एक खुली हुई खिड़की है... मेरे मन के घर के आँगन में... ठहरी हुई है... पट पर तेरे राह देखते ... मेरे आँसू रुके हुए हैं ... कि तू आए और खिड़की खोल दे ...
एक खुली खिड़की है... जिसमें से मुझे तू नजर आती है दिन रात और सुबह शाम हर पल हर ख्याल बस तुम ही तुम होती हो, वहाँ ...कोई और नहीं
मैं सारा दिन तेरे साए में गुजार देता हूँ मैं सारी रात तेरी याद में जाग लेता हूँ और एक मौन के साथ उस खिड़की को देखता हूँ पता नहीं कितने जन्मों की ये प्यास है जो तुझे देखकर भी नहीं खत्म होती है तुझे छूकर भी नहीं बुझती तुझे पाकर भी नहीं खत्म होती है मैं खिड़की से तेरा हाल पूछता हूँ
एक खुली हुई खिड़की... जिसमें से तुम झाँकती रहो; और मुझे देखती रहो ... और बस सिर्फ देखती रहो ... तुम जानती हो न, मुझे तुम्हें देखना कितना पसंद है ...
एक खुली हुई खिड़की जिसमें तेरा प्यार टँगा रहे एक मासूम से रिश्ते की डोर के सहारे ... और मैं उस डोर के कोनों से बँध कर जी लूँ ...
एक खुली हुई खिड़की, जिसमें से तेरी खिलखिलाती हुई हँसी मेरे मन के भीतर उतरती रहे ... हमेशा की तरह सूरज की रोशनी की तरह या फिर निर्मल चाँदनी की तरह...
एक खुली हुई खिड़की जिसमें से धीमे-धीमे तेरे हाथों का जादू उतरे तेरे तन-मन के आँगन में और मुझे छुए और कहे कि तू आई है ...
एक खुली सी खिड़की, जिसमें से उस पार के पत्तों और सूरज की आँख मिचौली की छाया, तेरे मेरे चेहरे पर पड़ती रहे... और मैं उस खुदा को शुक्रिया करूँ.. जिसने तुझे मुझे दिया
एक खुली हुई खिड़की, जिसमें से बड़े हौले से तेरी मीठी सी आवाज आए मेरे दिल पर दस्तक दे और कहे कि, मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ ...