'युवा' संस्कृत शब्द स्रोत से प्राप्त 'युवन' शब्द का समासगत रूप है। 'वृहत् हिन्दी कोश' में युवा से संबंधित पुरुषवाचक संज्ञा शब्द 'युवक' का अभिप्राय तरुण, जवान और 16 से 30 वर्ष तक की आयु का पुरुष है। और इसी संदर्भ में स्त्री के लिए 'युवती' शब्द प्रयुक्त होता है।
आयु के अनुरूप शब्द प्रयोग की अपनी विशिष्ट परंपरा है जिसमें छोटे बच्चों को शिशु अथवा बाल, 10 से 15 वर्ष तक की आयु वालों को किशोर, 16 से 30 तक के वय वर्ग हेतु तरुण और युवक, 30 से ऊपर प्रौढ़, 50 के लगभग अधेड़ और 60-70 की आयु से व्यक्ति की वृद्ध संज्ञा हो जाती है। किंतु वर्तमान राजनीतिक संदर्भों में 'युवा' शब्द उपर्युक्त प्रयोग परंपरा का अतिक्रमण कर 40 से ऊपर के वय वर्ग तक प्रयुक्त हो रहा है, जो कि परंपरासम्मत नहीं है।
लोक मान्यता है कि लगभग सभी महत्वपूर्ण कार्य युवकों ने ही संपन्न किए हैं। एक सीमा तक यह सत्य भी है। आदिशंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, महारानी लक्ष्मीबाई, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद आदि असंख्य युवाओं का स्वक्षेत्रानुरूप विशिष्ट अवदान इस तथ्य का साक्षी है किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि समाज के लिए प्रौढ़ों और वृद्धों का योगदान कहीं कम रहा है।
रामायण, महाभारत और रामचरितमानस जैसे ग्रंथों के रचनाकार युवा नहीं थे। 80 वर्ष के रणबांकुरे योद्धा कुंवरसिंह ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में घोड़े की पीठ पर बैठकर अपनी सेना का संचालन किया। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, महामना मदनमोहन मालवीय आदि ने प्रौढ़ वय में भी देश का सफल नेतृत्व किया।
अभिप्राय यह है कि महत्वपूर्ण कार्यों के निष्पादनार्थ आयु से अधिक सामर्थ्य, प्रतिभा, संकल्प, उत्साह और पूर्ण विकसित व्यक्तिगत तेजस्विता की आवश्यकता होती है। इसीलिए महाकवि कालिदास ने 'रघुवंश' में लिखा है- 'तेजस्विनाम् हि वय: न समीक्ष्यते' अर्थात तेजस्वियों की आयु नहीं देखी जाती। उनका कार्य ही महत्वपूर्ण होता है, आयु वर्ग नहीं।
कदाचित तेजस्विता से उद्दीप्त प्रतिभाएं अत्यधिक श्रम अथवा आवश्यक त्याग-बलिदान के कारण अल्प वय में ही देह त्याग कर जाती हैं। इसीलिए यह अवधारणा दृढ़ हुई है कि युवा ही महत्वपूर्ण कार्य संपादित कर पाते हैं। यहां यह भी रेखांकनीय है कि उनके कार्य निष्पादन में उनकी अल्पआयु से अधिक उनकी प्रतिभा और दृढ़-संकल्पित कर्तव्यनिष्ठा का योगदान होता है।
सामान्यत: आयु-आधारित 'युवा' संज्ञा वय के अनुरूप सबके लिए सर्वस्वीकृत है किंतु यह भी विचारणीय है कि क्या केवल वय-वर्ग के आधार पर किसी की युवा संज्ञा सार्थक हो सकती है? देश में करोड़ों युवा हैं किंतु क्या वे सभी युवा-क्रांतिकारियों के सदृश देश के लिए समर्पित हैं? क्या वे सभी आदिशंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद सदृश चिंतन-मनन से समृद्ध हैं? यदि नहीं, तो उनकी युवा संज्ञा महापुरुषों के समतुल्य नहीं हो सकती। केवल वंश-परंपरा से नेतृत्व पाकर अथवा समूह विशेष के हित में उत्तेजक भाषण देनेभर से युवा की सार्थकता सिद्ध नहीं होती।
यदि किसी युवा की सार्थकता का सही मूल्यांकन करना है तो उसके आचार-विचार और सामाजिक प्रदेय का भी समुचित आकलन किया जाना अत्यावश्यक है। आजकल देश के राजनीतिक गलियारों में जिस कथित युवा नेतृत्व का बाजार गर्म है, उसने देश और समाज की उन्नति में अब तक क्या योगदान दिया है? सत्ता की बागडोर उन्हें सौंपते समय यह भी मूल्यांकित किया जाना चाहिए।
युवा वेगवती नदी की उफनती धारा है, सागर की सतह पर उमड़ता ज्वार है। यदि उसकी दिशा सकारात्मक है, उसकी ऊर्जा लोक कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध है, उसमें नैतिक मूल्यों से निर्मित अनुशासन के मर्यादित तटबंधों में बहने का संयम है तब ही उसकी सार्थकता है अन्यथा आतंक और अपराध की भयानक दुनिया का अंधकार भी युवा शक्ति के दुष्प्रयोग की ही देन है।
दुर्योधन जैसे उद्दंड और नारी का अपमान करने वाले युवा समाज के लिए अभिशाप बनते हैं। आतंकवादियों, अपराधियों में बड़ी संख्या युवाओं की है। ऐसा युवापन, जो मनुष्यता के लिए घातक सिद्ध हो, निश्चय ही निंदनीय है। उसे महान युवाओं के समकक्ष स्थान नहीं दिया जा सकता।
पिछले दिनों एक कथित युवा नेता ने बयान दिया कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री को हिमालय पर चले जाना चाहिए। देश की सत्ता उन्हें और उनके अन्य युवा मित्रों को सौंप दी जानी चाहिए। कदाचित सत्ता पर काबिज होने की यह उत्कट लालसा, ऐसी बयानबाजी द्वापर के कंस और मध्यकाल के औरंगजेब की याद दिलाती है जिन्होंने अपने पिता को बंदी बनाकर सत्ता पर अधिकार किया।
एक जाति विशेष के लिए आरक्षण मांगकर सीमित वर्ग का हित चाहने वाले, दलित-सवर्ण की विघटनकारी राजनीति करने वाले सारे देश का नेतृत्व संभालने की दुरभिलाषाएं पाल रहे हैं, समाज को अस्थिर और अराजक बनाने के षड्यंत्र रच रहे हैं और युवा महापुरुषों का उदाहरण देकर अपने युवापन की दुहाई दे रहे हैं, यह दुखद है। विचारणीय है कि अपनी दुरभिलाषाओं की पूर्ति के लिए सारे समाज को विनाश के पथ पर धकेलने वाली दूषित मानसिकताग्रस्त युवा संज्ञा की देशहित में क्या सार्थकता है?
आज के युवा में ऊर्जा का ताप चरम पर है किंतु चिंतन का तप लगभग शून्य है। वह आत्मकेंद्रित है, आत्ममुग्ध है। उसे अपनी चिंता है, अपने कथित करियर की चिंता है। विदेशी कंपनियों की नौकरी, प्रवासी जीवन उसका स्वप्न है।
'यूज एंड थ्रो' की दूषित मानसिकता में पला-बढ़ा एक बड़ा युवा वर्ग भ्रमित है, श्रमित है और अपनी सांस्कृतिक भावभूमि से हटकर अपनी परंपराओं से दूर जा रहा है। माता-पिता का अपमान, गुरुजनों का निरादर, जरा-जरा-सी बात पर आत्मघात इस तथ्य के साक्ष्य हैं। आज के युवा को इस नकारात्मक और निराशाजनक स्थिति से बचाना होगा।
देश का युवा हमारे वर्तमान की आशा है, भविष्य का स्वप्न है। उसके यौवन की सार्थकता में हमारी शक्ति, हमारा वैभव और हमारी सुख-शांति सन्निहित है। उसके सदुपयोग से ही देश के विकास-रथ को प्रगति-पथ पर अग्रसर किया जा सकता है। अत: युवा के यौवन को सार्थकता देने के लिए उसके उचित निर्देशन की आवश्यकता है।
उसके ताप में तप का सन्निवेश करने की आवश्यकता है। विद्यार्जन, अपनी परंपराओं का ज्ञान, सद्ग्रंथों का स्वाध्याय, स्वस्थ-बलिष्ठ तन की प्राप्ति और युगानुरूप लोकहितकारी चिंतन का विकास युवा का तप है। इस तप के माध्यम से उसके विवेक को जागृत करना होगा तभी वह आनंद प्राप्त कर विवेकानंद बन सकेगा, अपने युवा रूप को सार्थकता दे सकेगा और तब ही 'युवा दिवस' भी अर्थवान होगा।