परमात्मा अनंत शक्तियों और वरदानों का भंडार हैं, परंतु प्रश्न यह उठता है कि इन शक्तियों और वरदानों को प्राप्त करने वाला कौन है? जैसे बरसात पड़ती है तो प्यासी धरती उसे सोख लेती है और बदले में हरी भरी होकर जगत की पालन करती है। सूर्य की धूप आती है उसे मानव शरीर, पेड़-पौधे, जीव-जंतु ग्रहण कर उपयोग में लाते हैं।
हवा चलती है उससे भी मानव तथा पर्यावरण लाभान्वित होता है। ये सब भौतिक शक्तियाँ हैं जिन्हें स्थूल जगत प्राप्त करता है और अपनी क्रियाओं को चलाता है, परंतु ईश्वरीय शक्तियाँ और वरदान तो सूक्ष्म हैं। उन्हें प्राप्त करने वाली कोई सूक्ष्म सत्ता ही होनी चाहिए। यह सूक्ष्म सत्ता कौन है?
वास्तव में मानव शरीर स्थूल और सूक्ष्म दो शक्तियों से जीवित है। स्थूल है यह शरीर और सूक्ष्म है आत्मा। आत्मा एक ऊर्जा है, जो भौतिक शरीर की भृकुटी में स्थित हो इसे संचालित करती है। यह अति सूक्ष्म, स्थूल नेत्रों द्वारा न देखी जा सकने वाली अति शक्तिशाली सत्ता है।
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यह रूप में ज्योतिबिंदु है और मन, बुद्धि, संस्कार सहित है। सोचना, याद रखना, निर्णय करना, कल्पना करना आदि सभी गुण इस चेतन आत्मा के ही हैं। ईश्वरीय शक्तियों और वरदानों को ग्रहण करने वाली यह आत्मा ही है। इनकी प्राप्ति के लिए आत्मा मन, बुद्धि व संस्कार सहित इंद्रियों से न्यारी हो जाती है। इस अवस्था में इसकी ग्रहण शक्ति असीमित हो जाती है। अब आत्मा का पिता तो परमात्मा ही होना चाहिए।
परम का अर्थ है सर्वोच्च। संसार में अनेकानेक आत्माएँ हैं, जैसे देवात्मा, महात्मा, पुण्यात्मा और साधारण आत्मा। जैसे कोर्ट कई होती हैं, पर सुप्रीम कोर्ट एक ही होती है। मंत्री कई होते हैं, परंतु प्रधानमंत्री एक होता है। ऐसे ही करोड़ों आत्माओं में जो सुप्रीम है, प्रधान है, मुख्य है वही परमपिता परमात्मा है। शक्ति प्राप्त करने में बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है, परंतु वरदान का अर्थ है बिना मेहनत या पुरुषार्थ किए सहज और अनायास होने वाली प्राप्ति। आत्मानुभूति परमात्मानुभूति तथा जीवन मुक्ति का अनुभव एक सेकंड में कर लेना ही उनका वरदान है।
आत्मा के जनम-जनम के विकार और पाप उनकी परम स्नेही दृष्टि मात्र से ही समाप्त हो जाते हैं। उनके वरदानों से आत्मा की आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की दरिद्रताएँ समाप्त हो जाती हैं। ईश्वर के सम्मुख आना ही वरदान पाना है।
मन एकाग्र हो जाना, दिव्यता का प्रकाश मन में खिल जाना, मन का सकारात्मक और शक्तिशाली बन जाना, बोल का वरदानी बन जाना और दृष्टि में रहम तथा कल्याण की भावना आ जाना ये सब ईश्वरीय वरदानों का ही प्रतिफल हैं। जिसका जितना दिल का स्नेह है उतनी ही उसे वरदानों की प्राप्ति होती है।
वरदाता के वरदानों का अनुभव करने के लिए दिल बहुत सच्चा व साफ होना चाहिए। अंदर से एक बाहर से दूसरा रूप न हो। कथनी-करनी समान हो। एक बल, एक भरोसा, इसी आधार पर चलते रहें। जिनके पास दिखावा नहीं है, जो पूरा समर्पण करते हैं, परमात्मा की अमानत में खयानत नहीं करते, उन्हें हर कदम में ईश्वरीय वरदानों की अनुभूति होती है। जीवन ही वरदानी बन जाता है।