किसी भी स्थिति को देखने के लिए दृष्टिकोण दो तरह का हो सकता है। एक, स्थूल या सतही या दो, सूक्ष्म और गहरा। दैनंदिनी जीवन में देश की आजादी यदि सर्वव्यापी दिखाई दे रही है तो यह उसका एक पक्ष है। सूक्ष्म दृष्टि बार-बार इस अहसास को दोहराती है कि यह दृश्य सतही है। नीचे कहीं गहरे, रोजमर्रा के जीवन में यही आजादी अमर्यादित और कभी-कभी तो बेलगाम स्वच्छंदता के अनुभव से पीड़ित और निराश करती है।
निश्चित रूप से, भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भावनाओं और कर्मों की कसौटी पर एक मजबूत व सुगठित राष्ट्र निर्माण के लिए ऐसी स्वच्छंदता को अपना लक्ष्य अथवा मूलमंत्र नहीं माना था। फिर कहाँ चूक हुई और क्यों यह अनुभव होता है कि वही देश है, वही संविधान है लेकिन आजादी अपने सही स्वरूप में फलीभूत नहीं हुई है? आजाद भारत बनाने के अपेक्षित लक्ष्य की ओर ऐसी रफ्तार से नहीं बढ़ा जा सका है कि देश सुगठित स्वरूप में स्वाभिमानी बन सके। छपे शब्द स्वयं ही अपनी दिशा तय नहीं करते हैं।
वे तो सही और गलत दिशा का संकेत देते हैं या उसे परिभाषित करते हैं ताकि पढ़ने वाले भटके नहीं, गुमराह नहीं हों। उसकी चाहत, संदेशों व संकेतों से अपने संसार की रचना कर सकें। भारतीय संविधान को भी पढ़ा गया। उसे अब भी पढ़ा जा रहा है। लेकिन अचरज का विषय हो सकता है कि देश के उस बहुसंख्यक आम आदमी को संविधान ऐसी भावना व भाषा में पढ़ने को नहीं मिलता है जो इस राष्ट्र ग्रंथ में गणतंत्र की मूल इकाई की कल्पना के रूप में दर्ज है और आबादी के बड़े हिस्से को संविधान के प्रति जागृत कर देश निर्माण के लिए निःस्वार्थ रूप से प्रतिबद्ध कर सके। संविधान पर अमल करवाने वालों के कर्म आबादी के मानस में संविधान को मंदिर की आस्था के रूप में नहीं पिरो सके हैं। आजादी को अमर्यादित व लचीले अनुशासन से ग्रसित समझ लेने की भूल के विकराल होने का यह एक महत्वपूर्ण और गंभीरता से विचारने का मुद्दा है।
आचार्य दुर्गादास बसु ने अपनी पुस्तक 'भारत का संविधान- एक परिचय' के पहले अध्याय 'ऐतिहासिक पृष्ठभूमि' का प्रारंभ करते हुए लिखा है 'भारतीय गणतंत्र का संविधान राजनीतिक क्रांति का परिणाम नहीं है। यह जनता के मान्य प्रतिनिधियों के निकाय के अनुसंधान और विचार-विमर्श के परिणामस्वरूप जन्मा है।' इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है। न भारत का संविधान, न ही इसकी गणतांत्रिक व्यवस्था, राजनीति का परिणाम है।
सीधे-सीधे और शुद्ध रूप से यह भारतीय नागरिकों की तब की तात्कालिक भावनाओं से अधिक जुड़ी हुई कल्पनाओं से भी प्रभावित रहा है। तभी तो कहा गया है, 'जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा- वही सच्चा गणतंत्र।' क्या इस वक्त गणतंत्र इस कसौटी पर खरा उतर रहा है? यह प्रश्न न केवल उस जन की उलझन है जो संविधान की नींव में ईंट बन जुड़ा है बल्कि यह खुद संविधान की भी पीड़ा है जो प्रक्रियाओं, परिणामों में समय-समय पर व्यक्त होती रहती है।
शायद महात्मा गाँधी को आभास था, हिन्दुस्तानी सोच का। इसीलिए 1939 में कहा था कि ‘कागजी तौर पर अच्छा होना पर्याप्त नहीं है, उसे यथार्थवादी भी होना चाहिए।’ वर्तमान दौर में संविधान इसी संकट से गुजरता दिखाई देता है। संविधान में सौ से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं। फिर भी देश में संवैधानिक स्थिति समग्र रूप में स्थापित नहीं हो सकी है। संविधान के पालक की दृष्टि और व्यवहार में आदर्श, अनुशासनहीनता, निज हित, संकुचित स्वार्थ भाव का बाहुल्य हो गया है। वह संविधान के प्रति पारदर्शी स्वरूप में यथार्थवादी न रहकर राजनीतिक प्राथमिकता के प्रति सजग है।
जनचेतना के लिए संघर्ष करने वाले चिंतक रॉल्फ नाडार इशारा नहीं करते, महात्मा गाँधी व्याख्या नहीं करते और भारत को अनुभव का अवसर नहीं मिलता तो यह समझना शायद कठिन होता कि, 'दैनंदिनी जीवन में नागरिकता के बिना दैनिक लोकतंत्र संभव नहीं है।' इसमें भाव है जवाबदार, स्वरूप में ईमानदारी से सकारात्मक सोच और कर्तव्यबोध के प्रति जागरूक नागरिकता का।
दैनंदिनी जीवन में संविधान का मूल स्वरूप बुनियादी अधिकारों के माध्यम से व्यक्त होता है। यदि दैनिक जीवन के संदर्भ और अनुभव में आम और खास दोनों श्रेणी के नागरिक के मन में मौके-बेमौके यह भाव उभरता है कि ऐसी आजादी से तो गुलामी अच्छी थी (फिर वह भले ही सांकेतिक स्वरूप में ही क्यों न हो) तो यह राष्ट्र निर्माण के लिए खतरनाक है। गणतंत्र पर इससे बड़ा संदेह और कुछ नहीं हो सकता है।
यदि न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर कहते हैं कि 'हम संविधान की कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं' तो नाडार के शब्द पुनः गूँजते हैं कि दैनिक नागरिकता ही दैनिक गणतंत्र का आधार है। जिम्मेदारी के दो पहलू परस्पर पूरक हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि बुनियादी अधिकारों की दुर्दशा हो रही है तो संविधान के पालक जिम्मेदार हैं। लेकिन इस जिम्मेदारी से भारतीय संविधान द्वारा तय बुनियाद के अधिकारी भी बच नहीं सकते हैं। यदि कर्मण्यता भारतीय मानस का गुण है तो विभिन्न सरकारी विभागों में लंबित कार्यों का ढेर क्यों लग रहा है? अभियान चलाने की आवश्यकता बार-बार क्यों पड़ रही है? करोड़ों रुपए खर्च कर विज्ञापन के जरिए बताना पड़ रहा है कि जनहित के कौन-कौन से कदम सरकार उठा रही है। इसका सीधा अर्थ है कि जनमत स्वीकार नहीं कर रहा है कि जनहित पूरे हो रहे हैं या शासक की दृष्टि संवैधानिक नहीं, राजनीतिक है। इसीलिए सशक्त नीति भी रीति में रीता घड़ा सिद्ध हो जाती है।
यह कहना ठीक न होगा कि गणतांत्रिक संविधान की समस्याओं पर किसी का ध्यान ही नहीं गया है। संविधान के प्रथम दो दशक उसके प्रति अगाध आस्था के प्रमाण समेटे हुए थे। शायद आजादी के सिपाहियों का प्रभाव तब तक कायम था इसलिए। सत्तर के दशक से गणतंत्र की इमारत में दरारें दिखना शुरू हुईं।
इन्हें तात्कालिक और राजनीतिक नजर से भर देने की कोशिशें संविधान संशोधन में दिखाई दीं। फिर चुनावी प्रक्रिया दरकती दिखी। तब तक राजनीति की मंशा जाहिर हो चुकी थी कि वह गणतंत्र का श्रेय जनता से लेकर स्वयं रखना चाहती है यह जानते हुए भी कि भारतीय गणतंत्र का संविधान राजनीतिक क्रांति का परिणाम नहीं है। यह सच है और उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि संविधान सर्वोच्च है। इसलिए तात्कालिक प्रभावों वाली या राजनीतिक लाभ के लिए ओट लेकर जन इच्छा का खाका खड़ा करना, देश के साथ अन्याय होगा।
कुछ विचारकों का यह मत हो सकता है कि परिवर्तनकारी समय के साथ देश विकास के लिए ऐसा कुछ करना जरूरी भी करार दिया जाए। ऐसे में संवैधानिक व्यवस्था की महत्ता में राजनीति यदि श्रेय चाहे तो उसे तीसरा क्रम मिल सकता है। राजनीति, जनसर्मथन के नाम पर स्वयं को सर्वोच्च मान रही है, यही प्रमाण है कि संविधान की उस व्याख्या का अनुसरण नहीं किया जा रहा है, जो संविधान निर्माताओं ने की थी।
अनेक अनुभवों के बाद निकला यह निष्कर्ष संविधान की सटीक व्याख्या कर देता है कि संविधान एक समग्र (और निरंतर भी) प्रक्रिया है। वह न किसी राजनीतिक दल का चुनावी वादा है, न कोई कानून है, न ही अपरिवर्तनशील, जड़ पुस्तक है। यदि फिर भी संविधान की समीक्षा करने, उसे नए सिरे से लिखने की आवश्यकता कभी महसूस हुई है तो इसे परिवर्तन के संदर्भ में और जनहित की बेहतरी की नजर से देखा जाना चाहिए, राजनीतिक नजर से नहीं।
राजनीति... राजनीति... और राजनीति इस आकृति से आजाद देश का नागरिक परेशान हो गया है। वह तात्कालिक तरीकों और तरकीबों से ठगा जा रहा है। इससे उसे राहत मिले, इस पर सोचने का समय आ गया है। वैश्वीकरण के दौर में विकास की रफ्तार तेज करना दुनिया में सीना तानकर खड़े रहने के लिए जरूरी है। चुनौतियों में वैज्ञानिक और आर्थिक विकास की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। परंतु आर्थिक विकास के अंधेपन में देश की बहुसंख्यक आबादी को नजर से ओझल भी नहीं किया जा सकता।
विकास की दौड़ में देश का भीतरी संतुलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। परोक्ष रूप से संवैधानिक व्यवस्था के सामने समय की चुनौती है। परीक्षा है प्रजातंत्र और गणतंत्र की दुहाई देने वाले राजनीतिक दलों की, उनके निर्वाचित सदस्यों की और व्यवस्था का दैनंदिन संचालन करने वाली शासकीय नौकरशाही की, वे अपने कर्तव्यबोध में कितनी कर्मठता, पारदर्शिता, ईमानदारी और राष्ट्रीय भावना को तरजीह देते हैं। इन गुणों का प्रचुर मात्रा में प्रभावी सम्मिलन नहीं होना, बेहतर से बेहतर संविधान को भी केवल लिखी हुई पुस्तक के महत्व का बना देगी।