मौसम कहर न ढा जाए कहीं

डॉ. आरके पचौर
(नोबल पुरस्कार विजेता, संरा की ग्‍लोबल वार्मिंग अंतरराष्ट्रीय पेनल के चेयरमैन)

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संयुक्त राष्ट्रसंघ के मौसम परिवर्तन समझौते (यूएनएफसीसीसी) के सदस्यों का हाल ही में बाली (इंडोनेशिया) में संपन्न तेरहवाँ सम्मेलन मौसम परिवर्तन से मुकाबले की दिशा में एक उल्लेखनीय कदम रहा। कई सरकारें तथा कुछ औद्योगिक संस्थान भी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जनमें कमी लाने के लिए अपने क्षेत्राधिकार में प्रयास कर ही रहे हैं। लेकिन इस वैश्विक समस्या से जुड़ी जटिलताएँ कुछ ऐसी हैं कि इसकी चुनौती का सामना करने के लिए एक बहुपक्षीय समझौते की जरूरत है। यूएनएफसीसीसी तथा क्योटो संधि के तहत सन्‌ 2009 तक ऐसे ही एकसमझौते को लागू किया जाना प्रस्तावित है।

मौसम परिवर्तन की वैश्विक समस्या की गंभीरता को समझना जरूरी है। मौसम परिवर्तन पर अंतर शासकीय पेनल (आईपीसीसी) की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि धरती का तापमान निश्चित रूप से बढ़ रहा है और बीसवीं सदी के मध्य से दिखाई दे रही इस वृद्धि का कारण मुख्यतः ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि है। इस सदी के अंत तक विश्व के तापमान में 1.8 से 4.0 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि अनुमानित है। बीसवीं सदी में करीब 0.74 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई थी। इस वृद्धि के अनेक दुष्प्रभाव होंगे। मौसम परिवर्तन किसी निश्चित गति से और किसी निश्चित दिशा में नहीं होगा। हमारे सामने ग्रीष्म लहर, सूखे, बाढ़ तथा अतिवृष्टि की बढ़ती तीव्रता एवं आवृत्ति के सबूत मौजूद हैं। हिमनदों के पिघलने और विश्व भर में पानी की बढ़ती तंगी की समस्याएँ भी हमारे सामने है। समुद्री सतह केबढ़ते स्तर के कारण हमारे लंबे समुद्र तट ही नहीं, बल्कि पड़ोस के बांग्लादेश और मालदीव में भी गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे।

भारतीय कृषि भी मौसम परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी। गेहूँ जैसी कुछ फसलों की उत्पादकता में गिरावट देखी ही जा रही है। हमारे कृषक समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा पूरी तरह वर्षा पर ही निर्भर है। अतः वर्षा में अनियमितता एवं पानी की उपलब्धि की अनिश्चितता सेलगभग 50 करोड़ लोगों की आजीविका प्रभावित होगी। उल्लेखनीय है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता को आज ही स्थिर कर दिया जाए, तो भी हमें कई दशकों तक मौसम परिवर्तन का सामना करना पड़ेगा। अतः तमाम देशों को इस परिवर्तन के अनुसार स्वयं को डालना हीहोगा। हमें अपने जल संसाधनों का उपयोग कहीं अधिक कुशलता के साथ करना होगा। इसी प्रकार बढ़ते तापमान और विशेष तौर पर तटीय इलाकों के आसपास बढ़ते समुद्री जल स्तर की वजह से पानी के बढ़ते खारेपन को ध्यान में रखते हुए कृषि गतिविधियों में भी परिवर्तन करना होगा।

इस परिदृश्य में जाहिर है कि वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता को स्थिर करना बहुत जरूरी है। बाली में विभिन्ना देशों ने इस दिशा में काम करने हेतु अपनी तत्परता प्रकट की। कुछ देश 2020 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती के निश्चित लक्ष्य तय करने हेतु किसी समझौते पर पहुँचने को उत्सुक थे। तीन-चार देश ऐसे लक्ष्य निर्धारित करने के सख्त खिलाफ थे। अंततः बाली कार्य योजना में एक खास शब्दावली पर सहमति बनी जिसके अनुसार,'समझौते के उद्देश्य तक पहुँचने के लिए वैश्विक उर्त्सजन में व्यापक कटौती की जरूरत होगी।' चीन औरभारत जैसे बड़े विकासशील देशों द्वारा कुछ प्रतिबद्धता स्वीकार करने को लेकर भी काफी बहस हुई। अंततः इस बात पर सहमति बनी कि उत्सर्जन में कटौती हेतु राष्ट्रीय स्तर पर उचित कार्रवाई की जाए। अतः अब यह जरूरी है कि भारत विकास के उस ढर्रे से अलग हटने के उपाय सोचे, जिसके समाज के समग्र कल्याण पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं। भारत का रवैया लगातार यह रहा है कि उत्सर्जन में कमी की दिशा में पहले कदम विकसित देश उठाएँ। यह रवैया अपनी जगह बिलकुल उचित है मगर यदि हमने स्वयं अपने यहाँ लंबे समय तक चल सकने वाले विकास मॉडल कीस्थापना नहीं की तो आज तथा आने वाले कल में भी हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। भारत विश्व में जो परिवर्तन देखना चाहता है, उसकी मिसाल उसे स्वयं पेश करनी होगी।

ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टीईआरआई) 'वैश्विक दीर्घकालिक विकास हेतु कार्य करने एवं बेहतर कल के लिए उन्नात उपायों की खोज' के अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम कर रहा है। इस हेतु वह 2001 से प्रति वर्ष दिल्ली दीर्घकालिक विकास शिखर सम्मेलन (डीएसडीएस) का आयोजन करता है। इसमें विकास से जुड़े प्रमुख मुद्दों को उठाया जाता है। इस शिखर सम्मेलन में अब तक 60 से अधिक देशों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। शासन प्रमुखों और मंत्रियों से लेकर नोबेल विजेताओं, वैज्ञानिकों, कॉर्पोरेट प्रमुखों आदि ने इसमें हिस्सेदारीकी है। इनमें प्रमुख हैं : प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन, ब्रिटिश विदेश मंत्री मार्गरेट बैकेट, विश्व वन्यजीव कोष के पूर्व महानिदेशक डॉ. क्लॉड मार्टिन, महिन्द्रा एंड महिन्द्रा के वाइस चेयरमैन आनंद महिन्द्रा, एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख, आयरलैंड के राष्ट्रपति डॉ. ओलाफर ग्रिमसन, आदित्य बिड़ला समूह की चेयरपर्सन राजश्री बिड़ला, जॉर्डन के राजकुमार अल हसन बिन तलाल, टोयोटा मोटर कॉर्पोरेशन के मानद चेयरमैन डॉ. शोईचिरो टोयोटा, जापान के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. रियुतारो हाशीमोतो आदि।

इस वर्ष 7 से 9 फरवरी तक होने वाले शिखर सम्मेलन का मुख्य विषय 'दीर्घकालिक विकास और मौसम परिवर्तन' है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि मौसम परिवर्तन की समस्या औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के समय से चली आ रही विकास की गलत परिपाटी की ही परिणाम है। इसके विपरीत मौसम परिवर्तन के प्रभाव अनेक समाजों के लिए निरंतर विकास करने के विकल्पों एवं अवसरों को कम कर देंगे। अतः सरकारों, उद्योग-व्यापार जगत, अनुसंधानकर्त्ताओं, शैक्षणिक समुदाय तथा नागरिक समाज को इस विषय से जुड़े सभी पहलुओं को गहराई से समझना होगा।