भाजपा के प्रशंसकों को यह शीर्षक हैरत में डाल सकता है, लेकिन राज्य में जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उससे तो यही लगता है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भाजपा को गुजरात में जीतता हुआ नहीं देखना चाहते हैं। इसका बड़ा कारण शाह और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल के खराब संबंधों को बताया जा रहा है।
गुजरात के राजनीतिक गलियारों में इस तरह की चर्चा है कि शाह और आनंदी बेन के बीच तल्खी अभी बरकरार है। ऐसे में वे चाहते हैं कि भाजपा इस वर्ष के अंत में होने विधानसभा चुनाव में मुंह की खाए। भाजपा से जुड़े नेता भी दबी जुबान में यह कह रहे हैं कि पर्दे के पीछे से अमित शाह अपनी योजना को अंजाम दे रहे हैं। गुजराती वेबसाइट मेरा न्यूज के मुताबिक अमित शाह और आनंदी बेन के रिश्तों में अभी भी खटास बरकरार है।
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी की मंशा के मुताबिक गुजरात की कुर्सी आनंदी बेन पटेल को मिली थी। ऐसा कहा जाता है कि पार्टी का यह फैसला अमित शाह को रास नहीं आया था। बाद में स्थितियां ऐसी बनीं कि आनंदी बेन को कुर्सी छोड़ना पड़ी और अमित शाह के करीबी विजय रूपाणी मुख्यमंत्री बनाए गए। जानकार तो यह भी कहते हैं कि खुद अमित शाह गुजरात में मोदी का उत्तराधिकारी बनना चाहते थे और आनंदी बेन की रवानगी के पीछे भी उनका ही हाथ था।
बताया जाता है कि मोदी शाह को इसीलिए दिल्ली ले गए कि वे आनंदी बेन के लिए परेशानी का कारण नहीं बनें। अब आनंदी बेन को राज्य में चुनाव की कमान मिलने से एक बार फिर दोनों दिग्गज आमने सामने हैं। यह जिम्मेदारी आनंदी बेन को इसलिए भी सौंपी गई है क्योंकि वे राजनीतिक बर्चस्व वाले पटेल समुदाय से आती हैं। इसी के चलते अमित शाह को आनंदी बेन के साथ मजबूरी में बैठकें तो हुई हैं मगर दोनों के बीच की दूरियां कम नहीं हुई हैं।
कहा तो यह भी जा रहा है कि पाटीदारों के आंदोलन को शांत करने में असफल रही आनंद बेन को चुनाव की कमान सौंपने के पीछे मोदी की ही चाल है। यदि गुजरात में फिर से भाजपा जीतती है तो कोई आश्चर्य नहीं कि राज्य की कमान एक बार फिर आनंदी बेन पटेल के हाथ में आ जाए। ऐसे में अमित शाह का मुख्यमंत्री बनने का सपना एक बार फिर अधूरा नहीं रह सकता है।
चर्चा तो यह भी है कि पाटीदार आंदोलन को पर्दे के पीछे से सहयोग करने वाले 267 लोगों की जानकारी शाह ने निकाल ली है और उन पर नकेल कसने की भी तैयारी कर ली है। हालांकि राजनीतिक पैंतरेबाजी तो चुनाव तक ऐसे ही चलेंगी, मगर हकीकत तो परिणाम के बाद ही सामने आएगी।