ऊंचे नीचे पहाड़,घने जंगल,घाटियां और संकरी पगडंडियां। माओवादियों के लिए ऐसे दुर्गम क्षेत्र ही सुरक्षित माने जाते है। ऐसे क्षेत्रों में माओवादियों के खाने पीने का सामान पहुंचाना किसी कठिन चुनौती से कम नहीं होता। कई कई किलोमीटर पूरी पूरी रात पैदल चलते हुए रसद का सामान पहूंचाने की जिम्मेदारी भोले भाले और मासूम ग्रामीण उठाने का मजबूर कर दिए जाते है। इनकी भूमिका माओवादियों के मजदूरों की तरह होती है। ये माओवादी संगठनों के साथ रहते हैं और उनके लिए हथियार,राशन,दवाइयां या अन्य जरूरी सामान सामान ढोने का काम करते है। माओवादी संगठन में जन मिलिशिया,सहयोगी वर्ग या लोकल सपोर्ट बेस होता है और इन सबके बीच सामान ढोने वाले मजदूरों को भी शामिल कर लिया जाता है।
आमतौर पर यह माना जाता है की माओवादी अक्सर स्थानीय आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के साथ मिलकर काम करते हैं,जो उन्हें आश्रय,भोजन और खुफिया जानकारी प्रदान करते हैं। लेकिन यह आधा अधूरा सच है। वास्तव में कई बार ग्रामीणों की स्थिति कुआं और खाई की तरह होती है। यदि नक्सलियों की बात नहीं मानी तो मार दिए जाने का डर होता है। इसलिए ग्रामीण माओवादियों के मजदूर बनकर रसद का सामान कई कई किलोमीटर दूर पहुंचाते है। माओवादी मासूम बेटियों को उठाकर ले जाने और अपने दलम में शामिल करने से भी संकोच नहीं करते। खाने पीने का सामान और वजन लादकर पूरी रात ये महिलाएं जंगल के रास्ते कई किलोमीटर पैदल चलती है। दलम के लोगों के लिए खाना बनाने से लेकर कभी कभी उनकी दैहिक जरूरतों को पूरा करने का जिम्मा भी इन महिलाओं पर होता है। माओवादी आंदोलनों में गोपनीयता बनाएं रखने के नाम पर महिलाओं का शोषण आम रहा है जिससे पुरुष अन्य जगहों पर जाने से बचे रहे।
वहीं जंगलों,पहाड़ी इलाकों या अन्य दुर्गम स्थानों पर छुपने और भागने में नक्सलियों को महारत हासिल होती है। यह उनकी रणनीतिक ताकत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। नक्सली पारंपरिक सैन्य युद्ध के बजाय असममित युद्ध की रणनीति अपनाते हैं,जिसमें वे छोटे समूहों में छापामार हमले करते हैं,अचानक हमला करते हैं और फिर जल्दी से गायब हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में ग्रामीण और रसद ले जाने वाले मजदूर सुरक्षाबलों के सामने फंस जाते है। नक्सलियों की तरह प्रशिक्षित नहीं होने के कारण उनका बच कर भाग जाना मुश्किल हो जाता है और वे अक्सर मारे जाते है।
1980 के दशक से दंडकारन्य के प्रभावी माओवादियों से लड़ते हुए हजारों सुरक्षा बल मारे गये है। लेकिन अब सरकार ने जिस तेजी से सड़कें,पुल और मोबाइल टावर बनाने में सफलता हासिल की है,वह अभूतपूर्व है। छत्तीसगढ़ के कई क्षेत्रों से माओवादियों का नामोनिशान मिटा दिया गया है। नक्सली हमलों की कड़ी चुनौती के बीच 8 मई 2017 को माओवादी हिंसा से प्रभावित दस राज्यों में एकीकृत कमान के गठन की पहल करते हुए सभी राज्यों की साझा रणनीति बनाकर एक आठ सूत्रीय समाधान तैयार किया गया थ। इसके अंतर्गत कुशल नेतृत्व,आक्रामक रणनीति,अभिप्रेरणा और प्रशिक्षण,कारगर ख़ुफ़िया तंत्र,कार्य योजना के मानक,कारगर प्रौद्योगिकी,प्रत्येक रणनीति की कार्ययोजना और वामपंथी आतंकियों के वित्त पोषण को विफल करने की रणनीति को शामिल करने की जरूरत बताई गई थी और इस पर लगातार काम किया गया। इसके उत्साहवर्धक परिणाम सामने आएं है। हाल के दिनों में सैकड़ों नक्सलियों को सुरक्षाबलों ने निशाना बनाया है और कई डर के मारे आत्म समर्पण करने को मजबूर हो गए है।
कर्रेगुट्टा की पहाड़ियां दुर्गम क्षेत्र में है जो तेलंगाना,आंध्रा और छतीसगढ़ से लगती है। बीजापुर के पुजारी कांकेर क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली इस पहाड़ी पर फ़िलहाल करीब एक हजार नक्सलियों का डेरा है। पहाड़ी के चारो तरफ आईईडी या बारूदी सुरंग लगा रखे है। तकरीबन 26 हजार सुरक्षा बलों ने इस पहाड़ी को घेर रखा है। इसमें अधिकांश सीआरपीएफ के कोबारा बटालियन के जांबाज़ है। माओवादियों की सबसे खतरनाक पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) की बटालियन नंबर एक के नक्सली यहां पर है और इसमें कई नक्सलियों के शीर्ष नेताओं का भी इस पहाड़ी पर होने का अनुमान लगाया जा रहा है।
पहाड़ी पर और उसके आसपास सेना के ड्रोन और हेलीकॉप्टरों की नजर है। कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों में ज्यादा समय तक छुपे और बचे रहना माओवादियों के लिए असम्भव होगा। सुरक्षाबलों का दावा है की नक्सलियों के खिलाफ यह निर्णायक लड़ाई है। इसका मतलब है की नक्सलियों का बड़ा काडर इन पहाड़ियों पर मौजूद है जिसमें हिडमा भी हो सकता है। दुर्दांत हिडमा बीते डेढ़ दशक से कई सुरक्षाबलों की हत्याओं में शामिल रहा है।
ईंट भट्टों,चाय बागानों,कालीन बुनाई,कृषि और खनन जैसे क्षेत्रों में बंधुआ मजदूरों की बहुत सारी कहानियां हमने सुनी है। बस एक बार माओवादियों का अंत हो जाएं,माओवादियों की गिरफ्त में रहे मजबूर,गरीब और लाचार मजदूरों के शोषण से लेकर निर्दोष होकर मारे जाने की घटनाएं भी सामने आने की उम्मीद है। माओवादी अपने अंजाम से कुछ ही दूरी पर है। जाहिर है माओवाद के खात्मे के साथ ही उन गरीब भोले भाले और मासूम आदिवासियों की आज़ादी के दिन भी शुरू होंगे जो माओवादियों के मजदूर बनने को मजबूर कर दिए जाते थे।