लिए जैसे कदम उठाए वैसे ही कदम अन्य सभी मंत्री भी उठाएं।
 
असली मुद्दा राजनीति एवं प्रशासन में सेवा, सादगी एवं समर्पण के लिए आने वाले लोगों का नहीं बल्कि ऐसे अति विशिष्ट बने व्यक्तियों का है जो राजनीति में आते ही प्रदर्शन, अहंकार एवं रौब गांठने के लिए है और ऐसे ही लोग जोड़-तोड़ करके वीआईपी सुविधाएं जुटा लेते थे और फिर समाज, प्रशासन व पुलिस में अपना अनुचित प्रभाव जमाते थे। ऐसे लोग तो सड़कों पर आतंक एवं अराजकता का माहौल तक बनाने से बाज नहीं आते थे। इसकी आड़ में असामाजिक तत्व भी ऐसे कारनामे कर जाते थे जिनसे कानून-व्यवस्था की रखवाले पुलिस तक को बाद में दांतों के नीचे अंगुली दबानी पड़ती थी। ऐसे ही वीआईपी कभी टोलकर्मी को थप्पड़ मार देते हैं, तो कोई एयरपोर्ट अधिकारी को थप्पड़ मारकर ही अपने आपको शहंशाह समझ रहा है, इन हालातों में कैसे वीआईपी की मानसिकता से इन राजनेताओं को मुक्ति दिलाई जा सकती है? यह शोचनीय है। 

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