Bihar Politics : आनंद मोहन की रिहाई के पीछे का सच हैरान करने वाला है! जातीय समीकरण के सियासी पेच में उलझी बाहुबली की आजादी

रविवार, 30 अप्रैल 2023 (00:05 IST)
नई दिल्ली। Anand Mohan Singh : राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दागी नेता आनंद मोहन सिंह की जेल से रिहाई से जद(यू)-राजद गठबंधन को राजपूत समुदाय का कुछ समर्थन मिल सकता है, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में नए जातीय समीकरण उभरने से स्थिति लगातार बदल रही है।
 
पूर्व सांसद को गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के मामले में 15 साल तक जेल में रहने के बाद गुरुवार को सहरसा जेल से रिहा कर दिया गया। कृष्णैया को 1994 में मुजफ्फरपुर जिले में भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था और घटना के समय आनंद मोहन सिंह भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे।
 
आनंद मोहन की सजा में छूट से पहले बिहार जेल नियमावली में संशोधन कर ड्यूटी पर तैनात लोक सेवक की हत्या में शामिल लोगों की जल्द रिहाई पर लगाया गया प्रतिबंध हटा दिया गया।
 
भले ही इस फैसले के लिए बिहार सरकार की आलोचना हुई हो, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस कदम का बचाव किया है।
 
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इससे सत्तारूढ़ गठबंधन को चुनावी तौर पर फायदा हो सकता है। हालांकि, राज्य में राजनीतिक जुड़ाव से महागठबंधन और मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नए जातिगत समीकरणों की तलाश में हैं।
 
राजनीतिक टिप्पणीकार मणिकांत ठाकुर का कहना है कि यह बिहार में सामुदायिक राजनीति का दूसरा उभार हो सकता है, जहां सभी दल अपने पारंपरिक मतदाताओं के अलावा अन्य समुदायों से समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
 
ठाकुर ने कहा कि आनंद मोहन की रिहाई का असर बिहार की राजनीति पर जरूर पड़ेगा। इस पर राजपूत लॉबी लंबे समय से काम कर रही है। यादव-मुस्लिम गठजोड़ को छोड़कर राजद को कोई अतिरिक्त समर्थन नहीं मिल रहा है। जद (यू) महसूस कर रहा है कि ईबीसी (आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियां) के एक वर्ग पर भाजपा ने नियंत्रण बना लिया है। जद (यू) अपने साथ जोड़ने के लिए किसी और वर्ग की तलाश में था। संभवत: राजपूत लॉबी अब जद(यू) की ओर जाएगी।
ALSO READ: जी कृष्णैया की पत्नी उमा ने आनंद मोहन की रिहाई को SC में दी चुनौती, दोबारा जेल भेजने की मांग
उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि राजपूत लॉबी ने नीतीश कुमार को राजी कर लिया और वह सहमत हो गए। मुद्दा यह है कि क्या भाजपा की वृहद राजनीति उंची जाति को इस गठबंधन की ओर बढ़ने देगी या नहीं, यहीं पर दुविधा है।
 
जनवरी में, जनता दल (यूनाइटेड) ने राजपूत राजा महाराणा प्रताप की पुण्यतिथि पर पटना में राष्ट्रीय स्वाभिमान दिवस मनाने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया, इस कार्यक्रम में लोगों ने आनंद मोहन की रिहाई की मांग की। मुख्यमंत्री ने मोहन के समर्थकों को आश्वासन दिया था कि सरकार इस पर काम कर रही है।
हालांकि ठाकुर ने कहा कि मोहन का प्रभाव सहरसा के आसपास के क्षेत्रों तक सीमित रह सकता है, और शायद दक्षिण बिहार के जातिगत समीकरण, या राज्य में ऊंची जाति के मतदाताओं पर असर नहीं पड़ेगा।
 
मोहन सहरसा जिले के पंचगछिया गांव का निवासी है और कोसी क्षेत्र में उसका प्रभाव है, जिसमें सुपौल और मधेपुरा जिला भी शामिल हैं।
 
ठाकुर ने कहा कि बिहार में 2024 से पहले कुछ नए जातीय समीकरण उभर सकते हैं। हम निश्चित रूप से कह नहीं सकते कि क्या होगा। यदि राजद-जद(यू) साथ रहते हैं, तो जद(यू) के कारण कुछ उच्च जाति के वोट राजद से जुड़ सकते हैं। यह पल-पल बदलती स्थिति है। राजद और जद (यू) के बीच आंतरिक विरोधाभास भी है, जिसका भाजपा फायदा उठाने की कोशिश कर रही है।
 
उन्होंने कहा कि बिहार में सामुदायिक राजनीति में यह एक नया मोड़ है। यह सामुदायिक राजनीति का दूसरा उभार है।’
 
पटना स्थित ‘ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज’ के पूर्व निदेशक डी एम दिवाकर का मानना है कि यह कदम राजनीतिक है और इससे सत्तारूढ़ गठबंधन को फायदा हो सकता है, लेकिन यह पूरे राजपूत समुदाय का समर्थन पाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
 
दिवाकर ने कहा कि इस कदम का समय महत्वपूर्ण है। रघुवंश बाबू के बाद एक समुदाय विशेष के वोट की कमी महसूस की जा रही थी और राजद को उस समुदाय के नेता की तलाश थी।
 
वर्ष 2019 में, मध्य बिहार के राजपूत वर्ग के नेता जगदानंद सिंह राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रदेश अध्यक्ष बने, जो पार्टी में यह पद संभालने वाले उच्च जाति के पहले नेता थे।
 
दिवाकर ने कहा कि मोहन की जेल से रिहाई इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है। हालांकि, उन्होंने कहा कि वे (पाटियां) महसूस कर सकती हैं कि समुदाय के वोट गोलबंद हो सकते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है। आज के लोकतंत्र में मतदाता केवल जाति के आधार पर गोलबंद नहीं होते, जब तक कि कोई रॉबिन हुड छवि वाला न आ जाए।
 
उन्होंने कहा कि महागठबंधन इसे भुना सकता है, लेकिन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि (अन्य) राजनीतिक दल इस हालात से कैसे निपटते हैं। विपक्षी दल भी चुप नहीं रहेगा।
 
दिवाकर ने कहा कि मोहन पर दलित समुदाय के आईएएस अधिकारी की हत्या का आरोप लगाया जाना एक अन्य कारक है, और दलित समुदाय इस पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं, यह देखा जाना बाकी है।
 
कानून और व्यवस्था के नजरिए से फैसले के सामाजिक प्रभाव के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि सजा काटने के बाद रिहा होना सभी नागरिकों को दिया गया कानूनी अधिकार है।
 
दिवाकर ने कहा कि स्थिति को लेकर एक दृष्टिकोण यह है कि यह अपराधियों को बढ़ावा देगा, लेकिन उस स्थिति में कानूनी व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता होगी, क्योंकि संविधान अपराधियों को उनकी सजा पूरी करने के बाद रिहा होने का अधिकार देता है।
 
ठाकुर ने यह भी कहा कि आपराधिक पृष्ठभूमि होने से नेताओं की लोकप्रियता प्रभावित नहीं होती है, इसलिए राजनीतिक दलों को इस तरह के कदमों से अपनी छवि खराब होने की चिंता नहीं है।
 
उन्होंने कहा कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार मतदाताओं को प्रभावित नहीं करते हैं। संभवत: शहरी मतदाताओं के लिए जो अपराध है, वह उनके समर्थन समूहों के लिए रॉबिन हुड वाली छवि है।
 
चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में जीतने वाले लगभग 68 प्रतिशत उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की घोषणा की थी। भाषा Edited By : Sudhir Sharma

वेबदुनिया पर पढ़ें

सम्बंधित जानकारी