गौतम बुद्ध ने मित्र और अमित्र की पहचान खूब बारीकी से की हैं, उन्होंने हमें समझाया है कि कैसे सच्चे मित्र को पहचानें और किसे समझे अपना शत्रु। बुद्ध के अनुसार दूसरे के धन को अपना समझने वाला, बातूनी, खुशामदी और गलत मार्ग पर ले जाने वाला तथा धन के नाश में सहायता करने वाला मित्र आपका कभी भी भला नहीं सोच सकता, अत: ऐसे व्यक्ति को मित्रहीन मानते हुए उसका परित्याग करना उचित रहता हैं।
मित्र और मित्रहीन की पहचान कैसे करें-
सच्चा स्नेही या सुहृदय मित्र के 4 प्रकार- * सच्चा उपकारी, * सुख-दुख में समान साथ देने वाला, * अर्थ प्राप्ति का उपाय या रास्ता बताने वाला, * सदा दया करने वाला।
इन 4 तरह के लोगों को मित्र के रूप में अमित्र समझना चाहिए- * दूसरों का धन हड़पने वाला, * नुकसानदेह कामों में सहायता देने वाला, * निरर्थक बातें बनाने वाला, * हमेशा मीठी-मीठी बातें करके चापलूसी करने वाला।
जानिए यहां मित्रता पर बुद्ध के 12 विचार-
1. जो मित्र की बढ़ती प्रगति देखकर प्रसन्न होता है, मित्र की निंदा करने वाले को रोकता है और प्रशंसा करने पर प्रशंसा करता है, वही अनुकंपक मित्र है। ऐसे मित्रों की सत्कारपूर्वक माता-पिता और पुत्र की भांति सेवा करनी चाहिए।
2. जो अपना गुप्त भेद मित्र को बतला देता है, मित्र की गुप्त बात को गुप्त रखता है, विपत्ति में मित्र का साथ देता है और उसके लिए अपने प्राण भी होम करने को तैयार रहता है, उसे ही सच्चा और सबसे प्यार करने वाला समझना चाहिए।
3. जो पाप का निवारण करता है, पुण्य का प्रवेश कराता है और सुगति का मार्ग बताता है, वही 'अर्थ-आख्यायी', अर्थात अर्थ प्राप्ति का उपाय बतलाने वाला सच्चा स्नेही है।
4. मित्र उसी को जानना चाहिए जो उपकारी हो, सुख-दुख में हमसे समान व्यवहार करता हो, हितवादी हो और अनुकंपा करने वाला हो।
5. यदि कोई होशियार, सुमार्ग पर चलने वाला और धैर्यवान साथी मिल जाए तो सारी विघ्न-बाधाओं को झेलते हुए भी उसके साथ रहना चाहिए।
6. जो छिद्रान्वेषण या दोष ढूंढ़ने का कार्य करता है और मित्रता टूट जाने के भय से सावधानी बरतता है, वह मित्र नहीं है। जिस प्रकार पिता के कंधे पर बैठकर पुत्र विश्वस्त रीति से सोता है, उसी प्रकार जिसके साथ विश्वासपूर्वक बर्ताव किया जा सके और दूसरे जिसे तोड़ न सकें, वही सच्चा मित्र है।
7. जो मदिरापान जैसे गलत कामों में साथ और आवारागर्दी में बढ़ावा देकर कुमार्ग पर ले जाता है, वह मित्र नहीं, अमित्र है। अत: ऐसे शत्रु-रूपी मित्र को खतरनाक रास्ता समझकर उसका साथ छोड़ देना चाहिए।
8. जो प्रमत्त अर्थात भूल करने वाले की और उसकी सम्पत्ति की रक्षा करता है, भयभीत को शरण देता है और सदा अपने मित्र का लाभ दृष्टि में रखता है, उसे उपकारी और अच्छे हृदय वाला समझना चाहिए।
9. जगत में विचरण करते-करते अपने अनुरूप यदि कोई सत्पुरुष न मिले तो दृढ़ता के साथ अकेले ही विचारें, मूर्ख (नासमझ, मूढ़) के साथ मित्रता नहीं निभ सकती।
10. अकेले विचरना अच्छा है, किंतु मूर्ख मित्र का साथ अच्छा नहीं।
11. जो बुरे काम में अनुमति देता है, सामने प्रशंसा करता है, पीठ पीछे निंदा करता है, वह मित्र नहीं, अमित्र है।
12. जो मद्यपानादि के समय या आंखों के सामने प्रिय बन जाता है, वह सच्चा मित्र नहीं। जो काम निकल जाने के बाद भी मित्र बना रहता है, वही मित्र है।