रिश्ते केवल सामाजिक व्यवस्थाओं की धुरी ही नहीं हैं, वे इंसानियत के क्रमशः विकास के महत्वपूर्ण उत्प्रेरक भी हैं। मोटे-मोटे रूप में रिश्तों को प्राकृतिक या पारिवारिक या खून के रिश्ते व परिस्थितिजन्य रिश्तों की श्रेणी में रखा जाता है।
वैवाहिक रिश्ते आरंभ में परिस्थितिजन्य होते हैं व बाद में यही रिश्ता प्राकृतिक व पारिवारिक रिश्ता भी बन जाता है। इसी तरह कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जो बीतते समय के साथ वैवाहिक रिश्तों की तरह मजबूती प्राप्त नहीं कर पाते, अपितु वे समय के साथ भुला-से दिए जाते हैं।
इनमें प्रायः सफर के रिश्ते, शिक्षा जीवन के रिश्ते आते हैं। जिन दोस्तों के बिना शिक्षा जीवन का एक दिन भी गुजरता नहीं लगता है, वे ही दोस्त बाद के जीवन में केवल यादों के केंद्र होकर रह जाते हैं।
रिश्तों के बिना मानव जीवन की कल्पना ही करना असंभव-सा है। रिश्ते ही मानव की उपत्ति से लेकर निर्माण व निर्वाण तक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं।
रिश्तों में जब तक प्रामाणिक अपनत्व व प्रेम नहीं हो, तब तक तो मानवता के सर्वोच्च रिश्ते माँ-बेटा (बेटी) का रिश्ता भी अपनी सार्थकता प्राप्त नहीं कर पाता। बाकी रिश्ते तो खैर इसके आगे गौण ही हैं।
इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर या इसकी शुचिता, पवित्रता को लेकर कई बार हम गंभीर नहीं रह पाते हैं। खासकर जब किसी नए रिश्ते का सूत्रपात करते हैं, तब हम रिश्तों को कुछ इस तरह से तौलने-मोलने लग जाते हैं कि उसमें स्वार्थ का प्रवेश हो जाता है, विशेषकर विवाह के रिश्तों में। इस रिश्ते को स्थापित करने में कई बार नजरिया खूबसूरती, दौलत, साधनों की सुविधा, प्रतिष्ठा आदि के आसपास केंद्रित होकर रह जाता है।
यह नजरिया हमें इतना आगे ले जाता है कि हम रिश्तों के प्राण कहे जाने वाले अपनत्व व प्रेम की आवश्यकता को ही भूल जाते हैं। यह भी भूल जाते हैं कि रिश्तों में योग्यता की भी आवश्यकता होती है। साधन, धन आदि को ही हम योग्यता मानने लगते हैं, जबकि हमारा आध्यात्मिक बोध व व्यावहारिक ज्ञान हमें बताता है कि बिना विनम्रता का ज्ञान अज्ञानता से भी ज्यादा हानिकारक है या कि धन का मद संसार के किसी भी मद से ज्यादा नुकसानदायक है।
रिश्तों में जब तक प्रामाणिक अपनत्व व प्रेम नहीं हो, तब तक तो मानवता के सर्वोच्च रिश्ते माँ-बेटा (बेटी) का रिश्ता भी अपनी सार्थकता प्राप्त नहीं कर पाता। बाकी रिश्ते तो खैर इसके आगे गौण ही हैं।
यह इसलिए जरूरी है कि रिश्ते केवल एक पक्ष या हिस्से को प्रभावित नहीं करते। वे दोनों पक्षों के कई-कई क्षेत्रों को सीधे तौर पर व भावनात्मक तौर पर प्रभावित करते हैं। इनमें आया अभाव हमारे अपने व हमारे आसपास के सामाजिक तंत्र को सीधे चोट पहुँचाता है। आघात करता है। ऐसे आघात सामाजिक वैल्यू को रसातल में पहुँचा देते हैं। इसके लिए कहीं न कहीं परोक्ष रूप से रिश्तों के प्रति हमारा उत्तरदायित्व भी जिम्मेदार रहता है।
सीधी बात है कि रिश्तों में व्यक्तिगत स्वार्थ व जिम्मेदारी का अभाव पूरी प्राकृतिक या परंपरागत व्यवस्था व आसपास की व्यवस्था को तोड़ देता है।
जरूरी है कि हम अपने हर रिश्ते में अपनत्व, प्रेम, जिम्मेदारी का समावेश आवश्यकतानुसार अवश्य करते रहें ताकि रिश्तों की हमारी अपनी दुनिया हमेशा खिली-खिली रहे, महकती रहे व उसकी सुरभि का अहसास हमें ऊर्जा देता रहे।