NIA की स्पेशल कोर्ट ने 2006 में हुए मालेगांव ब्लास्ट के आठ आरोपियों को रिहा कर दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक कोर्ट ने रिहाई के आधार में एक बात ये भी कही कि आरोपी खुद मुस्लिम हैं और वो अपने ही लोगों को मारकर दो गुटों में सांप्रदायिक सौहार्द्र कैसे बिगाड़ सकते हैं। वो भी एक ऐसे दिन जब शब ए बारात जैसा समय चल रहा हो।
कर्नल पुरोहित, असीमानंद और अन्य के खिलाफ भी अब कोई सबूत नहीं होने की बात सामने आ रही है। जब सबूत और मॉडस ऑपरेंडी सामने रखने के बाद सिमी के कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया गया तो बिना सबूतों और बिना पुख्ता भूमिका जाने कथित भगवा आतंकवाद को जन्म देने वालों के नाम सामने आने चाहिए। यूं तो अपने बयानों से शिंदे, दिग्विजय सिंह और चिदंबरम पहले ही यूपीए सरकरा की मंशा को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं लेकिन एनआईए कोर्ट के मालेगांव के आरोपियों को बरी करने के बाद इस मंशा के कई खतरनाक पहलू भी सामने आ रहे हैं। एनआईए की स्थिति यूपीए ने न घर की न घाट की करके रख दी है। अपनी कठपुतली बनाकर एनआईए से जांच करवाई गई। एटीएस महाराष्ट्र को भी अपनी पुरानी जांच से पलटना पड़ा। नए सिरे से जांच कहने के बजाए इसे नई स्क्रिप्ट कहना सही होगा। अब गवाहों के आधार पर बुनी गई इस स्क्रिप्ट के कई किरदार ये साफ करते जा रहे हैं कि कैसे जबरदस्ती उनसे वो बुलवाया गया जो उस वक्त जांच एजेंसियां सुनना चाहती थी।
एनआईए की जांच ने एटीएस पर भी सवाल खड़े कर दिए। एटीएस की पूरी थ्योरी ही पलट दी गई और इसीलिए सिमी के इन कार्यकर्ताओं को रिहा करते हुए कोर्ट ने एटीएस की जांच पर सवाल उठाते हुए कहा कि एटीएस ने अपनी जिम्मेदारियों को गलत तरीके से पूरा किया। ये भी कहा गया कि बिना मोटिव के इस घटना को कैसे अंजाम दिया जा सकता है। मुस्लिम बहुल इलाके में मुस्लिमों का ज्यादा तादाद में मारा जाना आतंकियों के लिए कोई मोटिव नहीं हो सकता था। ये तो साफ है कि आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता। सिमी एक ऐसा संगठन है जो देश में रहकर ही यहां के हालात को समझते हुए अपनी रणनीति बनाता है। मुस्लिमों को मारना भी देश के सांप्रदायिक सौहार्द्र को बिगाड़ने वाला ही कदम दिखाई पड़ता है।
अब सवाल ये उठता है कि क्या मुस्लिम बहुल इलाके में धमाके करना भी एक रणनीति का ही हिस्सा था? मालेगांव, अजमेर शरीफ, हैदराबाद और समझौता ये ऐसे धमाके थे जो एक के बाद एक होते गए और इनमें ज्यादातर मारे गए मासूम मुस्लिम ही थे। इसने देश के सांप्रदायिक माहौल को ज्यादा खराब किया। दरअसल ये जहां आतंकियों की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे थे वहीं ये भी सवाल उठ रहे थे कि क्या कुछ हिंदू अतिवादियों ने ये काम किया है क्यूंकि कई ऐसे अति उत्साही हिंदू नेता सामने आते रहे जो कई बार अपनी जुबान पर सार्वजनिक जगहों तक पर काबू नहीं कर पाए और बम का जवाब बम से देने की बात कहते रहे। गुस्सा होना और गुस्से में बेतुकी बातें कहना ये बहुत सामान्य बात है। रेप की घटनाओं के बाद जिंदा जला देना चाहिए, सरेआम काट देना चाहिए, मुझे मिले तो मैं हत्या कर दूं जैसी बेतुकी बातें सहज ही कई लोगों के मनोभाव से होते हुए जुबान पर आ जाती है। ऐसे ही हिंदू संगठनों के नाम पर अपने संगठन चला रहे कुछ लोगों के मीटिंग्स में दिए गए बयानों के आधार एनआईए ने अपना पूरा केस सजाया था।
एटीएस ने खुद भी अपनी पहले दी गई चार्जशीट में कहा थी कि सिमी के लोग चाहते थे कि मालेगांव में दंगा हो और इसी मकसद से ये धमाके किए गए था। कोर्ट ने इस पर कहा कि सामान्य विवेक का इंसान भी इस तर्क को नहीं मानेगा क्यूंकि इससे ठीक पहले गणेश उत्सव के पंडाल लगे थे। गणेश विसर्जन की शोभायात्राएं निकली थीं ये लोग उस वक्त भी धमाकों को अंजाम दे सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा हिंदुओं को मारकर दंगों को अंजाम दिया जा सकता था। एटीएस ने जो केस रखा उसमें इनके खिलाफ पर्याप्त ग्राउंड दिखाई नहीं पडता है। कोर्ट के मुताबिक इनके क्रिमिनल रिकॉर्ड को आधार बनाया गया जिसकी वजह से ये बलि के बकरे बन गए। क्रिमिनल रिकॉर्ड को आधार बनाना ये तो साफ करता ही है कि ये लोग जो बरी किए गए हैं एटीएस को क्यूं खतरनाक लगे थे? इनके सिमी से संबंधों को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। मालेगांव में इन आरोपियों के बरी होने के बाद अब सवाल ये उठ रहा कि क्या जांच का जो भटकाव यूपीए के समय शुरू हुआ था वो जारी रहेगा और दूसरा अहम सवाल ये कि यदि एनआईए की जांच के मुकाबले एटीएस की पुरानी थ्योरी सही साबित हुई तो फिर किसे आरोपी बनाया जाएगा? कर्नल पुरोहित के खिलाफ सबूत नहीं होने की बात कहकर एनआईए प्रमुख पहले ही इशारा कर चुके है कि इस मामले को भगवा रंग देने के चक्कर में क्या क्या हुआ है।