इंदौर तेजी से महानगर की तरफ बढ़ता शहर है। यहां मॉल्स, पब्स और नाइट कल्चर के दृश्य जिस तरह से नजर आते हैं, इससे जाहिर है कि युवा वर्ग इस शहर का प्रतिनिधित्व करते हैं— लेकिन युवाओं की इस लाइफस्टाइल में एक ऐसी स्याह हकीकत भी छुपी हुई है जो उन्हें बिल्कुल अलग तरह से परिभाषित करती है।
दरअसल, अपने सेक्शुअल ओरिएंटेशन यानी लैंगिक प्राथमिकता को लेकर इंदौर का युवा अब मुखर होने लगा है। बरसों से दबी-छिपी अपनी असल सेक्शुअल चाह को स्वीकारने के लिए वो आगे आ रहा है। मर्द की देह में छिपी औरत और औरत की देह में छिपे मर्द के बारे में पता लगाने के लिए अब कई लोग डॉक्टरों के पास जा रहे हैं। बता दें कि पिछले 5 सालों में इन मामलों में 2 से 3 गुना वृद्धि हुई है—खासकर युवाओं और अर्बन वर्ग में। वहीं सेक्स चेंज यानी जेंडर में बदलाव के लिए भी लोग सर्जन के पास जा रहे हैं। इस विषय के बारे में जानने के लिए हमने इंदौर की जानी-मानी मनोचिकित्सक डॉ. अपूर्वा तिवारी से विशेष चर्चा की। जानते हैं क्या कहते हैं डॉक्टर्स।
1. भारत में LGBTQ की आबादी क्यों बढ़ रही है?
LGBTQ की संख्या नहीं बढ़ रही— अब लोग अपनी पहचान छुपाने की बजाय स्वीकार करने लगे हैं। पहले जो बातें दबा दी जाती थीं, वे अब सामने आ रही हैं।
2. क्या यह पहचान पाने का संघर्ष, हॉर्मोन की गड़बड़ी या कोई मनोविकृति है?
नहीं, LGBTQ पहचान कोई बीमारी नहीं है— न हॉर्मोन की गड़बड़ी, न मनोविकृति। यह इंसानी विविधता का हिस्सा है। DSM-5 ने भी इस सोच में बदलाव करते हुए “Gender Identity Disorder” को हटाकर “Gender Dysphoria” कहा है। यानी जेंडर पहचान को बीमारी नहीं, बल्कि उस मानसिक पीड़ा के रूप में समझा जाता है जो व्यक्ति को तब होती है जब उसकी पहचान को समाज से स्वीकृति नहीं मिलती। केवल उसी distress को इलाज की दृष्टि से देखा जाता है— न कि स्वयं पहचान को।
3. सेक्शुअल ओरिएंटेशन को लेकर किस तरह के बदलाव आ रहे हैं?
अब युवा खुलकर अपनी सेक्शुअल पहचान को समझ और स्वीकार कर रहे हैं। यह जागरूकता और मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए सकारात्मक संकेत है।
4. क्या मर्द और औरत के बीच का फर्क मिट रहा है?
फर्क नहीं मिट रहा, पर जेंडर रोल्स ज़रूर लचीले हो रहे हैं। अब हर व्यक्ति को अपनी पहचान के अनुसार जीने की आज़ादी मिल रही है— यही मानसिक स्वास्थ्य का भी आधार है।
5. सोशल मीडिया में लड़के लड़कियां और लड़कियां, लड़के बनकर नाच रहे हैं— ये क्या किस तरह की मानसिक विकृति है?
यह मानसिक विकृति नहीं है। कई बार लोग अपनी जेंडर आइडेंटिटी, परफॉर्मेंस या अभिव्यक्ति के ज़रिए खुद को तलाशते हैं। सोशल मीडिया आज के युवाओं के लिए खुद को बिना डर ज़ाहिर करने का माध्यम बन चुका है। हमें हर अभिव्यक्ति को बीमारी की नज़र से नहीं देखना चाहिए।
6. लड़कियां अपनी देह को दिखाने में ज़रा भी नहीं हिचक रहीं— वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं?
यह मानसिक रोग का मामला नहीं है। आज की महिलाएं अपने शरीर और अभिव्यक्ति पर अधिकार जताने लगी हैं। आत्मविश्वास और बॉडी पॉजिटिविटी को हमें विकृति नहीं, सामाजिक बदलाव के रूप में समझना चाहिए— जब तक इसमें कोई हानि या शोषण शामिल न हो।
7. इंदौर में अपनी लैंगिक प्राथमिकता को छुपाने या स्वीकारने के लिए किस वर्ग और जेंडर के लोग आपके पास आ रहे हैं?
कॉलेज स्टूडेंट्स से लेकर वर्किंग प्रोफेशनल्स तक, पुरुष और महिलाएं दोनों आते हैं। ज़्यादातर लोग 18 से 35 की उम्र के होते हैं, और सभी सामाजिक वर्गों से आते हैं।
8. क्या पिछले कुछ सालों में LGBTQ+ से जुड़े मामलों में बढ़ोतरी हुई है? आपके पास कोई आंकड़ा है क्या?
कोई आधिकारिक राष्ट्रीय डेटा अभी सीमित है, लेकिन क्लिनिकल अनुभव और LGBTQ+ संगठनों की रिपोर्ट्स से साफ है कि अब ज़्यादा लोग अपनी जेंडर या सेक्शुअल पहचान को लेकर मनोवैज्ञानिक मदद लेने आगे आ रहे हैं। मेरे निजी प्रैक्टिस में पिछले 5 सालों में ऐसे मामलों में लगभग 2 से 3 गुना तक वृद्धि हुई है— खासकर युवाओं और अर्बन वर्ग में। ये वृद्धि संख्या में इज़ाफा नहीं बल्कि स्वीकृति और जागरूकता का संकेत है।
9. आपके पास इंदौर में महिलाएं ज़्यादा आती हैं या पुरुष?
पुरुष ज़्यादा आते हैं। महिलाएं आज भी सामाजिक दबाव की वजह से अपनी पहचान छुपा लेती हैं— यही चिंता की बात है।
10. अब तो रिश्तों के कई विकल्प हैं— ये कितना सही है?
DSM-5 के अनुसार सेक्शुअलिटी एक स्पेक्ट्रम है। जब तक कोई रिश्ता आपसी सहमति और सम्मान पर आधारित है, उसे मानसिक रूप से स्वस्थ माना जाता है। रिश्तों के विकल्प व्यक्तिगत आज़ादी का हिस्सा हैं।
11. क्या सेक्शुअल ओरिएंटेशन ऐसी चीज़ है, जिसे लोग देर से पहचानते हैं?
हाँ, ऐसा हो सकता है। सेक्शुअल ओरिएंटेशन समय के साथ स्पष्ट हो सकता है। कई लोग इसे किशोरावस्था में समझते हैं, तो कुछ लोगों को ज़िंदगी के किसी और मोड़ पर अहसास होता है। यह पूरी तरह सामान्य है।