लिंगायत कौन हैं, क्या है कर्नाटक की राजनीति में उनका महत्व

Webdunia
बुधवार, 21 मार्च 2018 (14:09 IST)
कर्नाटक राज्य में करीब तीन माह में विधानसभा चुनाव होने हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए कर्नाटक की सिद्धारमैया (या कांग्रेस) सरकार ने लिंगायत और वीरशैव लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जा देने की सिफारिश केंद्र सरकार को भेज दी है। अब इस प्रस्ताव पर केन्द्र सरकार और सत्तरूढ़ पार्टी भाजपा का क्या रुख होगा, यह अभी भी राजनीतिक दांव-पेंच की जोर आजमाइश का विषय हो सकता है। 
 
लेकिन, इतना तय है कि कांग्रेस सरकार के इस फैसले को राज्य के लिंगायत समुदाय को अपनी ओर खींचने की कोशिश है जो आमतौर पर भाजपा समर्थक माने जाते रहे हैं। विदित हो कि कर्नाटक की आबादी में करीब 18 फीसदी लिंगायत हैं और करीब 110 विधानसभा सीटों पर इनका रुख सत्ता की चाभी है, इसलिए राज्य के प्रत्येक दल के लिए इनका समर्थन हासिल करना सत्ता पर काबिज होने की टिकट साबित हो सकता है।
 
राज्य के लिंगायत समुदाय को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है। जो संपन्न भी हैं और इनके उत्पति का प्रारंभ 12वीं सदी से है जब राज्य के एक समाज सुधारक बासवन्ना ने हिंदुओं में जाति व्यवस्था में दमन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था। बासवन्ना मूर्ति पूजा नहीं मानते थे और वेदों में लिखी बातों को भी खारिज करते थे। लिंगायत समुदाय के लोग शिव की पूजा भी नहीं करते बल्कि अपने शरीर पर ही इष्टलिंग धारण करते हैं जो कि एक गेंद की आकृति के समान होती है। 
 
कर्नाटक में लिंगायत समुदाय, सबसे बड़ी आबादी है और यह समुदाय लंबे समय से अलग धार्मिक समूह और धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग करता रहा है। इसमें लिंगायत और वीरशैव जैसे दो प्रमुख धड़े हैं। किसी प्रकार के असंतोष से निपटने के लिए सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत और वीरशैव दोनों ही धड़ों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने का फैसला किया है।
 
कहा जा रहा है कि कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग धर्मिक समूह के रूप में मान्यता देने की नागमोहन दास समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया है। विदित हो कि राज्य सरकार ने इस सात सदस्यीय समिति का गठन बीते साल दिसंबर में किया था। पिछले सोमवार को ही राज्य सरकार ने लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने के लिए केंद्र से सिफारिश करने का भी फैसला किया।
 
कौन है लिंगायत? : कर्नाटक में हिंदुओं के मुख्‍यत: पांच संप्रदाय माने जाते हैं जिन्हें क्रमश: शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक और स्मार्त के नाम से जाना जाता है। इन्हीं में एक शैव संप्रदाय के कई उप संप्रदाय है उसमें से एक है वीरशैव संप्रदाय। लिंगायत इसी वीरशैव संप्रदाय का हिस्सा हैं। शैव संप्रदाय से जुड़े अन्य संप्रदाय हैं जो कि शाक्त, नाथ, दसनामी, माहेश्वर, पाशुपत, कालदमन, कश्मीरी शैव और कापालिक नामों से जाने जाते हैं। शायद आपको आश्चर्य हो सकता है कि कश्मीर को शैव संप्रदाय का गढ़ माना गया है। 
 
जब वसुगुप्त ने 9वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कश्मीरी शैव संप्रदाय की नींव डाली थी। हालांकि इससे पूर्व यहां बौद्ध और नाथ संप्रदाय के कई मठ थे। वसुगुप्त के दो शिष्य थे कल्लट और सोमानंद। इन दोनों ने ही शैव दर्शन की नई नींव रखी जिसे मानने वाले कम ही रह गए हैं। वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है जिन्हें पाशुपत, काल्पलिक, कालमुख और लिंगायत नाम से जाना जाता है। 
 
वर्तमान में प्रचलित लिंगायत संप्रदाय, प्राची लिंगायत संप्रदाय का ही नया रूप है। लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था। इन्हें जंगम बी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग शिवलिंग की उपासना करते हैं। इनका वैदिक क्रियाकांड में विश्वास नहीं है। बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक उल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है, इस संप्रदाय को वीरशैव संप्रदाय भी कहा जाता है।
 
बासव को कर्नाटक में बासवेश्वरा नाम से भी जाना जाता है। बासव जन्म से ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म में मौजूद जातिवाद और कर्मकांड के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। हालांकि वर्तमान में लिंगायतों में ही 99 जातियां हो चली है जिनमें से आधे से ज्यादा दलित या पिछड़ी जातियों से हैं। लेकिन लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है। कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं। पास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है।
 
बारहवीं सदी में समाज सुधारक बासवन्ना (उन्हें भगवान बासवेश्वरा भी कहा जाता है) ने हिंदू जाति व्यवस्था में दमन के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। लिंगायत अपने शरीर पर इष्टलिंग या शिवलिंग धारण करते हैं। पहले लिंगायत इसको निराकार शिव का लिंग मानते थे लेकिन वक्त के साथ इसकी परिभाषा बदल गई। अब वे इसे इष्टलिंग कहते हैं और इसे आंतरिक चेतना का प्रतीक मानते हैं।
 
मान्यता ये है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही लोग होते हैं। लेकिन लिंगायत लोग ऐसा नहीं मानते। उनका मानना है कि वीरशैव लोगों का अस्तित्व समाज सुधारक बासवन्ना के उदय से भी पहले से था। वीरशैव भगवान शिव की पूजा करते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि लिंगायत भगवान शिव की पूजा नहीं करते, लेकिन भीमन्ना खांद्रे जैसे विचारक का कहना है कि वीरशैव और लिंगायतों में कोई अंतर नहीं है। भीमन्ना ऑल इंडिया वीरशैव महासभा के अध्यक्ष पद पर 10 साल से भी ज्यादा समय तक रहे हैं।
 
लिंगायत क्यों हिंदू धर्म से अलग होना चाहते हैं?
इसका कारण राजनीतिक है क्योंकि लिंगायत चाहते हैं कि उन्हें हिंदू धर्म से अलग होने पर धार्मिक अल्पसंख्‍यकों का दर्जा मिल जाएगा और वे अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभों को हासिल करने में सफल होंगे। लिंगायत, लंबे समय से आरक्षण की मांग करते आए हैं। पर अगर इन्हें धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों का दर्जां मिलता है तो समुदाय में आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का फायदा मिलेगा। 
 
सामाजिक रूप से लिंगायतों को उत्तरी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में गिना जाता है। राज्य के दक्षिणी हिस्से में भी लिंगायत लोग रहते हैं। सत्तर के दशक तक लिंगायत दूसरी खेतिहर जाति, वोक्कालिगा लोगों के साथ सत्ता में बंटवारा करते आए हैं। वोक्कालिगा दक्षिणी कर्नाटक की एक प्रभावशाली जाति है लेकिन राज्य के एक पूर्व मुख्यमंत्री देवराज उर्स ने लिंगायत और वोक्कालिगा लोगों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़ दिया था। 
 
उन्होंने अन्य पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और दलितों को एक साझे मंच पर लाकर 1972 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने में सफलता हासिल की थी। इसके बाद से तो राज्य में लिंगायतों में ही नहीं वरन वोक्कालिगा समुदायों में भी बैचेनी गई थी। अब यह सत्ता संघर्ष भारी जोड़तोड़, उठापटक का पर्याय बन गया है क्योंकि जो समुदाय सत्ता के आसपास रहेगा, वही प्रगति भी कर सकता है। 
 
भाजपा की मुसीबत : चूंकि राज्य में लिंगायत संख्या बल और इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक तौर पर अधिक प्रभावी हैं इसलिए सत्ता पाने का सपना देखने वाली हर पार्टी इन्हें खुश रखना चाहती हैं। वर्तमान में 224 सदस्यीय विधानसभा में 52 विधायक लिंगायत हैं और इन्हें परम्परागत रूप से भाजपा का समर्थक भी माना जाता है, इसलिए लिंगायतों को अपने पक्ष में लाने के लिए कांग्रेस सरकार ने यह चाल चली। 
 
भाजपा की मुश्किल यह है कि लिंगायतों के एक बड़े नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा एक बार पुन: मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदार हैं, इसलिए वे भी कांग्रेस सरकार के इस कदम का विरोध करने की हालत में नहीं हैं। उन्होंने भी लिंगायतों को धार्मिक आधार पर अल्पसंख्‍यकों का दर्जा दिए जाने का पुरजोर समर्थन किया है। जबकि कांग्रेस के लिए लिंगायतों का समर्थन हासिल करना ही सत्ता की सीढ़ी है, इसलिए उसने इस तरह का विभाजनकारी कदम कदम उठाया है।   
 
अतीत में भी लिंगायतों का समर्थन सभी राजनीतिक दलों और इसके नेताओं के लिए निर्णायक रहा है, इसलिए कांग्रेस ने येदियुरप्पा को ठिकाने लगाने और लिंगायत वोट बैंक पर कब्जा करने के लिए यह चाल चली है। पिछले 2013 के विधानसभा चुनावों में जब भाजपा ने लिंगायतों के सबसे बड़े नेता, येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की दावेदारी से हटा दिया था तो कांग्रेस को राज्य में सरकार बनाने का मौका मिल गया था। अब फिर एक बार लिंगायतों की धार्मिक पहचान को आधार बनाकर कांग्रेस समुदाय के वोटों को हासिल करना चाहती है।
 
इस बार कांग्रेस की सरकार ने एक तीर से कई शिकार करने की रणनीति बनाई है। राज्य सरकार का यह फैसला लिंगायतों को जहां कांग्रेस के पाले में ला सकता है, वहीं भाजपा की केन्द्र सरकार इसे कांग्रेस का चाहे जितना बुरा कदम बताए लेकिन मोदी सरकार को भी लिंगायतों के वोट चाहिए और वह भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकती है। ऐसी हालत में गेंद को कांग्रेस भाजपा की केन्द्र सरकार के पाले में डाल दिया है।
 
मोदी सरकार अगर कांग्रेस सरकार के प्रस्ताव का विरोध करती है, तो कांग्रेस यह कह सकती है कि हमने तो प्रस्ताव केन्द्र भी भाजपा सरकार को भेज दिया है, अगर वह ऐसा नहीं करती है तो हम क्या करें? यदि राज्य के लिंगायत भाजपा के विरोध में आ गए तो राज्य में भाजपा अपनी सरकार बनाने का सपना भी भूल जाए। भाजपा के लिए यह सांप-छछूंदर वाली स्थिति है। न तो उगला जाता है और न ही निगला जाता है क्योंकि दोनों ही सूरतों में पार्टी को नुकसान हो सकता है।
 
इस मामले में कांग्रेस का कहना है कि वह तो लिंगायतों को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का लाभ देना चाहती है, लेकिन अगर केन्द्र की भाजपा सरकार ऐसा नहीं होने देना चाहती है तो इसमें कांग्रेस और इसकी राज्य सरकार क्या कर सकती है? 

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