दिल्ली की सूरत बदलने वाली शिल्पकार थीं शीला दीक्षित

शनिवार, 20 जुलाई 2019 (19:59 IST)
नई दिल्ली। देश की राजधानी कई नेताओं के उदय और पराभव की साक्षी बनी, लेकिन इनमें शायद शीला दीक्षित इकलौती ऐसी नेता रहीं जिन्हें दिल्ली ने वर्षों तक विकास की नई-नई इबारतें गढ़ते देखा।
 
शीला ने कांग्रेस के विभिन्न कद्दावर नेताओं के बीच कामयाबी की लंबी सीढ़ी चढ़कर न सिर्फ कई को चौंकाया बल्कि अपने सुलझे हुए स्वभाव और नेतृत्व कौशल से कई मौकों पर टकराव की स्थिति पैदा होने से पहले ही उसे खत्म कर दिया। दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में शीला अपनी विनम्रता, मिलनसार व्यवहार, बेहतरीन मेहमाननवाजी और सबको सुनने वाली नेता के तौर पर पहचानी जाती रहीं।
 
शीला के साथ बतौर मंत्री वर्षों तक काम करने वाले हारून यूसुफ ने कहा कि शीलाजी हमेशा दिल्ली के विकास के लिए याद की जाएंगी। मैंने वर्षों तक उनके साथ काम किया और मैं यह कह सकता हूं कि राजनीति में ऐसे विरले ही होते हैं, जो हर हालात में शालीन और मर्यादित रहें और सिर्फ जनहित के बारे में सोचे। वे ऐसी ही नेता थीं।
 
शीला दीक्षित का जन्म 31 मार्च 1938 को पंजाब के कपूरथला में हुआ था। उन्होंने दिल्ली के 'कॉन्वेंट ऑफ जीसस एंड मैरी' स्कूल से पढ़ाई की और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज से उच्च शिक्षा हासिल की।
 
वे 1984 से 1989 तक उत्तरप्रदेश के कन्नौज से सांसद और राजीव गांधी की सरकार में मंत्री रहीं। बाद में वे दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हुईं।
 
शीला ने 1990 के दशक में जब दिल्ली की राजनीति में कदम रखा तो कांग्रेस में एचकेएल भगत, सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर सरीखे नेताओं की तूती बोलती थी। इन सबके बीच शीला ने न सिर्फ अपनी जगह बनाई, बल्कि कांग्रेस की तरफ से दिल्ली की पहली मुख्यमंत्री बनीं।
 
गांधी परिवार की खास मानी जाने वालीं शीला ने 1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत दिलाई और यहां से उनकी जीत का सिलिसिला ऐसे चला कि 2003 और 2008 में भी उनकी अगुआई में कांग्रेस की फिर सरकार बनी।
 
उनके मुख्यमंत्री रहते दिल्ली में फ्लाईओवर और सड़कों का जाल बिछा तो मेट्रो ट्रेन का भी खूब विस्तार हुआ। सीएनजी परिवहन सेवा लागू करके शीला ने देश-विदेश में वाहवाही हासिल की। एक समय दिल्ली की राजनीति में अजेय मानी जाने वालीं शीला की छवि को 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के कार्यों में भ्रष्टाचार के आरोपों से धक्का लगा।
 
अन्ना आंदोलन के जरिए राजनीतिक पार्टी खड़े करने वाले अरविंद केजरीवाल ने ऐसे कुछ आरोपों का सहारा लेते हुए शीला को सीधी चुनौती दी। इस तरह 2013 में न सिर्फ शीला की सत्ता चली गई, बल्कि स्वयं वे नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में केजरीवाल से चुनाव हार गईं।
 
इस चुनावी हार के बाद भी कांग्रेस और देश की राजनीति में उनकी हैसियत एक कद्दावर नेता की बनी रही। 2017 के उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें अपना चेहरा घोषित किया, हालांकि बाद में पार्टी ने सपा के साथ गठबंधन कर लिया।
 
राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर शीला को एक बार दिल्ली कांग्रेस की कमान दी, हालांकि पार्टी को कोई सफलता नहीं मिली और उत्तर-पूर्वी लोकसभा सीट से वे खुद चुनाव हार गईं। वैसे जानकारों का यह कहना है कि इस चुनाव में कांग्रेस वोट प्रतिशत के लिहाज से अपनी खोई जमीन पाने में कुछ हद तक सफल रही।
 
दिल्ली कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि शीला की तरह यहां एक सर्वमान्य नेता होने की कमी पार्टी को लंबे समय तक खल सकती है।
 
शीला दीक्षित की आत्मकथा पिछले ही वर्ष 'सिटीजन दिल्ली : माई टाइम्स, माई लाइफ' शीर्षक से आई थी। शीला दीक्षित के ससुर उमाशंकर दीक्षित भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रह चुके हैं। उनके पति विनोद दीक्षित आईएएस अधिकारी थे। उनके पुत्र संदीप दीक्षित पूर्वी दिल्ली से सांसद रह चुके हैं। (भाषा)

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