अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी शुरू हो गया है। तालिबान लगातार अपनी ताकत में इजाफा कर रहा है। माना जा रहा है कि यदि इस मामले में अंतरराष्ट्रीय दखल नहीं दिया गया तो एक बार फिर अफगानिस्तान 90 के दशक के हालात में पहुंच सकता है।
दूसरी ओर, तालिबान के बढ़ते प्रभुत्व के चलते भारत की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक हैं। पहले से ही कोरोना संक्रमण, महंगाई और आर्थिक मोर्चे पर जूझ रही भारत की नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए अफगानिस्तान की स्थिति किसी चुनौती से कम नहीं है। अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार से भारत की निकटता और तालिबान का पाकिस्तान और चीन की ओर झुकाव भारत की मुश्किलों को ही बढ़ाएगा। ऐसे में भारत को हर कदम फूंक-फूंक कर रखना होगा।
विदेश नीति की कड़ी परीक्षा : अफगानिस्तान के वर्तमान हालात भारत सरकार की विदेश नीति की भी कड़ी परीक्षा होगी। क्योंकि चीन और पाकिस्तान कभी भी नहीं चाहेंगे कि भारत की तालिबान से निकटता बढ़े। इसके अलावा अमेरिका की वापसी के बाद चीन भी अपना वर्चस्व और बढ़ाने की कोशिश करेगा। हालांकि भारत ने अपनी 'चाल' चलना शुरू कर दी है। विदेशमंत्री एस. जयशंकर की ईरान और रूस की यात्रा को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है। जिस समय जयशंकर ईरान और रूस में थे, उसी समय तालिबान का प्रतिनिधिमंडल भी वहां मौजूद था।
यदि तालिबान निकट भविष्य में अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होता है (जिसकी संभावना अब ज्यादा दिखाई दे रही है) तो दक्षिण एशिया की राजनीति में काफी बदलाव देखने को मिल सकते हैं। तालिबान का विभिन्न आतंकवादी संगठनों से गठजोड़ के चलते आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि देखने को मिल सकती है। पाकिस्तान की आतंकवाद को पोषित करने की नीति किसी से छिपी नहीं है। अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार तो पाकिस्तान पर तालिबान को मदद देने का सीधा आरोप भी लगा चुकी है। अफगानी सरकार का आरोप है कि पाक ने तालिबान की मदद के लिए 10 हजार लड़ाके भेजे हैं साथ ही अफगानी सैनिकों पर हवाई हमले भी किए हैं।
भारत का निवेश खतरे में : तालिबान की वापसी से भारत की अरबों रुपए की परियोजनाएं खटाई में पड़ सकती हैं। एक अनुमान के मुताबिक अफगानिस्तना में भारत का 3 अरब डॉलर का निवेश है। इसके तहत भारत ने वहां सड़कें, स्कूल, डैम, अस्पताल, बिजली की लाइनें बिछाने आदि पर काफी खर्च किया है। इसके साथ ही दोनों देशों का द्विपक्षीय व्यापार भी 1 अरब डॉलर के लगभग हो चुका है। ये स्थितियां भी तालिबान के सत्ता से बाहर होने के बाद ही बनी हैं। वर्तमान सरकार से भारत के रिश्ते काफी अच्छे हैं।
भारत को लेकर तालिबान आक्रामक : भारत को लेकर तालिबान का रवैए में आक्रामकता दिखाई दे रही है। हाल ही में तालिबान के प्रवक्ता ने सुहैल शाहीन ने कहा था कि अगर भारत तालिबान के साथ बात करना चाहता है तो उसे अपनी निष्पक्षता साबित करनी होगी। उसका आरोप है कि भारत अफगानिस्तान की सेना को हथियार मुहैया करवा रहा है। जब अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में थे तब तालिबान ने कहा था कि वह भारत के साथ सकारात्मक संबंध चाहता है। लेकिन, अमेरिका के हटते ही उसके सुर बदल गए हैं। उसने अब भारत पर गंभीर आरोप लगाना शुरू कर दिया है।
चीन को तालिबान का न्योता : दूसरी ओर, तालिबान ने रूस और चीन से निकटता बढ़ाना शुरू कर दिया है। तालिबान ने चीन को अफगानिस्तान में निवेश के लिए न्योता भी दे दिया है और सुरक्षा की गारंटी भी दी है। तालिबान ने चीन को इस बात का भी भरोसा दिलाया है कि वह शिनजियांग के उइगर मुस्लिमों की भी मदद नहीं करेगा। यदि चीन और तालिबान का गठजोड़ बनता है तो भारत के लिए सुरक्षा की दृष्टि से भी नुकसानदेह हो सकता है। क्योंकि यदि ऐसा होता है तो चीन आने वाले समय में अफगानिस्तना में भी अपना अड्डा बना सकता है।
कश्मीर में बढ़ सकता है आतंकवाद : तालिबान की ताकत बढ़ती है तो आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की घटनाएं बढ़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। यह सर्वविदित है कि तालिबान के रिश्ते पाकिस्तान से अच्छे हैं साथ ही पाक समर्थित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर तालिबान को उसकी लड़ाई में प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग भी कर रहे हैं। पाकिस्तान इस स्थिति का फायदा उठाते हुए कश्मीर में अस्थिरता लाने की एक बार फिर कोशिश कर सकता है। अनुच्छेद 370 हटने से नाराज कुछ स्थानीय चरमपंथियों की मदद भी उसे मिल सकती है। ऐसे में आने वाले समय में जम्मू-कश्मीर को संभालना सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी।
क्या भारत को करनी चाहिए अफगानिस्तान को मदद?: इस बीच, एक बड़ा सवाल यह भी उभरकर आ रहा है कि क्या भारत को अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार को सैन्य मदद करनी चाहिए? अफगानिस्तान ने कहा है कि यदि तालिबान से वार्ता विफल रहती है तो वह भारत से सैन्य मदद मांग सकता है। हालांकि भारत में अफगानिस्तान के राजदूत फरीद ममुंडजे ने हाल ही में एनडीटीवी से बातचीत में स्पष्ट किया था कि इस मदद के तहत सैनिकों को भेजना शामिल नहीं होगा बल्कि अफगानी सैन्य बलों को ट्रेनिंग और तकनीकी मदद मुहैया कराना होगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के लिए यह कड़ी परीक्षा की घड़ी है और आने वाला वक्त ही बताएगा कि वह स्थिति से कैसे बाहर आता है।
कौन है तालिबान? : दुनिया का सबसे कुख्यात सशस्त्र संगठन है तालिबान। इसके कई आतंकवादी संगठनों से संबंध हैं। दरअसल, तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी अर्थात विद्यार्थी। ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरवाद में विश्वास रखते हैं। तालिबान का उदय 90 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ था। सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान से जाने के बाद वहां कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था। इसी बीच तालिबान का उदय हुआ और गुटीय संघर्ष से परेशान अफगानी लोगों ने तालिबान का स्वागत किया।
1998 में अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्से पर तालिबान का कब्जा हो गया। एक समय वह भी आया जब तालिबान का 'भस्मासुर' स्वरूप सामने आया और जिन लोगों ने उसका स्वागत किया, वही उससे दुखी हो गए। तालिबानियों ने इस्लामिक कानून के तहत लोगों को सजा देना शुरू किया। इसके तहत हत्या के दोषियों को सार्वजनिक फांसी, चोरी के दोषियों के हाथ-पैर काटना आदि शामिल था। 2001 में अंतरराष्ट्रीय आलोचना के बावजूद तालिबान ने विश्व प्रसिद्ध बामियान बुद्ध प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया।
तालिबान के सत्ता में काबिज होने के बाद पुरुषों को दाढ़ी रखने के लिए कहा गया और स्त्रियों पर बुर्का पहनने के लिए दबाव बनाया गया। टीवी, सिनेमा और संगीत के प्रति भी कड़ा रुख अपनाया गया। 10 वर्ष से ज़्यादा उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। अमेरिका के आने के बाद तालिबान के पांव उखड़े, लेकिन अमेरिका के जाते ही एक बार फिर तालिबान जोर पकड़ने लगा है। कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो जाएं क्योंकि तालिबान का दावा है कि उसने अफगानिस्तान के 85 फीसदी हिस्से को अपने नियंत्रण में ले लिया है।