किसी जमाने में बाल ठाकरे भाजपा को 'कमलाबाई' कहते थे, फिर भी उन्होंने भाजपा को अपने साथ बनाए रखा क्योंकि उनकी राजनीति अलग थी। वे हमेशा पद से दूर रहे, लेकिन उद्धव ठाकरे अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए कुछ समय के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन वे वर्षों पुरानी सहयोगी भाजपा को तो छोड़िए अपनी शिवसेना को भी नहीं बचा पाए।
बाल ठाकरे के समय मुंबई और ज्यादातर महाराष्ट्र की राजनीति मातोश्री से ही चलती रही है। मुंबई में रहने वाले जानते हैं कि यहां मातोश्री और सीएमओ में ज्यादा फर्क नहीं है। जब राज्य में शिवसेना की सरकार हुआ करती थी, तब तो मातोश्री का रुतबा सीएमओ से भी ज्यादा हुआ करता था।
ऐसे में जब असंतुष्ट विधायक एकनाथ शिंदे ने शिवसेना से बगावत की तो यह एक तरह से ठाकरे परिवार को ही चुनौती देने जैसा था। हालांकि यह पहली बार नहीं था, जब महाराष्ट्र के सबसे बड़े राजनीतिक दल शिवसेना में टूट हुई हो। इसके पहले छगन भुजबल और नारायण राणे के जाने की वजह से भी पार्टी में दरार आ चुकी है। लेकिन तब पार्टी के उन घावों को शिवसेना ने जैसे-तैसे भर दिया था और वो लगभग महाराष्ट्र की राजनीति की पटरी पर बनी रही। इसी बीच, समान विचारधारा की वजह से शिवसेना को भाजपा का साथ भी सहारे की तरह मिलता रहा।
लेकिन इस बार बागी एकनाथ शिंदे ने शिवसेना की पूरी पिक्चर ही बदलकर रख दी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, जब शिवसेना के पैरों के नीचे से जमीन खिसकी हो या ठाकरे परिवार की जड़ें ही हिल गईं हों।
एकनाथ शिंदे की यह चुनौती न सिर्फ उद्धव ठाकरे की राजनीति को कांच की तरह तोड़ गई, बल्कि अब तो शिवसेना का नाम और उसका चुनाव चिन्ह धनुष और तीर छिन जाने से ठाकरे होने की ठसक के मायने ही बदलते नजर आ रहे हैं।
बता दें कि ठाकरे को बड़ा झटका देते हुए निर्वाचन आयोग ने शुक्रवार को मुख्यमंत्री शिंदे के नेतृत्व वाले समूह को शिवसेना नाम और उसका चुनाव चिन्ह धनुष और तीर आवंटित कर दिया है।
राजनीतिक दलों में बगावत और चुनौतियां आती-जाती रहती हैं, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है, जब ठाकरे परिवार ने 1966 में बालासाहेब ठाकरे की बनाई पार्टी से पूरी तरह से नियंत्रण खो दिया है। यह बालासाहेब ठाकरे का वही उद्धव ठाकरे परिवार है, जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि इनकी मर्जी के बगैर मुंबई में पत्ता भी नहीं हिलता है।
कुछ समय तक यह कल्पना से भी परे था कि कोई उद्धव ठाकरे (मातोश्री) से शिवसेना का नाम ही छीन ले। या बगावत से एक ऐसी शिवसेना का उदय होगा, जिसमें ठाकरे परिवार का कोई सदस्य शामिल नहीं होगा। सिरे से देखें तो शिवसेना का पतन दशक दर दशक होता रहा है। छगन भुजबल, नारायण राणे और परिवार के ही राज ठाकरे के रूप में पार्टी कमजोर होती रही। अब एकनाथ शिंदे ने उद्धव की राजनीति को बेपटरी करने का काम किया है। एकनाथ शिंदे की इस बगावत से न सिर्फ ठाकरे की राजनीति बल्कि उस मातोश्री की साख को भी धक्का पहुंचा है, जहां हर आम और खास माथा टेकने जाते रहते थे।
जाहिर है, अब उद्धव ठाकरे और शिवसेना के उस पुराने वाले हिस्से में बचे नेताओं के राजनीतिक भविष्य की बात होगी। जिसमें खुद उद्धव ठाकरे, संजय राउत और आदित्य ठाकरे और इस कड़ी में शामिल तमाम नेताओं की बात होगी। इस बारे में कहा जा सकता है कि पार्टी का नाम और निशान गंवाकर उद्धव ठाकरे पहले ही बुरी तरह से असफल हो चुके हैं। यह अपने आप में ठाकरे की एक बड़ी विफलता है, क्योंकि महाराष्ट्र में शिवसेना का मतलब ही तीर-कमान रहा है। अब तीर और कमान दोनों शिंदे- सेना के पास चले गए हैं। ऐसे में शिंदे गुट के लिए अब पहचान का संकट नहीं होगा। लेकिन उद्धव ठाकरे को अब नए निशान पर चुनाव लड़ना होगा। जो उद्धव गुट के लिए बहुत भारी पड़ने वाला है।
कुल मिलाकर उद्धव ठाकरे गुट के सामने अब तीन तरह की राजनीतिक चुनौतियां होंगी, पहली अपनी खोई हुई पहचान को फिर से हासिल करना, दूसरी अपनी पुरानी शिवसेना से अलग हुए शिंदे गुट से निपटना जो ठाकरे के हर पैंतरे और दाव को जानते हैं। तीसरा उस भाजपा से निपटना जो बीते दिनों महाराष्ट्र में शिवसेना के छोटे भाई के तौर पर रही है और अब केंद्र से लेकर ज्यादातर जगहों पर बहुत मजबूत स्थिति में है।
इतना ही नहीं, उद्धव गुट को अब विचारधारा के स्तर पर भी अपनी राह स्पष्ट करना होगी, क्योंकि हिन्दुत्व को अपनी प्रमुख विचारधारा बताकर यहां तक पहुंचने वाली शिवसेना ने पिछले कुछ वक्त से हिंदू सेंटीमेंट्स को बुरी तरह से खफा किया है। चाहे वो उद्धव ठाकरे का 2019 में भाजपा से गठबंधन तोड़कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) और कांग्रेस के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बनाना हो। या राज ठकारे और नवनीत राणा जैसे हिन्दुत्व की आवाजों के सामने बैकफुट पर आ जाना हो।
अपनी हिन्दुत्व वाली विचारधारा के चलते ही करीब 33 सालों तक शिवसेना और भाजपा का साथ रहा है। एक महाराष्ट्र ही ऐसा राज्य है जहां भाजपा की सहयोगी होने के बावजूद शिवसेना हमेशा बड़े भाई की भूमिका में ही रही। लेकिन अब वही भाजपा उद्धव ठाकरे के खिलाफ एकनाथ शिंदे के गुट में है। हालांकि फिलहाल शरद पवार की एनसीपी उद्धव गुट के साथ खड़ी नजर आ रही है। लेकिन उद्धव ठाकरे के लिए इतना काफी नहीं होगा।