आज भले ही हम बात-बात पर सांप्रदायिक बहस पर उतर आते हों, लेकिन हमारी सीमा पर बंदूक की नाल दुश्मनों की तरफ तानकर खड़े रहने वाले जवान हमें हिंदू-मुस्लिम की निगाहों से नहीं देखते। जब वे अपने सीने पर गोली खाते हैं तो यह नहीं देखते कि वे हिंदू के लिए शहीद हो रहे हैं या मुस्लिम के लिए। वे देश के लिए शहीद होते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत में मोहम्मद उस्मान जैसे शहीद के नाम के साथ भारत माता की जय के नारे नहीं गूंजते।
नौशेरा का शेर। यही वो नाम था, जिसे सुनकर पाकिस्तानी सेना खौफ खाती थी। उनके डर से पाक सेना ने उनके ऊपर 50 हजार का इनाम रख दिया था। ऐसे मोहम्मद उस्मान न सिर्फ भारतीय सेना का ताज थे, बल्कि उनकी वतन परस्ती भी ऐसी थी कि आज तक उसकी मिशालें पेश की जाती हैं।
बात आजादी के बाद दिसंबर 1947 की है। बंटवारें के बाद पाकिस्तानी घुसपैठियों ने भारत के झनगड़ इलाके पर कब्जा कर लिया था। झनगड़ को कब्जे से छुड़ाने का जिम्मा ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को सौंपा गया। पूरी बहादूरी और प्लानिंग के साथ मोहम्मद उस्मान ने पलटवार किया। पाकिस्तान से जबर्दस्त लड़ाई लड़ी। इस युद्ध में भारत के 33 जवान शहीद हो गए और करीब 100 सैनिक घायल हो गए।
ब्रिगेडियर ने संकल्प लिया कि जब तक झनगड़ और नौशेरा को मुक्त नहीं कर देता तब तक चैन से नहीं सोऊंगा
उन्होंने पाकिस्तान के 1 हजार पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया और इतनों को ही घायल कर वापस भेज दिया। ब्रिगेडियर की बहादुरी ने मार्च 1948 में पहले नौशेरा और इसके बाद झनगड़ को भारत के कब्जे में लिया।
उनकी इसी लीडरशिप के कारण ब्रिगेडियर उस्मान को नौशेरा का शेर कहा जाने लगा।
शाकाहारी हो गए, करते थे हनुमानजी की पूजा : मोहम्मद उस्मान ने 10वीं बलूच रेजिमेंट की 14वीं बलाटियन की कमान अप्रैल 1945 से अप्रैल 1946 तक संभाली। इसी दौरान जिन्ना उनके पास पाकिस्तान चलने का ऑफर लेकर आए थे। बंटवारे के बाद जब बलूच रेजिमेंट पाकिस्तान में चली गई तो मोहम्मद उस्मान का ट्रांसफर डोगरा रेजिमेंट में कर दिया गया। कहा जाता है कि डोगरा रेजिमेंट में अपने साथी सैनिकों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए मोहम्मद उस्मान शाकाहारी हो गए थे, वे मंगलवार को हनुमानजी की पूजा करते थे।
जब जिन्ना को कहा नो : भारत-पाक बंटवारे के बाद हर चीज़ का बंटवारा हो रहा था। ज़मीन के टुकड़े के साथ ही विभागों और सेना की कुछ रेजिमेंट का बंटवारा किया गया। बलूचिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा बना। इसलिए बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई।
बंटवारे के बाद मोहम्मद उस्मान पर सबसे ज़्यादा प्रेशर था। यह प्रेशर लड़ाई का नहीं, बल्कि एक मुसलमान होने का था। उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे। जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की तर्ज़ पर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे। उनहोंने उस्मान को पाकिस्तानी सेना का चीफ तक बनाने का ऑफर दे डाला,लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान ने उन्हें साफ मना कर दिया। वे हिंदुस्तानी थे, भारतीय थे और अपने वतन भारत में ही रहना चाहते थे।
जिन्ना ने मोहम्मद उस्मान से कहा था, 'पाकिस्तान आ जाओ मैं तुम्हें आर्मी चीफ बना दूंगा' मोहम्मद उस्मान का जवाब था, मैं भारत में जन्मा हूं और इसी जमीन पर मैं आखिरी सांस लूंगा
शहीद उस्मान के लिए याद किया जाता यह युद्ध : ब्रिगेडियर शहीद मोहम्मद उस्मान का जन्म मऊ में 15 जुलाई 1912 को हुआ था। 1947 के भारत-पाक युद्ध को शहीद उस्मान के लिए याद किया जाता है। उस्मान के परिवार वाले चाहते थे कि वो आईएएस अफसर बनें, लेकिन वो आर्मी अफसर बनना चाहते थे। इसी के चलते सिर्फ 20 साल की उम्र में उन्होंने आर्मी ज्वॉइन कर ली।
इस उम्र में उस्मान को आरएम रॉयल मिलिट्री एकेडमी में दाखिला मिला था। तब पूरे भारत में केवल 10 लड़कों को इस मिलिट्री संस्थान में दाखिला मिला था।
शहादत के बाद ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की शवयात्रा में खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू शामिल हुए। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के जामिया मिल्लिया में किया गया। ब्रिगेडियर उस्मान को उनके नेतृत्व और साहस के लिए मरणोपरांत 'महावीर चक्र' से सम्मानित किया गया।