ओशो कहते हैं हमारा जीवन एक दुर्घटना मात्र है। कब पैदा हुए, कब बड़े हुए और कब मर गए, इसका पता ही नहीं चलता। इस यांत्रिक और संताप से ग्रस्त यात्रा में हम जिन्हें महत्व देते हैं वे हमारे तथाकथित दो कोड़ी के विचार, भावनाएं और एक दूसरे को धोखा देने और खाने की प्रवृत्ति तथा अंधी दौड़। स्वयं को महान समझना अच्छी बात है, लेकिन मुगालते पालना अच्छी बात नहीं।
सजग, सतर्क और सचेत नहीं, जाग्रत रहो...सपने तुम्हें सच लगे या नींद तुम्हें सुला दे तो तुम फिर कैसे कायम करोगे स्वयं का अस्तित्व। नशा तुम्हें हिला दे तो फिर तुम्हारी कोई ताकत नहीं। विचार तुम्हें कट्टर बना दे या भावनाएं तुम्हें भावुक कर दे तो तुम फिर तुम नहीं। ऐसे ही जब मृत्यु आएगी तो तुम्हें मार ही देगी। इसीलिए जरूरी है संबोधि पथ पर चलना। इसे ही कहते हैं...ऑन द वे ऑफ लाइट। ओशो की एक बुक का नाम है...लाइट ऑन द पाथ।
संबोधि शब्द बौद्ध धर्म का है। इसे बुद्धत्व (Enlightenment) भी कहा जा सकता है। देखा जाए तो यह मोक्ष या मुक्ति की शुरुआत है। फाइनल बाइएटिट्यूड या सेल्वेशन (final beatitude or salvation) तो शरीर छूटने के बाद ही मिलता है। हालाँकि भारत में ऐसे भी कई योगी हुए है जिन्होंने सब कुछ शरीर में रहकर ही पा लिया है। फिर भी होशपूर्ण सिर्फ 'शुद्ध प्रकाश' रह जाना बहुत बड़ी घटना है। होशपूर्वक जीने से ही प्रकाश बढ़ता है और फिर हम प्रकाश रहकर सब कुछ जान और समझ सकते हैं।
यांत्रिक जीवन : ओशो कहते हैं हम यांत्रिक ढंग से जीते हैं। सोए-सोए जीते हैं, मूर्छा में जीते हैं। विचार भी हमारी बेहोशी का एक हिस्सा है। आंखें झपकती है, पता ही नहीं चलता। अंगूठा क्यों हिलाते हैं, इसका भी भान नहीं रहना। इसीलिए तो हमारे जीवन में इतना विषाद (Depression) और संताप है। इस संताप और विषाद को मिटाने के हम जो उपाय करते हैं वे हमें अधिक विषाद में ले जाते हैं, क्योंकि वे आत्मविस्मृति (self-abandonment) के उपाय हैं।
कोई शराब पीने लगता है, कोई धन-संपत्ति की तरफ दौड़ने लगता है, कोई राजनीति की पागल दौड़ में संलग्न हो जाता है, कोई किसी और पद के नशे में उन्मत्त होने लगता है। लेकिन कोई भी असली उपाय नहीं कर सकता कि जिससे यह विषाद मिटे और जीवन में आनंद और शक्ति का प्रादुर्भाव हो।
ओशो रजनीश कहते हैं कि महावीर, कृष्ण और बुद्ध की वाणी का सार यह है कि चलो तो होशपूर्वक, बैठो तो होशपूर्वक, उठो तो होशपूर्वक, भोजन करो तो होशपूर्वक। जो भी तुम कर रहे हो जीवन की छोटी से छोटी क्रिया, उसको भी होशपूर्वक किए चले जाओ। क्रिया में बाधा न पड़ेगी, क्रिया में कुशलता बढ़ेगी और होश भी साथ-साथ विकसित होता चला जाएगा। एक दिन तुम पाओगे सारा जीवन होश का एक दीप-स्तंभ बन गया, तुम्हारे भीतर सब होशपूर्वक हो गया है।
जहां-जहां हम अपने को मूर्च्छा में पाएं, हम यांत्रिक हो जाएं, वहीं संकल्पपूर्वक हम अपने स्मरण को ले आएं। यह होश में जीना ही संपूर्ण धर्म के ज्ञान का सार है। होशपूर्वक जीते रहने से ही संबोधि का द्वार खुलता। यह क्रिया ही सही मायने में स्वयं को पा लेने का माध्यम है। दूसरा और कोई माध्यम नहीं है। सभी ध्यान विधियां इस जागरण को जगाने के उपाय मात्र हैं।
क्या होती है संबोधि : संबोधि निर्विचार दशा है। इसे योग में सम्प्रज्ञात समाधि का प्रथम स्तर कहा गया है। इस दशा में व्यक्ति का चित्त स्थिर रहता है। शरीर से उसका संबंध टूट जाता है। फिर भी वह इच्छानुसार शरीर में ही रहता है। यह कैवल्य, मोक्ष या निर्वाण से पूर्व की अवस्था मानी गई है।
स्थिर चित्त : विचार और भावनाओं के जंजाल में हम कहीं खो गए हैं। आत्मा पर हमारी इंद्रियों की क्रिया-प्रतिक्रिया का धुआं छा गया है। साक्षी भाव का मतलब होता है निरंतर स्वयं को जानते हुए देखते रहना। जीवन एक देखना ही बन जाए। होशपूर्वक और ध्यानपूर्वक देखना, जानना और समझना।
देखते हुए यह भी जानना की मैं देख रह हूं आंखों से। देखते रहने की इस प्रक्रिया से चित्त स्थिर होने लगता है। यह स्थिरता जब गहराती है तो साक्षित्व घटित होने लगता है। साक्षित्व भाव जब गहराने लगता है तब संबोधि घटित होती है। प्रत्येक आत्मा का लक्ष्य यही है। कुछ इस लक्ष्य को जानते हैं तो अधिकतर नहीं।